अंत:करण की शक्ति..

  कहते है  " बडी सोच का का बडा जादू!जैसी हम अपने अंदर सोच विकसित करते है उसी तरह की तरंगे हमारे शरीर से निकलती है ! अब उन तरंगो के केंद्र मे तो   हम ही होते है ! स्वाभाविक रूप से उन तरंगो का सर्वाधिक असर हमपर ही पडता है और हम अच्छा या बुरा बनते है! इसे कहते है सकारात्मक सोच की शक्ति !तो जिन्दगी की शुरुआत सुबह से और जब जागो तभी सवेरा" । जब आपके ज्ञान चक्षु खुल जायें तभी से शुरुआत मानो। जागृति आए तो सही, भले ही देर से आए परन्तु यदि सूर्य सुबह के बजाय दोपहर में अपनी लालिमा को हमारे बीच में बिखेरें , तो दिन तो होगा ही, मगर वह दिन शायद आधा-अधूरा ही होगा ?सब चीज का एक नियत समय होता है। उस समय पर न होने पर महत्व और गरिमा कम हो जाती है। यदि कोई बूढापे मे शादी करता है तो उसकी उपयोगिता भी कम होती है और समाज भी इसे अच्छा नही मानता है।यदि व्यक्ति समय रहते स्वयं को जागृत नहीं करता तो एक न एक दिन समय स्वयं ही उस व्यक्ति को जागृत कर ही देता है।"का वर्षा जब कृषि सुखाने या अब पछताये का होत जब चिडिया चुग गई खेत!"वह व्यक्ति जिसका आंतरिक जीवन नहीं है, अपनी परिस्थितियों का गुलाम है ।"आंतरिक जीवन की समृद्धि अन्तःकरण के द्वारा ही सम्भव है । अन्तःकरण हृदय को कहा गया है। ह्रदय की शक्ति अपरंपार है।मन से यदि कोई चीज ठान लिया गया तो कहा जाता है पूरी कायनात उसे सही कराने मे लग जाती है।मानव तन का मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार मानव रूपी मंदिर के आभूषण हैं । मन प्रेरक है, बुद्धि का कार्य चिंतन है, हृदय का कार्य उद्गार व्यक्त करना है एवं चित्तवृत्ति का सम्बंध सचेतन से है । जब ये सब मिलते हैं तो रचनात्मकता लाते है और अलग अलग रहते हैं तो विकृति पैदा करते हैं ।इनका आपस मे सामंजस्य आवश्यक है!आपसी तालमेल से सुंदर परिणाम आता है! ऐसी स्थिति में इन्हें हृदयस्थ करना अनिवार्य है, तभी आंतरिक जीवन की असीम ऊर्जा का संचार सम्भव है । नैतिक शक्ति मानव में मनुष्यता को कायम रखती है, जिसके द्वारा मानव सार्वभौमिक बनकर कल्याणकारी भावना के प्रति उत्प्रेरित होता है। जो नैतिक रूप से मजबूत होता है वो हमेशा विजयी होता है!  मन की सुंदरता ही सर्वोपरि है! आंतरिक सौंदर्य मनुष्य के विकास का मार्ग प्रशस्त करती है!हम ऋषि मुनियो को देखते है जो हमेशा अपने चेहरे पर मुस्कान बिखेरे होते है ! उंनके भाव और विचार सूंदर होते है!आंतरिक व्यक्तित्व के विकास द्वारा ही मनुष्य मानव विभूतियों से परिपूर्ण होता है!" जो आत्मशक्ति का अनुशरण करके संघर्ष करता है, उसे महान विजय अवश्य मिलती है ।"व्यक्ति अन्तर्मन, अन्तर्दृष्टि तथा अन्तःकरण के आधार पर ही बाह्य आचरण करता है । हम अपने भीतर आंतरिक जीवन के आधार पर ही चलते हैं !जीवन की वास्तविक सफलता के लिए आंतरिक क्षमता बेहद जरूरी है ।आपने कई ऐसे विभुतियो के जीवनी पढे होंगे जो कुछ ठान लेते है और उसे पूरा करते है! । दृष्टि से ही सकारात्मक सृष्टि बनती है । जैसी हमारी सोच,वैसी हमारी सफलता!सकारात्मक सोच हमेशा सफल बनाती है !यदि हम अपनी क्षमताओ को नियति मानकर हार मानलेते है तो आगे नही बढ पाते, परंतु जब उसे अपनी शक्ति मानकर उसका शत प्रतिशत उपयोग करते है तो रिजल्ट अलग और अच्छा आता है! जीवन कितना भी निष्ठुर एवं कठोर क्यूँ न हो, मनुष्य की वैचारिक प्रबलता के समक्ष सब असहाय है । जब ह्रदय से ठान लिया तो सफलता मिलनी ही है।। व्यक्ति यदि विचार कर ले कि उसे जीवन में सर्वोच्य शिखर का वरण करना है, तो निश्चय ही असम्भव सम्भव में परिणत हो जाता है। कुछ भी संभव है अगर ठान लीजिए। यदि एक लंगोटी धारी कृशकाय इंसान अंग्रेजी साम्राज्य को हिला सकता है तो कुछ भी हो सकता है, एक आदमी सताइस साल जेल मे रहने के बाद स्वयं दक्षिण अफ्रीका का राष्ट्रपति बन सकता है तो कुछ भी हो सकता है! यदि राबड़ी देवी जैसी निरक्षर महिला दस साल राज्य मे शासन कर सकती है, तो कुछ भी हो सकता है, बस जज्बा चाहिए, आंतरिक इच्छा शक्ति चाहिए।