ब्लैक इज ब्यूटीफूल..

" गोरकी पतरकी गे, मारे गुलेलवा जियरा उड़ी उड़ी जाये  " ये फिलिम वाले भी न ,गोरके और उजले लोगो को ही प्रोमोट करते रहते हैं।अंग्रेज़ी साम्राज्य की विरासत को ढोते रहने का जिम्मा जो मिला है इन्हें, सो काल्ड आर्यन प्रजाति को। " ये काली काली आंखे, ये गोरे गोरे गाल"!मानो गाल गोरे नही सांवले या काले होंगे तो फिलिम पिट जाएगी। यहाँ तक कि साउथ इंडियन फिलिम मे भी हीरो भले ही सांवले हो, परंतु हिरोइनिया तो गोरकी ही होंगी!  बचपन मे बटेसर काका जब" कारी" कह के बुलाते थे तो समझ नही पाता था कि मदन का नाम "कारी" क्यों पड़ा? यूं तो गांव मे अजीब टाइप से नामाकरण होते ही रहते  है" बिकाऊ, थुकरू, बंठा, कूबड़ा, बेचन,बतहू इत्यादि ,लेकिन बाद मे पता चला इस सबके पीछे कारण है। कोई बड़ बूजूर्ग कहते कि यदि किसी का बच्चा जीवित नही रहता है तो उसके नवजात बच्चे को सिम्बोलिक रुप से किसी को एक रूपया मे बेच दिया जाता था, लेकिन लालन पालन उसकी मां ही करती थी, तो वो बच्चा बिकाऊ या बेचन हो जाता था, इसी तरह बौने को बंठा, जिसकी कुबड़ निकला हो, कुबड़ा, जो बकलेल या बेबकूफ या गूंगा होता था उसे बतहू नाम से अलंकृत किया जाता था। अलग से भले ही पंडी जी सवा रुपया दक्षिणा के साथ टिपौत बनाकर जन्मराशि और राशि का नाम बता दे पर प्रचलन मे नाम तो वही रहता था। तो मदन के  सांवले रंग के कारण नाम मिला"कारी"! बुरा भी नही लगता था उसे। बल्कि वह इंजाय करता था इस टाइप का कोई सेंस भी नही था। कभी लोग जब खुश हो जाते करियप्पा बुलाते और मदन" फूल के कुम्मा"। अपने को जेनरल करियप्पा से को रिलेट कर लेता। दिल को बह लाने के लिए ख्याल अच्छा है गालिब! तो अपने पर इंफीयरिटी कांप्लेक्स  उसे तब पहली बार हुआ जब कालेज की लड़कियों ने कोई घास न डाला।थोड़ा पकिया रंग जो था। चमक सबको पसंद होती है ,इसीलिए सोना चांदी मोती और हीरे का मोल है ,उसे कहाँ कहाँ न लोग बाग पहनते है। इंफीयरिटी कांप्लेक्स को मिटाया एक दोस्त ने कहा " जब खुद पे गरूर आ जाये तो अपने से उपर वालो को देखो, पाओगे तुम तो काफी नीचे हो और जब खुद पर तरस आने लगे तो अपने से नीचे वालो को देखो, पाओगे तुम कितने अच्छे हो" मदन की लाइफ बदल गयी। वो दिन है और आज का दिन है ,पीछे मुड़ के नही देखा। आप कहेंगे आज अचानक कारी, करियप्पा और इंफीयरिटी कांप्लेक्स की बात क्यों होने लगी तो बता दूं कि यह भारतीय मानसिकता है जिसमें रंगभेद है। भले ही मूल रुप से ये काले, द्रविड़ प्रजाति से बिलांग करतेहै, चाहे खुद रंगभेद से विदेशों मे पीड़ित होते हैं पड़  जहाँ मौका मिले स्वयं रंगभेद करना नही छोड़ते। अभी हाल मे " पार्चड" फिल्म की अभिनेत्री तनिष्ठा चटर्जी के साथ टीवी शो मे कृष्णा -भारती ने भद्दा मजाक किया उसके ओरिजनल कलर को लेकर। बात मजाक की थी पर जिसको चुभनी होती है चुभ जाती है। जहां गोरे बनने की होड़ मे फेयरनेस क्रीमो का बिग साइज बाजार हो, हिरोइनो