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Showing posts from 2020

कश्मीरी पंडितों का सवाल

कश्मीर से धारा 370 के हटने के बाद बदले माहौल मे कश्मीरी पंडितों मे अपने वतन वापसी की आस पुनः जागृत हुई है। इतना ही नही कश्मीर मे बसने की ख्वाहिश को पूरा करने के लिए सबके लिए वहाँ जमीन खरीदने की सहूलियत दे दी गई है परंतु पंडितों के विस्थापन की समस्या यथावत जीवित है। यूं तो जन समूह का विस्थापन एक सतत प्रक्रिया है ,जो मानवीय इतिहास मे होता ही रहा है। सबसे बड़े मानव समूह का स्थायी विस्थापन तो  देश विभाजन के समय हुआ था। वस्तुतः कश्मीरी पंडितों का विस्थापन इसी देश विभाजन की उपज है । देश मे ही एक राज्य से दूसरे राज्य मे धर्म के आधार पर विस्थापन की यह अनूठी घटना है।हाल ही मे  लेखक अशोक कुमार पांडेय की कश्मीर पर  बैक टू बैक दो किताबें आयी है। पहली कश्मीर नामा और दूसरी "कश्मीर और कश्मीरी पंडित"! लेखक ने अपनी पुस्तक कश्मीर और कश्मीरी पंडित  मे कश्मीरी पंडितों के इतिहास को समेटते हुए समग्र रुप मे इसे देखने और दिखाने का प्रयास किया है। वस्तुतः लेखक कश्मीरी पंडित विस्थापन के उस विमर्श को तोड़ने का प्रयास किया है जिसके अनुसार मुस्लिमों ने पंडितों(हिंदुओं) को उनके अपने घर से निकाल दिया कि जाओ

न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बवाल

अपनी उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य तो किसानों का अधिकार है, उसे मिलना ही चाहिए। उसने जो खेती मे लागत लगाई है जैसे बीज, खाद, पेस्टीसाइड, श्रम,खेत तो उसकी मूल पूंजी है चाहे अपनी है या किराये की है, उसका उसे प्रतिफल तो  मिलना ही  चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि खेती को जबतक मात्र आजीविका का साधन बनाये रखा जाएगा, तबतक उसे लोग दिल से नही अपनायेंगे। ये अलग बात है कि  खेती कभी व्हाइट कालर जाब तो नही बन सकता परंतु इसे व्यवसाय के रुप मे परिवर्तित कराना ही  होगा। यदि सभी किसान सिर्फ अपने खाने के लिए खेतों से  पैदा करने लगेगा तो बाकी तीस -चालीस प्रतिशत जनसंख्या क्या खाएगी? अब प्रश्न यह है कि जब खेती किसानी इतना महत्वपूर्ण है तो सरकार एमएसपी को कानूनी अधिकार का दर्जा क्यों नही देती अर्थात जो कोई भी एमएसपी से कम मूल्य पर किसानों की उपज  खरीदेगा ,उसके विरुद्ध विधिक कार्यवाही की जाएगी। वस्तुतः आप जब राज्य सरकारों द्वारा निर्गत धान या गेंहूँ क्रय नीति का अध्ययन करेंगे तो पता चलेगा कि ये तो पहले से ही यहाँ दर्ज है। यहाँ स्पष्ट लिखा  है कि किसानों द्वारा लाये गये गेंहूँ या धान की मंडियों मे बोली लगाई

बदलते कलेवर मे सार्वजनिक वितरण प्रणाली

पीडीएस यानी सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम) का तात्पर्य है सस्ती कीमतों पर खाद्य और खाद्यान्न वितरण के प्रबंध की व्यवस्था करना। गेहूं, चावल, चीनी और मिट्टी के तेल जैसे प्रमुख खाद्यान्नों को इस योजना के माध्यम से सार्वजनिक वितरण की दुकानों द्वारा पूरे देश में पहुंचाया जाता रहा है। अब इसमे मुख्य रुप से गेंहूँ चावल और मक्का का वितरण किया जाता है। योजना का मकसद सस्ती दरों पर देश के कमजोर वर्ग को खाद्यान्न उपलब्ध कराना है। एक सर्वे के अनुसार मिट्टी तेल मात्र दो प्रतिशत लोग उपयोग करते थे, इस कारण धीरे धीरे यह समाप्त कर दिया गया गया है। साथ मे सरकार की उज्वला योजना ने घर घर मे रसोई गैस पहुंचा दिया जिससे खाना पकाने के लिए मिट्टी तेल की जरूरत नही रही। प्रधानमंत्री सौभाग्य योजना के अंतर्गत घर घर बिजली पहुंचाने की योजना ने प्रकाश के लिए भी मिट्टी तेल की उपयोगिता समाप्त कर दी। चीनी पहले ही समाप्त हो चुका था ,अब बस गेंहूँ चावल,मक्के का वितरण टी पी डी एस के माध्यम से हो रहा है। खाद्य तथा रसद विभाग का पहला कदम सार्वजनिक वितरण प्रणाली को पारदर्शी और स्वच्छ बनाने की ओर था। फर्जी

