Posts

Showing posts from 2021

दलित लोकदेवता सलहेस

Image
भारत ग्रामों का देश है और हरेक ग्राम मे ग्राम देवता और लोक देवता हैं। जातियों - पंथों के अपने अपने देवता और नायक हैं। प्रसिद्ध समाजशास्त्री " एम एन श्रीनिवासन " ने समाज के संस्कृतिकरण मे इस पर विस्तृत रूप से लिखा है कि किस तरह समाज के निम्न तबके की जातियां अपने उत्थान के लिए उच्च जातियों की संस्कृति अपना लेती है। वस्तुतः निम्न जातियों के लोकदेवता कभी भी मुख्य धारा के सांस्कृतिक इतिहास के पात्र नही रहे। ये तो सबलटर्न इतिहास लेखन ने उन्हें स्थान दिया है। इन लोक देवताओं और नायकों ने हमेशा उच्च जातीय सत्ता को चुनौती दी है। ऐसे ही लोकनायक या लोकदेवता हैं राजा सलहेस। इनकी कथा का मुख्य स्रोत दलित लोक गायन परंपरा है।            उत्तर बिहार और नेपाल की तराई के इलाक़े में दुसाध जाति सलहेस देवता की पूजा करती है। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि सलहेस दरअसल शैलेश का अपभ्रंश है, जिसका सम्प्रदाय पांचवीं-छठी सदी में भी मौजूद था।इन्हें श्रद्धा और आदर से "राजा जी "भी कहा जाता है। गांव एवं छोटे शहर में बट अथवा पीपल के वृक्ष तले इनका स्थल  गहबर (पूजा स्थल) या गुहार लगाने का स

अघोरी

Image
अंग्रेज इतिहासकारों ने भारत को संपेरों, भूत प्रेतो और तंत्र मंत्र का देश कहा था। असल मे यह सब अंधविश्वास से जुड़ा मसला है। जाहिर है अशिक्षा के कारण अंधविश्वास और तंत्र मंत्र हावी होता है। इसका लाभ तांत्रिक मांत्रिक उठाते रहे हैं। वास्तविक अघोरी या तांत्रिक धन संपत्ति की लालच नही करते। जो इसके नामपर लोगों को उल्लू बनाते हैं, वो गांव घर मे लोगों को सब्जबाग दिखाकर ठगते हैं और कुकर्म करते हैं, वो ठग होते हैं। एक गांव मे जमीन के नीचे दबे सोने निकाल कर देने के लालच में किशोरी की बलि देने में उसके माता-पिता  को भ्रमित कर एक तांत्रिक ने  पिता के सामने पूजा-पाठ के नाम पर तांत्रिक ने किशोरी को न केवल नग्न किया बल्कि खेत में ले जाकर बलात्कार भी किया और फिर उसकी गला दबाकर हत्या कर दी। वास्तविक अघोरी ऐसे नही होते। वो जिंदगी का सत्य जानने को इच्छुक होते हैं।  अघोरियों के बारे मे कहा जाता है कि इन्होंने प्रेतात्मा को अपने वश मे किया होता है जिससे वो अपना काम कराते हैं। बहुत हदतक जैसे जिन्न से अपने काम कराया जाता हो। एकबार की घटना है जब गांव मे एक तांत्रिक बाबा आये थे। वो जब शाम मे बैठकर जम

फोर्टिफाइड राइस और कुपोषण

नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार देश के करीब 65 प्रतिशत लोग भोजन में चावल का उपयोग करते हैं। चावल की खपत वाले देशों की आबादी में सामान्यतः: विटामिन ए की कमी, प्रोटीन तथा ऊर्जा आधारित कुपोषण, जन्म के समय बच्चों का कम वज़न, शिशु मृत्यु दर की अधिकता देखने को मिलती है। भारत में 6 माह - 5 साल के 59 फीसद बच्चे, 15 - 50 साल की 53 फीसद महिलाएं और इसी आयु वर्ग के 22 फीसद पुरुषों में आयरन और सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी है। वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2020 में भारत विश्व के 107 देशों में 94 वें स्थान पर रहा है। इस कुपोषण से लड़ाई के लिए सरकार ने फोर्टिफाइड राइस वितरण करने की योजना बनाई है। इस योजना के कार्यान्वयन से  क्रोनिक कुपोषण को कम करने में सहायता मिलेगी। कुपोषण से समाज के निम्न तबके के लिए यह भोजन के साथ दवा का भी काम करेगा। फोर्टिफाइड चावल का वितरण 'सार्वजनिक वितरण प्रणाली, 'समेकित बाल विकास सेवा'(आंगनबाड़ी) और 'मिड-डे मील' कार्यक्रमों के तहत किया जाएगा। क्रोनिक कुपोषण आमतौर पर गरीब, सामाजिक-आर्थिक स्थितियों, कमज़ोर मातृ स्वास्थ्य और पोषण से जुड़ा होता है। भारत ने वर्ष 2022 तक ‘कुपोष

