बापू सेहत के लिए तू तो हानिकारक है..
" जैसी करनी वैसी भरनी" फिल्म और "अवतार" फिल्में हमें याद हैं। ये समाज को आईना दिखाती है कि किस तरह आज हमारे मां बाप अकेलेपन के अंधेरो मे खो रहे है और उनके दर्द का अहसास हमें तब होता है जब हम स्वयं उस अवस्था मे पहुंते हैं। जीवन के इस चक्र मे सभी का रोल बदलता रहता है! " सास भी कभी बहू थी!" पर हमें सास के दर्द और परेशानी का अहसास तब तक नही होती जबतक वो स्वयं सास नही बन जाती और तब उसे लगता है कि उसने भी अपनी सास के साथ अच्छा नही किया था। पर तब क्या "गुजरा हुआ जमाना आता नही दुबारा"! बेटा बहु को भी तब कष्टों का अहसास होता है जब वो खुद मां बाप के रोल मे वृद्ध हो जाता है। तब पछताये का होत है जब चिड़िया चुग गई खेत!" आश्चर्य तो तब होता है जब वो अपने बच्चों के सामने अपने मा बाप के साथ दुर्व्यवहार करता है और इस कांफिडेंस के साथ कि उसका बच्चा उसके साथ वैसा ही नही करेगा!"आदमी इतना व्यक्तिवादी और स्वकेंद्रित हो गया है कि उसे अपने परिवार मतलब पति,पत्नी और अपने बच्चों को छोडकर कुछ भी नही दिखता। बेचारा मां बाप अपने पोते पोतियों को देखने तक के लिए तरस जाता