अब सबकुछ आनलाइन है

 आज से पांच साल पहले जब न्यूनतम समर्थन मूल्य योजना के अंतर्गत किसानों से किए जा रहे धान और गेंहूँ खरीद की बात आती थी, तो बहुत से किसानों को इसके बारे मे पता ही नही होता था। धीरे धीरे इसे आम किसानों के बीच इसे पहुंचाया जा रहा है।विभाग के कंप्यूटरीकरण के साथ साथ धीरे धीरे सबकुछ आनलाइन एवं पारदर्शी हो गया है। विभागीय दायित्वों के साथ सबसे पहले इसमे जिला प्रशासन और राजस्व विभाग का दायित्व बढ़ाया गया तिकि उनके बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर का उपयोग इसे जन- जन तक पहुंचाने मे और उसका लाभ दिलाने मे किया जा सके।। जाहिर है इससे उतरदायित्व निर्धारण मे भी आसानी हुई है। सिस्टम की सबसे बड़ी कमी यह थी कि जिन बिचौलियों के पास जमीन नही थी, वे भी किसी और की जमीन का कागज लगाकर दूसरे के बैंक खाते मे पैसा भेज देते थे और योजना का गलत लाभ लेने की कोशिश करते थे।। राज्यय मे लागू आनलाइन ई उपार्जन सिस्टम भले ही कई राज्यों के खरीद सिस्टम को देखने के बाद बनाया गया परंतु उतरप्रदेश मे यह यूनिक बनकर उभरा है। सर्वप्रथम किसानों के लिए पंजीकरण की व्यवस्था की गई और उनके पंजीकरण को राजस्व विभाग के पोर्टल भू लेख से लिंक किया गया। इस

चार्जशीट

सच्ची घटनाओं पर आधारित वेब सीरीज़ की श्रृंखला मे  'चार्जशीट- द शटलकॉक मर्डर' की कहानी 1980 के दशक के फेमस बैटमिंटन खिलाड़ी के लखनऊ मे हुए मर्डर केस की सच्ची घटना से प्रेरित है। सैयद मोदी सात बार लगातार नेशनल चैंपियन रहे है और इसको के डी सिंह बाबू स्टेडियम के सामने ही गोली मार दी जाती है। आम घटनाओं से विपरीत इसे तत्काल ही सीबीआई को सौंप दिया जाता है । सीबीआई का आरोप था कि अमेठी के राजा संजय सिंह, सैयद मोदी की पत्नी अमिता मोदी और नेता अखिलेश सिंह ने सैयद मोदी के मर्डर की साजिश रची थी।बताया जाता है कि सैयद मोदी, अमिता मोदी और संजय सिंह के बीच गहरी दोस्ती थी।इसी दोस्ती की वजह से संजय सिंह और सैयद मोदी का परिवार एक दूसरे के बेहद करीब भी आ गया था,लेकिन सैयद मोदी के कत्ल के बाद खेल, राजनीति और रिश्तों की एक उलझी हुई कहानी सामने आ रही थी।सीबीआई का आरोप था कि संजय सिंह और अमिता मोदी के बीच पनप रहा संबंध ही सैयद मोदी के मर्डर की वजह बना। सीबीआई का कहना था कि संजय सिंह ने ही सैयद मोदी की हत्या के लिए अपने साथी अखिलेश सिंह की मदद ली. उन्हें मारने के लिए भाड़े के हत्यारे भेजे थे। अदालत में