सुल्ताना डाकू

Image
चंबल के बीहड़ो मे डाकूओं का प्रसिद्ध ठिकाना है, जहाँ एक से एक कुख्यात और दुर्दांत डाकू रहते थे । परंतु  बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध में नजीबाबाद-कोटद्वार क्षेत्र में इसी प्रकार सुल्ताना डाकू का खौफ था। चंबल के डाकू बागी थे तो सुल्ताना देसी राबिनहुड, जिसने अंग्रेजी सरकार को अपने तेज तर्रार कारनामों से पानी पिला दिया था। उतराखंड के कोटद्वार से लेकर उतरप्रदेश के बिजनौर तक उसका राज चलता था। सुल्ताना डाकू के संबंध मे लिखित अभिलेख कम उपलब्ध है। उतरप्रदेश सरकार के गृह विभाग के गोपनीय अभिलेखों मे उसका उल्लेख एक दुर्दांत डाकू के रुप मे है। प्रख्यात शिकारी जिम कॉर्बेट ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘माय इंडिया’ के अध्याय ‘सुल्ताना: इंडियाज़ रॉबिन हुड’ लिखा है। लेखक नवाराम शर्मा ने " गरीबों का प्यारा" नाम से सुल्ताना डाकू पर किताब लिखा।सुल्ताना के बारे मे ज्यादातर किंवदंतियां, गांवों मे प्रचलित कहानियां हैं और बड़े बुजुर्गों की यादों मे अंकित घटनाएं हैं। कहा जाता है कि वह इतना साहसी था कि डाका डालने  से पहले अपने आने की सूचना दे देता था, उसके बाद लूटने आता था।  सुल्ताना ने कभी किसी ग़रीब

बाढ रोकने के लिए इच्छाशक्ति की जरूरत है

वर्ष 1996 की जून माह की बात है जब  मै दिल्ली से गांव के लिए चला था। वैशाली एक्सप्रेस से मुजफ्फरपुर शाम चार बजे उतरा। मुजफ्फरपुर से मेरा गांव 45 किमी है। बैरिया स्टैंड से बस पकड़कर 20 किमी आगे आया। बस से उतरकर पैदल एक किमी चलने के बाद एक ट्रैक्टर मिला ,जो सवारियों को ढ़ो रहा था। बागमती नदी से 200 मी पहले उसने भी उतार दिया। नदी किनारे एक नाव पर सवार हुआ, जिसने उस पार उतारा। फिर कुछ दूर पैदल व ट्रैक्टर के सहारे रुन्नी गांव तक पहुंचा ,जहाँ से मिनी बस मिली और अपने गांव प्रेमनगर रात बारह बजे पहुंच पाया। कुल मिलाकर इस 45 किमी दूरी, मैने आठ घंटे मे तय की। मै अकेला नही था ,हजारों लोग इसीतरह सीतामढ़ी से मुजफ्फरपुर आ जा रहे थे।  दिल्ली से घर पंहुचने के किस्से के पीछे वो दृश्य दिखाना था कि बाढ़ ने उस जमाने मे आवागमन की क्या हालत कर दी थी। यह वह जमाना था, जब सीतामढ़ी- मुजफ्फरपुर मार्ग पर हरेक साल पांच -छः महीने के लिए डायरेक्ट बस सेवा बंद हो जाती थी। छोटी गाड़ी से मुजफ्फरपुर आने के लिए 100 किमी का चक्कर काटकर पुपरी-जाले होकर आना पड़ा। बागमती नदी पर उस समय पुल नही था और हरेक साल पुराना पुल पानी मे डूब जाता

मिथिला मे पोखरा(तालाब)