स्थिति एवं दशा मनुष्य का निर्माण नहीं करती, अपितु मनुष्य ही स्थिति का निर्माण करता है । वह व्यक्ति जिसका आंतरिक जीवन सुचितापूर्ण नहीं है, वह पशु समान है। जो भरा नही है भावो से ,बहती जिसमे रसधार नही, वो ह्र्दय नही वो पत्थर है जिसमे स्वच्छ्ता नही! कहा जाता है विद्या विहीन नर पशू के समान है क्योंकि विद्या ददाति विनयम, विद्या ददाति पात्रताम! वहीं दूसरी तरफ ऐसा व्यक्ति जिसका अन्तःकरण पवित्र  व स्वच्छ  है , वह  सभ्य समाज के निर्माण कर वसुधैव कुटुम्बकम् " की संकल्पना को सार्थक रूप प्रदान करता है ।महात्मा बूद्ध, महावीर, ईशामसीह, मुहम्मद साहब, कबीर, सूरदास, तुलसीदास, अरस्तु, नेलसन मण्ड़ेला, मदर टेरेसा, स्वामी विवेकानन्द,टैगोर,ओशो एवं गाँधी जी आदि इस संकल्पना के प्रमाण हैं । इनमें से किसी को फाँसी पर लटका दिया गया, तो किसी की हत्या कर दी गई, तो किसी को जेल में ड़ाल दिया गया ।जीवन की विषम परिस्तिथियो को झेलते हुए भी इन्होने हार ना मानी और लगातार संघर्ष करते रहे !  । "मन के हारे हार, मन के जी ते जीत!"कोई तुम्हे तबतक नही हरा सकता, जबतक तुम खुद से न हार जाओ "हम  मन मे भय से बाजी हार जाते है , तो हमारी आधी शक्ति वैसे ही खत्म हो जाती है।" आदमी तभी हारता है जब वह खुद से हार जाता है, "! माइंड गेम जिसने जीत लिया, उसने बाजी मार ली।इतना ही नही, इस धरा के गतिशील रहने तक ये अमर आत्माएँ प्रासंगिक रहेगी ।वास्तविक जीवन बाह्य नहीं आंतरिक होता है । जिसका अन्तःकरण जितना ही स्वच्छ, पवित्र, परोपकारी, प्रेमपूर्ण तथा प्रसन्न होगा , वो उतना ही निर्मल होगा! इसके विपरीत जिसका अन्तःकरण मलिन, स्वार्थी, छली तथा असन्तुष्ट होगा , उसके पास क्यूँ न कुबेर का भंड़ार हो और क्यूँ न वह इन्द्र जैसा भोग- विलास से पूर्ण विभ्रामक जीवन जी रहा हो ,वह जानवर  के समान होगा! व्यक्तित्व का निर्माण व्यक्ति की आंतरिक कृतित्व की बुनियाद पर होता है । जिस पर वह भावी जीवन का सुनहरा भविष्य रचता है ।आपका अवचेतन मन कल्प वृक्ष की तरह आपकी इच्छाओं को ईमानदारी से पूर्ण करता है ।इसलिए आपको अपने मस्तिष्क में विचारों को सावधानी से प्रवेश करने की अनुमति देनी चाहिए क्योंकि अगर गलत विचार अंदर आ जाएगे तो गलत परिणाम मिलेंगे।  यदि व्यक्ति का आन्तरिक जीवन खूबसूरत, सद्गुण युक्त, सुविचार, स्वतंत्र, प्रतिभावान न हुआ तो बाह्य जगत में वह इंसान पशुवत जीवन जीता है ।  "प्रकृति का अनुपम विधान ब्रह्माण्ड़ और उसकी अनुपम कृति मानव है । भूतल पर प्रकृति द्वारा सभी वस्तुएँ प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से उसी के निमित्त है । समय के माँग के परिप्रेक्ष्य अमन, सुख, शान्ति हेतु उद्दाम भोगवाद से बचकर समझ का सहारा लेते हुए प्राणियों को वसुधैव कुटुम्बकम् को ध्यान में रखते हुए  मानवता की रक्षा करना चाहिए ,जो कि अध्यात्मिक सोच एवं प्राच्य दर्शन से ही सम्भव है ।  व्यक्ति का अच्छा जीवन ही अच्छे पल की रचना कर सकता है ।वातावरण हमे अच्छा बूरा बनाती है  और एक्बार जब हम अपने ह्र्दय को उसमे ढाल लेते है तो फिर उसी के अनुरुप कार्य भी करते है! हम स्वयं परिस्थितियों को अनुकूल या प्रतिकूल बनाते है । बुरा जीवन व कार्य व्यक्ति को पतन की गहरी खाईं में ढ़केलकर परतंत्र जीवन जीने के लिए विवश कर देता है।"बुरा जो देखन मै चला बुरा न मिलया कोई, जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोई।।"

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