मैथिलों की नजर से अयोध्या

आखिरकार अयोध्या मे भगवान राम जन्मभूमि का चिरप्रतीक्षित मंदिर बनने का रास्ता साफ हो गया है । 5 अगस्त को इसका भूमिपूजन कार्यक्रम भी निर्धारित है। ऐसे अवसर पर जब अपनी जन्मभूमि से विस्थापित भगवान राम को उनका घर वापस मिलने जा रहा है, स्वाभाविक रुप से हम मैथिलों को सबसे ज्यादा खुशी हो रही है, साथ मे सिया सुकुमारी के लिए दर्द भी हो रहा है। सच है कि आदमी हो या ईश्वर ,बिना पत्नी के पूर्ण नही होता, क्योंकि पत्नी को अर्धांगिनी माना जाता है। क्या कभी आपने राम की सीता के बिना कल्पना भी की है ,यहाँ तक कि सीता वनवास के बाद जब राजा राम अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे ,तब उन्होंने सीता की अनुपस्थिति मे यज्ञपीठ पर सीता की मूर्ति स्थापित कर दिया था। आप कल्पना कीजिए कि सरयू तट पर भगवान राम की विशाल मूर्ति, जो सीता के बिना कैसी होगी? सरयू नदी की लहरों को अठखेलियाँ करते देखते भगवान राम ,मानो सीता वनवास से कभी लौटी ही नही। हां! सत्य है कि सीता को कभी वनवास से लौटने ही नही दिया गया। शायद ससुराल मे बहुओं और पत्नियों के साथ अन्याय की शुरुआत रामकाल मे ही प्रारंभ हुआ था।खासकर के हम मिथिलावासी तो ऐसा मानते ही हैं। वैसे भगव

तपाई लाई कस्तो छ?

 " तपाई लाई कस्तो छ? तिम्रो के नाम हो? कसलाई कुरा गर्छ?" ये बोली आपको कुछ जानी पहचानी लगेगी! बंगला, मैथिली, आसामी यहाँ तक कि हिन्दी भाषा  के अनेक शब्द इस भाषा मे मिलेंगे! हां! जी मै नेपाली भाषा की बात कर रहा हूँ ,जहाँ सीताजी की जन्मभूमि है। यह कभी मिथिला क्षेत्र हुआ करता था आज मधेशी क्षेत्र है। कहते हैं उससे रोटी- बेटी का संबंध है । जनकपुर से अयोध्या का संबंध तो पौराणिक है पर आज भी बिहार और युपी के लाखों सीमावर्ती घरों मे चाची, काकी, दादी, भाभी , मामा ,जीजा और फूफा नेपाल के हैं। कभी उसे अलग देश माना ही नही गया। कोई पूछता कि कभी विदेश गये हो ,तो नेपाल कहने पर लोग हंसी- ठठ्ठा करने लगते। अरे जहाँ बंसवारी करने जाते हो ,वह विदेश कैसे हुआ? लोग शाम मे घूमने उसपार पहले चले जाते थे। जिस तरह उतराखंड के पहाड़ के लोग कमाने के लिए मैदानी इलाके मे आ जाते हैं, सदियों से नेपाली लोग भारत आते रहे हैं। किसी देश की सेना मे विदेशी लोगों की टुकड़ी आपने सुनी है, भारत मे गोरखा टुकड़ी है तो अलग देश कैसे हुआ? जाड़े मे" गोमा" लबादा , मोटे मोटे जैकेट, जीन्स , स्पोर्ट्स जूते लेने हो तो लड़के बस पकड़क