पग पग पोखरि माछ मखान मधुर बोल मुस्की मुखपान यै अछि मिथिलाक पहचान। जाहिर है पोखरि अर्थात पोखरा(तालाब) का महत्व मिथिला के  जन-जन मे रचा बसा है।यहाँ बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी से ही कर्मकांडो मे पोखर-यज्ञ के माध्यम से पोखरा खुदवाया जाने लगा था। पुण्य के लोभ मे, सिंचाई एवं जल की अन्य आवश्यकताओं तथा यश कीर्ति की आकांक्षाओं के कारण मिथिला मे पोखरा खुदवाने की परम्परा बहुत प्रचलित थी। जाने अनजाने मे यह कार्य पर्यावरण और जल संरक्षण की दिशा मे अद्भुत कार्य था। तालाबों से न केवल पृथ्वी का जल स्तर बना रहता है बल्कि बर्षा जल भी संरक्षित होता है। पोखरा मुख्यतः राजा महाराजा एवं जमींदारों द्वारा खुदवाया जाता रहा है। साथ ही समाज के सक्षम लोग भी अपनी यशकीर्ति के लिए पोखरा खुदवाते थे। मध्यकालीन इतिहासकार ज्योतिरीश्वर के वर्णरत्नाकर (चौदहवीं शताब्दी) में भी इस क्षेत्र के सरोवर और पोखरे का वर्णन है।उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लिखी गई पुस्तक " आईना-ए-तिरहुत" मे  मिथिला के  प्रसिद्ध पोखरों का विवरण है।बिहारी लाल फितरत, जिन्होंने गाँव-गाँव घूमकर और सर्वेक्षण कर आईना-ए-तिरहुत की रचना की,के अनुस

स्वामी विद्यानंद और दरभंगा महाराज

स्वामी विद्यानंद  भारत मे धर्मगुरुओं और स्वामियों की महत्ता हमेशा से रही है। यहाँ तक कि ब्रिटिश शासनकाल मे सामाजिक और धार्मिक आंदोलनों के साथ किसान और आदिवासी आंदोलनों मे भी इनकी भूमिका बढचढकर रही है। वो चाहे संन्यासी विद्रोह हो, मोपला विद्रोह हो या बीसवीं सदी का किसान आंदोलन। स्वामी सहजानंद तो किसान आंदोलनों के प्रणेता ही माने जाते हैं । उनसे पुर्व दरभंगा मे किसानों को संगठित करने और उनकी आवाज को पूरजोर तरीके से उठाने का श्रेय स्वामी विद्यानंद को जाता है।। बीसवी सदी के दूसरे दशक के अंत तक भारत मे लगभग  92% लोग अपने जीविकोपार्जन हेतु कृषि कार्य में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संलग्न थे। लेकिन कृषि की पद्धति पुरानी  और भू राजस्व व्यवस्था अत्यंत शोषणमूलक थी। कतिपय कारणों से कृषि अर्थव्यवस्था अत्यंत हानिकारक हो गई और कृषक वर्ग निर्धन होता चला गया।अधिकांश किसान जमीन से बेदखल होने पर बटाई दार और भूमिहीन मजदूर बन गए तथा उनकी भूमि जमींदारों के पास चली गई। लार्ड कार्नवालिस के स्थायी बंदोबस्त ने बिहार मे दरभंगा राज, हथुआ राज,बेतिया राज,डुमरांव राज,पातेपुर राज,छोटानागपुर राज जैसों को जमींदारी