को अपनी स्किन ब्लीच करानी पड़ रही हो, शादियां टूट रही हो, जहां मेट्रोमोनियल मे कहीं भी गोरी लड़की के अतिरिक्त डिमांड न हो ,वहाँ रंग को लेकर मजाक उड़ाना चुभता है भाई साहब! जहां लड़कियाँ घर मे रंगो के चलते क्वारी बैठी हो या फोर्स्ड मैरिज करने को मजबूर हों, जिस समाज मे बच्चों के जन्म के समय ही मां बाप उसका कलर पूछते हों खासकर बेटियां काली पैदा हो गई तो कोढ़ मे खाज! मां बाप पर उसी समय नौ मन पानी पर जाता है कि इसका विवाह कैसे होगा? ऐसे समाज मे मजाक भी छेद कर जाता है।कपड़ा लेने जाते हैं तो दूकान वाला पहले ही बोलेगा" भाई साहब आपपर यह कलर ज्यादा सूट करेगा, यह नही, यह ज्यादा डीप कलर है" क्यों भाई? भगवान ने कलर दिया, थोड़ा ज्यादा डाल दिया, क्या हुआ? गलतियां भगवान से भी होती है ,हो गई। गांव मे इसे पकिया कलर कहते है। मन बहलाने के लिए ही बोलते थे, हम काले हैं तो क्या हुआ ?दिलवाले है! कुछ तो अपने को अलग दिखाना ही था और अपने मुंह मिया मिठ्ठू बनने से अच्छा और क्या बात हो सकती है। अपने पकिया कलर पर गुमान  करते और उनको बोलते" गोरे रंग पे न इतना गुमान कर ,गोरा रंग दो दिन मे ढल जाएगा"! मानो राजेश खन्ना ने यह गाना मदन के लिए ही गाया हो। जबसे अहसास हुआ तबसे बार बार यह गाना सुनता है और खुश होता है।दिल की बात कहें या दिल का सारा खून्नस निकाल कर इस गाने मे रख दिया है। जियो किशोर कुमार! तो तनिष्ठा का मजाक उड़ाते वक्त वो सामंतवादी मानसिकता का परिचायक बन रहे थे ,जिसमे गोरे लोगों को उच्च जाति का और कालो को निम्न जाति का माना जाता है। आर्यन लोग गोरे थे और द्रविड़ मूल निलासी काले। आर्यन शासक और ब्राह्मण, क्षत्रिय और काले द्रविड़, दास, शुद्र थे। क्या यही मानसिकता आज भी काम नही कर रही है।भले ही आत्मसम्मान को चोट से उबारने के लिए " डार्क इज ब्युटीफुल" का आंदोलन चले या नारा लगे पर टीस तो मन मे रहती ही है।गोरा चिट्टा गबरु जवान या गोरी ,दूध मे नहायी लड़की सूनते ही मन  कलोल करने लगता है पर क्या कभी सुना है कि काला, सांवला गबरु जबान। काला कलूटा या काली कलुटी ही शब्द होठों पर फटकार के साथ आते है।कभी कभी कोई कवि ह्रदय " सांवली सलोनी तेरी झील सी आंखों" मे डूबने उतराने का प्रयास करता है।या हारे को हरि नाम कहते पत्नियों को सांवला सलोना पति या आपना बच्चा कृष्ण स्वरुप दिखाई पड़ता है। कहते हैं राम जी भी सांवले थे तो चलो अपने को भगवानो से ही कंपेयर कर खुश हो जाओ।पर उस मानसिकता का क्या करोगे जो काजल, शिल्पा, श्रीदेवी, रेखा को गोरा बनने पर मजबूर कर देता है। फिल्मो मे भी अभिनय नही बल्कि फेटेंसी या ख्वाबो की परी, अप्सरा को देखने जाते हैं। स्मिता और नंदिता को भी झेलना पड़ा है, तनिष्ठा तो अगली कड़ी मात्र है।रंगभेद मानसिकता है जो बदलनी पड़ेगी जिसकी शिक्षा परिवार से शुरू करनी पड़ेगी ,तब ही समाज बदलेगा।

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