सपनों की मौत

सलिल ने जब ज्वाइन किया तो उसे  कोई फार्मल ट्रेनिंग नही दी गई, बस यह बताया गया कि फलाने साहब के साथ तुम्हें संबद्ध किया जा रहा है। वह ही एक तरह से तुम्हारे ट्रेनर है। उसने महीनों तक सिर्फ वही किया जो उस तथाकथित सीनियर ने कहा।उधर सीनियर्स जब आपस मे बैठते तो इन नये बैच वालों का मजाक उड़ाते " अरे! ये काम धाम सीखना नही चाहते, कुछ जानना नही चाहते, बस चाहते हैं कि पका पकाया खाना मिल जाय"! सलिल को यह सुनकर बुरा भी लगता पर  आपस मे बैचमेट्स से मिलकर अपना गम शेयर कर लेता। सबकी एक ही जैसी  कहानी थी। उन्ही सीनियर्स मे से एक  त्रिपाठी जी भी थे, जो नये लड़कों को खूब मानते थे और उन्हें विभाग का भला बुरा समझाते। बोले"  यहीं नही जिंदगी के हरेक फील्ड मे  तुमलोगों को "तथाकथित मठाधीश" मिलेंगे, जो अपनी गद्दी नही छोड़ना चाहते, छोड़ना क्या तनिक खिसकना भी नही चाहते जिसपर तुम अपनी टिका भी सको। इनसे  छीनना पड़ता है"। बेवसीरिज "हंड्रेड " मे भी लारा दत्ता के सीनियर हमेशा उसे दबाते रहे, इग्नोर करते रहे, आगे बढ़ने  से रोकता रहा, अंत मे उसे अपना रास्ता खुद बनाना पड़ता है। ये दौर फ्रस्

डरना जरूरी नही है

डरना जरूरी नही है  भाग--3 ----///------- दीप्ति चिल्लाई.." नही छूना उसे, आज ही दुकान से मंगवाया है। बार बार मना किया है कि इसे सैनिटाइज कर बाहर मे धूप मे रखा है। चौबीस घंटे के बाद ही खाना है!" बेचारे शैंकी का मुंह लटक गया। चार पांच दिन रटने के बाद तो आज मम्मा ने  डेरी मिल्क चाकलेट मंगाया था, अब सामने पड़ा देखकर शैंकी के मुंह से लार टपक रही थी। इससे पहले जब भी वह  चाकलेट की मांग करता तो पापा डांट देते तो कभी प्यार से समझाते! " बेटा इस समय बाहर का कोई सामान मंगाना नही चाहिए, कहीं वायरस न साथ मे आ जाये। वो डर जाता बेचारा। पहले कहां सप्ताह मे एकबार अवश्य स्वैगी, जोमैटो या रेस्टोरेंट से आनलाइन कुछ न कुछ अवश्य मंगा लेता पर इधर उस के मुंह  पर भी लाकडाऊन लग गया है जैसे।इटली और अमेरिका के बारे मे कहा भी जाता है कि  वहाँ आनलाइन सामानों से ही वायरस तेजी से फैला है, हालांकि अपने यहाँ सबने अपने मुंह पर मास्क के साथ साथ "जाबी" ( गांवो मे बैल- भैंसो के मुंह पर बांधी जानेवाली बांस के तार से बनाई  गई जाली) भी बांध लिया है, जीभ पर कंट्रोल किया है। हालांकि इससे सबके अंदर हलवाई और

पाजिटिव होने की दहशत भाग एक

एकबार  बस मे किसी यात्री की किसी चोर ने  धारदार ब्लेड से झटके से सोने की अंगूठी सहित अंगुली भी काट लिया और उसे पता भी नही चला क्योंकि वह उधर ध्यान नही दे रहा था। जब पास वाले यात्री ने उसकी अंगुली से बहते खून को देखकर चिल्लाया, तब उसे दर्द का अहसास हुआ और वह भय से बेहोश हो गया। इस घटना  के बारे मे कहीं पढ़ा है। असल मे खतरे के बारे मे अनजान होने से भय उत्पन्न नही होता परंतु यदि उसे बता दिया जाय कि आज यह होनेवाला है, तो वह दहशत मे आ जाता है। इसलिए संभव है यह वायरस भी आप को  छू कर , दस्तक देकर निकल भी गया हो और आपको पता भी नही चला हो, और आप इंतजार ही कर रहे हों। अमूमन सर्दी ,खांसी ,जुकाम तो होते ही रहता है और ऐसे ही ठीक भी हो जाता है।इंसान वैसे ही भय से एक्स्ट्रा प्रिकाशन कर रहा है पर टेस्ट कराने से डरता है कि कहीं पाजीटिव न हो जाय। जैसे कुत्ते के काटने से ज्यादा दहशत पैदा करता है, उससे होनेवाली रेबीज बिमारी और चौदह इंजेक्शन नाभि के चारों ओर लेने का भय(अब कम लेना होता है)। उसी तरह पाजीटिव होनेपर आइसोलेशन का भय मौत से ज्यादा खतरनाक है। यह भी संभव है कि यदि पाजिटिव होने के बाद आप उसे "हो

