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Showing posts from March, 2024

न्यूनतम समर्थन मूल्य योजना

 किसानों के आंदोलन से न्यूनतम समर्थन मूल्य का मसला एकबार फिर से चर्चा में आ गया है। वास्तव में अपनी उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य तो किसानों का अधिकार है, और यह उसे मिलना ही चाहिए। वस्तुत न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों को बाजार के उतार चढ़ाव और व्यापारियों - बिचौलियों के शोषण से बचाने की गारंटी देता है। किसानों ने अपनी खेती मे जो भी  लागत लगाई है,  जैसे बीज, खाद, पेस्टीसाइड, श्रम,खेत का किराया , चाहे अपनी है या किराये की है, उसका उसे प्रतिफल तो मिलना ही चाहिए, परंतु अभी यह उनका अधिकार नहीं है।  खेती को जबतक मात्र आजीविका का साधन बनाये रखा जाएगा, तबतक उसे लोग दिल से नही अपनायेंगे। ये अलग बात है कि  खेती कभी व्हाइट कालर जाब तो नही बन सकता परंतु इसे एक सुरक्षित व्यवसाय के रुप मे परिवर्तित कराना ही सरकार  और स्वयं किसानों का उद्देश्य होना चाहिए। यदि सभी किसान सिर्फ अपने और अपने  परिवार के खाने के लायक मात्रा में ही  खेतों से उत्पादन करने लगेगा तो बाकी तीस - चालीस प्रतिशत जनसंख्या क्या खाएगी? अब प्रश्न यह है कि जब खेती किसानी इतना महत्वपूर्ण है तो सरकार एमएसपी को एक विधिक दर्जा देकर कानून क्यों

सिकुड़ते जा रहे हैं जंगल

वास्तव में इंसान के भौतिक विकास की कीमत प्रकृति चुका रहा है। यूं तो पर्वत, पहाड़ , नदी, सागर सभी पर इस विकास का असर हुआ है परंतु सबसे बड़ी क़ीमत  पेड़ पौधे और वन चुका रहे हैं। जब भी किसी सड़क का चौड़ीकरण होता है, तो सबसे पहले उसके किनारे लगे पेड़ों  को काट दिया जाता है। भले ही हम प्रतिवर्ष सघन  वृक्षारोपण कार्यक्रम चलाकर पेड़ों को लगाते हैं, परंतु उस पुराने पेड़ की स्थिति तक पहुंचने में कई दशक लग जाते हैं। शहरों का विकास व बढ़ती जनसंख्या को खिलाने के लिए वनों की भूमि का बदलता उपयोग वनों के विनाश का प्रमुख कारण है। एक रिपोर्ट “2023 फारेस्ट डिक्लेरेशन असेसमेंट : ऑफ ट्रैक एंड फॉलिंग बिहाइंड” के अनुसार  यदि ग्लोबल वार्मिंग में हो रही वृद्धिदर  को 1.5 डिग्री सेल्सियस के नीचे रखना है, तो जंगलों को बरकरार रखना बेहद जरूरी है। सच कहें तो ये जंगल हमारी दुनिया के फेफड़े हैं, जो न केवल प्रदूषित हवा को साफ करते हैं बल्कि जैवविविधता को भी बचाए रखने में अहम भूमिका निभाते हैं। यह उत्सर्जित होने वाली कार्बन डाइऑक्साइड जैसी हानिकारक गैसों के एक बहुत बड़े हिस्से को सोख लेते हैं, जिसकी वजह से तापमान में होत

गंगा नदी के अस्तित्व खतरे मे

   केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने मार्च 2023 मे उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के 94 जगहों से गंगा जल की जांच कराई थी, जिसमें पाया गया कि अधिकांश स्थानों पर गंगा का पानी पीने योग्य क्या, नहाने लायक भी नहीं रह गया है। शहर के सीवरेज ने गंगा जल की ऐसी दुर्दशा कर दी है कि  गंगा के पानी को फिल्टर तक नहीं किया जा सकता है। पिछले दो वर्षों में पटना के घाटों पर गंगा जल का प्रदूषण 10 गुना अधिक हो गया है। पानी के प्रदूषण ,घटते जल स्तर, निरंतर कम होते नदी पाट, सिल्टों के जमाव से नदी सिमट  रही है। स्वाभाविक  रूप से गंगा नदी धीरे धीरे मृतप्राय होने की स्थिति में आ रही है। आईआईटी खड़गपुर के प्रोफेसर अभिजीत मुखर्जी के साथ कनाडियन शोधकर्ता सौमेंद्र नाथ भांजा और ऑस्ट्रिया के योशिहीदी वाडा ने  2015 से 2017 के मध्य गंगा नदी पर किए अपने अध्ययन में कहा  कि गंगा  नदी में हरिद्वार से लेकर बंगाल की खाड़ी तक पानी पीने योग्य नहीं रह गया है। लगभग दो दशकों से गर्मियों के सीजन में गंगा के पानी के स्तर में निरंतर कमी देखी जा रही है। मई महीने में प्रयागराज के पास फाफामऊ में गंगा के पानी का