चे ग्वेरा--- साम्राज्यवादी शोषण के विरुद्ध पोस्टर ब्याय

Image
अर्नेस्तो चे ग्वेरा…. स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों मे नवयुवको के टीशर्ट पर छपा वो युवक, जिसने अमेरिकी साम्राज्यवाद को चुनौती दी थी और लैटिन अमेरिकी देशों मे विश्व क्रांति का बीज बोया था, मार्क्सवादी क्रांतिकारियों का मसीहा है और पोस्टर ब्याय है। उनके हाथ में बड़ा सा सिगार, बिखरे हुए बाल, सिर पर टोपी, फौजी वर्दी सबको लुभाती है। जिस तरह से उन्होंने अपनी जिंदगी जी और जैसे वो  मरे, उसने उन्हें पूरी दुनिया में ‘सत्ताविरोधी संघर्ष’ का प्रतीक बना दिया है। वास्तव मे एक क्रांतिकारी के रूप में ,जो स्थान भगत सिंह का भारतीय उपमहाद्वीप में है ,वही स्थान चे ग्वेरा का लैटिन अमेरिकी देशों में है। उनके द्वारा लिखा गया "गुरिल्ला युद्ध शैली के तरीके " पुस्तक आज भी माओवादी क्रांतिकारियों के लिए बाइबिल है। महान दार्शनिक और अस्तित्ववाद के दर्शन के प्रणेता ज्यां-पॉल सार्त्र ने ‘चे’ गेवारा को ‘अपने समय का सबसे पूर्ण पुरुष’ जैसी उपाधि दी थी। इसके पीछे गेवारा की भाईचारे की भावना और सर्वहारा के लिए क्रांतिकारी लड़ाई का वह आह्वान था ,जो उन्होंने लैटिन अमेरिका के लिए किया था। ये डॉक्टर,

भोज न भात हर हर गीत

बेचारे पंडी जी बीबी और छोटे से बच्चे के साथ रहते हैं। अब वैसे ही एक दिन के लिए वायरल हुआ और आसपास के माहौल से घबराये पहुंचे हस्पताल। फटाफट और लोगों की देखा देखी नाक और मुंह मे डंडी घुसाकर सपरिवार टेस्ट दे दिये। अगले दिन बुखार भी ठीक हो गया बाकी सब चकाचक था ही। बेचारे भूल भी गये की अपने आफत की पुड़िया कहीं बांधकर चले आये हैं। पांच दिनों के बाद अचानक एक फोन ने जिंदगी को नरक कर दिया।" आप सपरिवार पाजिटिव हैं"। अब क्या करें बेचारे! मन मे भय होने लगा कि उन्हें कुछ हो रहा है, अचानक से उन्हें अंदर से बीमार होने की फीलिंग आने लगी।  अगले दिन सुबह सुबह नगरपालिका की टीम आयी और घर को चारों तरफ से सैनिटाइज कर गई। दो चार गोलियों की पुड़िया थमा गई और मोबाइल मे आरोग्य सेतु ऐप एक्टीवेट कर गई। बेचारे सुबह शाम कालोनी की गलियों मे टहलते थे, आज निकले तो लोग दूरियाँ बनाने लगे और शंका की नजरों से देखने लगे। उन्हे महसूस होने लगा कि सबकी नजरें उसी को देखकर कुछ कह रही है !"देखो ! वो पाजीटिव जा रहा है!" कलतक जो बड़े प्यार से सम्मान से मिलकर नमस्ते कर रहे थे, उन्हें देखकर कतरा कर निकलने लगे।  अगले

विस्थापित होने का भय

Image
   अपनी जन्मभूमि या अपने घरों से विस्थापित कर दिये जाने का दर्द भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों से ज्यादा कौन जान सकता है? देश विभाजन काल  से लेकर आज तक मास स्केल पर अपने घरो से बलपूर्वक विस्थापन काश्मीरी हिंदुओंं ने भी देखा है। विकास के क्रम मे नदियों पर बांधों के निर्माण के क्रम मे उसकी  पेटी के अंदर आनेवाले गांवों का विस्थापन लगभग सभी  नदियों के साथ हुआ है। लेकिन हम यहाँ एक ऐसे गांव के विस्थापन के संबंध मे बात कर रहे हैं जो वनभूमि पर बसे होने के कारण अपने अनिश्चित भविष्य को लेकर जूझ रहा है।            ललई की उम्र लगभग पैंसठ वर्ष है। वह जनपद पीलीभीत से सटे उतराखंड के गांव बग्घा चौवन मै रहते हैं। यह गांव पीलीभीत टाइगर रिजर्व  के बार्डर पर स्थित है।वह इस गांव मे लगभग बीस वर्ष की आयु मे आया था। उसने यहाँ बंजर पड़ी वनभूमि को अपनी मेहनत से उपजाऊ बनाया । जहाँ चालीस पैंतालीस साल पहले सिर्फ बड़ी बड़ी झाड़ियाँ ही मात्र थी, आज वहाँ लहलहाती गेंहूँ की फसल है।वह बताते हैं कि उनके खेतों मे धान, गन्ना से लेकर सभी प्रकार की सब्जियां और मसाले तक उपज रहे हैं। परंतु वो चिंतित हैं क्योंकि सरकार उन्हें अपने गांव