पाजिटिव होने की दहशत भाग दो

संध्या अपने फैमिली डाक्टर से रेगुलर चैकप कराती रहती है। सप्ताह मे तीन दिन ब्लडप्रेशर और ब्लडशुगर की चेकिंग, तीन महीने मे एकबार ग्लुकोज, महीने मे थायराइड और छ महीने मे एकबार होल बाडी जांच। फिर भी कुछ न कुछ, कही न कहीं  दर्द निकलता ही रहता है। एक दो सप्ताह डाक्टर का चेहरा नही देखा तो दिल धड़कने लगता है और सांसे चढ़ने लगती है, जैसे आज गई तो कल गई। लेकिन इधर दो महीने से पूरी तरह फिट फाट है। सर दर्द और उठती चढ़ती सांसें गायब है।। खुद भी खुश हैं और परिवार भी खुश। डाक्टर भी चैन से अपने घर पड़ा है, भले ही उनकी आय थोड़ी कम अवश्य हो गई है।असल मे बड़े भय की ओट मे सारे छोटे -छोटे भय दब जाते हैं या यूं कहें कि उभरने नही पाते हैं। हम ये नही कहते हैं कि यदि डाक्टर नही होंगे तो लाकडाऊन पीरियड मे भी सभी स्वस्थ रहेंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि आधी से ज्यादा बिमारी मानसिक है या यूं कहें कि बिमारियां दिमाग मे पैदा होती है। आपने देखा होगा जब कोई साइकिल, मोटरसाइकिल आदि से फिसल कर गिरता है तो यदि हाथ पैर न टूटा न हो तो झटपट उठने की कोशिश करता है और चारों ओर देखने लगता है कि कहीं किसी ने देख तो नही। चोट पर बाद मे

जब मै अप्रैल फूल बना था

 उस साल की पहली अप्रैल आज भी याद है, जब मै अप्रैल फूल बना था और खूब बिसुक बिसुक कर रोया था। अमूमन पहली अप्रैल से पहले हमलोग बचपन मे सतर्क रहा करते थे कि कोई मूर्ख न बना जाये। हम भाई बहन आपस मे एक दूसरे को इस तरह मूर्ख बनाते थे कि" बहिन मां बुला रही है, या भैया आपको फलाना काका खोज रहे थे"। जैसे ही वो सब वहाँ जाते हम जोरों से ताली बजा बजाकर हंसने लगते। इसी तरह कोई मुझे भी बना जाता पर धीरे धीरे ये सिलसिला टूट गया । सब अलग अलग जगहों पर अपने ससुराल, नौकरी करने और पढ़ाई करने चले गये। फिर फर्स्ट अप्रैल की सतर्कता धीरे धीरे खत्म होती चली गई। शायद सन छियानबै का साल था और हमलोग विस्थापित बिहारी अपने अपने बाबूजी के अरमानों के पंखो पर सवार होकर देश की राजधानी पहुंच चुके थे। नेहरू विहार हम बिहारी- पंजाबी विस्थापितों की शरणस्थली थी। फर्क सिर्फ इतना था कि  पंजाबी मकान मालिक थे और हम किरायेदार। उस  दिन लगभग दस बजे रीतम जी ने जगाया और बोला कि नीचे आंटी के पास फोन आया था ,घर मे कुछ हो गया है । मकान मालकिन के यहाँ घर से यदा कदा फोन आ जाया करता था तो वो बुला लेती थी। मकान मालकिन इसलिए कि मालिक दि

नरक यात्रा

कहते हैं भोगा हुआ यथार्थ जब लेखनी के माध्यम से कथाओं मे उतरता है तो वह बहुत ही मारक होता है। डा. ज्ञान चतुर्वेदी जी का उपन्यास" नरक यात्रा" सरकारी हस्पतालों का कठोर यथार्थ है, जहाँ हस्पतालों और डाक्टरों का काला पक्ष खुलकर सामने आ जाता है। उपन्यास मे लेखक ने मुर्दाघर, आपरेशन थियेटर से लेकर, ओपीडी और रसोईघर तक, नर्स, वार्डव्याय, एंबुलेंस चालक, जूनियर डाक्टर से लेकर सर्जन तक के चरित्र, कुटिलता, मरीजों की जिंदगी से खिलवाड़ करने की प्रवृत्ति को निर्ममता पूर्वक उकेरा है। उसपर से हस्पताल की अंदरुनी राजनीति, लूटखसोट, भ्रष्टाचार, नर्सों के यौन शोषण इत्यादि के बारे मे भी जमकर लिखा है। लेखक चुंकि स्वयं एक डाक्टर हैं ,इसलिए उन्होंने अनेक जगहों पर डाक्टरों के मध्य बहस मे मेडिकल टर्म्स का प्रचुरता से उपयोग किया है, जो उपन्यास के प्रवाह को धीमा करता है।उन्होंने यह भी दिखाया है कि ये बड़े बड़े जो सेमीनार होते हैं, बस खानापूर्ति किए जाते हैं। मरीजों को दिए जानेवाले खाने की बनने, बांटने और मरीजों द्वारा उसको भी किसी भी तरह पा लेने की होड़, यह दर्शाती है कि नरक मे भी ठेलमठेल है। उपन्यास का सबसे महत

पटना ब्लूज... समीक्षा

लेखक अब्दुल्लाह खान का उपन्यास " पटना ब्लूज" एक मुस्लिम लड़के के अधूरे ख्वाबों की दास्तान है, जिससे समाज, परिस्थितियों और संबंधित व्यक्तियों के प्रति मंद मंद विषादपूर्ण संगीत प्रवाहित होता है। "ब्लूज" का शाब्दिक अर्थ होता है एक प्रकार का मंद विषादपूर्ण संगीत, जो नाम को कैची बनाता है लेकिन कथानक का कंटेंट तो मायने रखता ही है।ऐसे समय मे जब एक बार फिर से हिंदू -मुस्लिम विमर्श अपने चरम पर है, "पटना ब्लूज" एक मुस्लिम नौजवान की विवाहित हिन्दू महिला से प्रेम की दास्तान सुनाती है। वास्तव मे यह अस्सी और नब्बे के दशक के देश के महत्त्वपूर्ण घटनाओं को मुस्लिम नजरिए से देखने का प्रयास भर है। इंदिरा गांधी की हत्या, बाबरी मस्जिद प्रकरण, मुंबई बमकांड, भाजपा का उदय, मंडल कमीशन आरक्षण विवाद मे मुस्लिम समाज का पक्ष है। नायक और नायक परिवार एक लिबरल मुस्लिम समाज से ताल्लुक रखता है परंतु समाज का मुस्लिमों के प्रति अविश्वास, नौकरी और अन्य जगहों पर अपने को मुस्लिम होनेके कारण दोयम समझे जाने की मानसिकता को इसमे बखूबी दर्शाया गया है। एक किशोरावस्था से युवा बन रहे लड़के की अपोजिट सेक्

एक लड़की पानी पानी की समीक्षा

लेखक रत्नेश्वर सिंह का नवीनतम उपन्यास "एक लड़की पानी पानी"  पर्यावरण संकट को केंद्र मे रखकर रचा बुना गया है, जिसे एक लड़की "श्री" की  कहानी के जरिए कहा गया है। एक ऐसी लड़की, जो बिहार जैसे कट्टर जातीय समाज के सबसे निचले तबके से आती है, लेकिन अपनी प्रतिभा, सोच ,मेहनत और अद्भुत विचारों की बदौलत जल संकट संबंधी विश्वस्तरीय सम्मेलन मे भारत का प्रतिनिधित्व करती है, इतना ही नही ग्लोबल जल संकट पर रिसर्च पर शोध कार्य करनेवाले इंस्टीट्यूट मे काम करने विदेश तक जाती है।। मानव जाति को जल के आसन्न संकट से बचाने के लिए उसके "नदान- नदीली प्रोजेक्ट" और "श्रीस्त्र "यंत्र के निर्माण सदृश शोध भले ही अभी हाइपोथेटिकल लगे परंतु लेखक ने इसके माध्यम से इस दिशा मे एक राह दिखाई है। रत्नेश्वर सिंह की " रेखना मेरी जान" और" एक  लड़की पानी पानी" की विषयवस्तु को देखकर ऐसा लगता है कि पर्यावरण संकट पर उपन्यास लिखनेवाले वो संभवतः वर्तमान मे एकमात्र लेखक है। उपन्यास  का पहला चैप्टर ही लोमहर्षक है जिसमे भविष्य की कठोर सच्चाई से रुबरु कराया जाता है" लाल लाल पानी&q