कक्का की पालिटिकल नजर.

बिहारी काका गांव जाते रहते हैं। आज तो कोजागरा था तो भला क्यों न जाते! काफी दिनों बाद पान, मखान, दही पर हाथ साफ करने का मौका जो मिला था।बाहर के लिए भले बिहारी पंडित हों पर गांव के लिए थोड़े ही बदले हैं।" पोथी पढी पढी जग मुआ पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढे सो पंडित होय"। तो यह पंडित उस प्रेम को नही पढता है जो " मैने प्यार किया" से "प्रेम रतन धन पायो" तक  लगातार प्रेम नाम के नेपलिया ट्रेन को धूकूर धूकूर खींचता और धकियाते धकियाते पचास साला नवजवान ह़ो गया पर अपने जीवन मे प्रेम न पा सका। यह पंडित तो बिहारी है जो गवई  पालिटिक्स मे इंट्रेस्ट लेता है,अपने को हमेशा उन गांवों की गली कूचों मे पाता है जहाँ अभी भी प्यार है, दूलार है, ममता की छांव है, मिट्टी की सोंधी महक है, हीरा मोती जैसे बैल भले न मिलते हों पर खेत मे आरी डरेर आज भी हैं, आम के बगीचे मे झुले अभी भी लगते हैं और मधुश्रावणी मे नवब्याहता अभी भी फूल लोढ़ने जाती है, जहाँ अभी भी बाप से नजर मिलाकर बात करने मे हिचक होती है , भले ही पट्टी दारी का झगड़ा पुश्तो से हो पर एक घर की तीमन तरकारी पड़ोसी के घर मे सिर्फ खुशबू नही फैलाती बल्कि खायी भी जाती है। बिहारी वह नही है जिसे दिल्ली बांबे मे हिकारत भरी नजरों के साथ देखते हुए पुकारा जाता है, बल्कि अपने जमीन से उखड़ा, बिछड़ा एक पंछी है जो बार बार उसी आशियाने की ओर देखता है भले ही घोंसला कई पेड़ो पर बना लिया हो।पालिटिकली काफी सेंसिटिव है। बिहारी पंडित तो वह अर्जुन पंडित है जो भले ही अन्याय के खिलाफ हथियार तो नही उठाता है या उठाएगा पर कलम पर किसका जोर है, वो तो चलता ही रहेगा। तो बिहारी काका से जब गांव मे कोई पूछता है " का हो कक्का! केतना दिन रहेंगे! काका गुस्से से फायर हो जाते है! तुम लोग आते ही जाने की बात क्यों करने लगते हो!बड़ी मुश्किल से तो आने को मिलता है और तुम लोग भगाने लग जाते हो। उहां इधर का बात थोड़े ही है। पार्टी पालटिक्स काफी तेज है। तुम लोग अपना वरडिक्ट तो नीतीश बाबू को दे ही दिया है। अच्छा किया शराब बंद हो गया! उधर भी जाकर जोर लगाये हैं पर सफल नहिए होगा न। दलान पर खैनी चुनाते मुखिया साव बोले" अरे उहां क्या हो रहा है, किसकी सरकार बनेगी? इ मुखिया साव मुखिया नही हैं, बस एक बार मुखिया के लिए नामिनेशन फाइल किए थे ,हार गये ,तो क्या हुआ फाइट किया था न! बस उ दिन है और आज का दिन! मुखिया चाहे कोई भी जीते मुखिया साव तो वो ही कहलाते हैं।" का कहें हो मुखिया जी! उहां तो चाचा भतीजा की लडाई शुरू है। पहिले लगा के बुआ भतीजा मे फरियौता होगा पर बुआ के संगी साथी हवा मे उड़ियाने लगे हैं वो उनको पकड़े की अपनी जमीन न संभाले। इधर चाचा भतीजा के उठापटक मे भाई भाई साथ हो गये। पहले लगा शाहजहां औरंगजेब का किस्सा न दूहरा जाये  पर मामला कुछ डाउटफुल लगता है। इ जो चाय वाला के चाय पीने को आतुर जनता के मनोभाव को  पढते हुए पहलवान  ने अपने शाहजादे को हार की बदनामी से बचाने के लिए चाचा को बढावा दे दिया ।  जो असल मे दिख   रहा है,वो असल मे है नहीं। " ई बात आप इतने कांफीडेंस से कैसे कह सकते है बिहारी काका" थूक थूक कर चौकी के नीचे लघु सिंचाई योजना को क्रियान्वित करते नंदू सहनी बोले! हम भी रोजे शाम मेे सात बीस का प्रादेशिक समाचार सूनता हूं और बीबीसी भी ! आप हमलोगो को चरा नही सकते!" काका बोले " तुम लोग हमेशा बुड़बके रहोगे का? अरे इ पालटिक्स है! बेटवा को चमकाना है न! इस बार मामला थोड़ा डाउटफुल लग रहा है! वैसे भी पार्टी का बंटवारा तो आज न कल होना ही है। आज होगा तो आधा आधा हो जाएगा। और चुनाव हारने के बाद सारा ठीकरा अध्यक्ष पर ही तो फूटेगा? चुनावी चेहरा भी नही हैं बबूआ! तो बाद मे निर्विवाद बनके निकलेंगे और पार्टी टुटा भी तो हारे चचा के साथ कितने लोग जायेंगे?वाह! काका आफ वैसे ही पंडित नही कहे जाते है। बड़ी दूर की कौड़ी लाये हैं आप। "मुखिया जी हम तो वैसेभी वहाँ पार्टी पालटिक्स से दूर रहते हैं पर नजर तो बनी ही रहती है न"!इहां भी तुम लोग ऐसा कर दिये की " जंगल बाबू" अपना दूनू बेटा को सेट कर दिये न! अब बिटिया को सेंट्रल भेजना बाकी है। वैसे इहां भी बिना  परमानेंट सेटेलमेंट के वे मानेंगे नही। विकास बाबू इहां उनके चाल मे फंसे हैं उहां चाचा जी। अब समधियाना है तो खिचड़ी एके जैसा पकेगा न! और इ खिचड़ी बीरबल का नही है। जल्दिए पकेगा ! वैसे छोटा मुंह और बड़ी बात, इहां के शाहजादो से उहां बहूत ही बेहतर हैं और काम भी अच्छा किया है। आगे जनता जनार्दन जाने!"राजनीति देखनी हो तो " किस्सा कुर्सी का" देखो।कसम से  मजा  आ जाएगा!अरे ! मरदे जाने दो माछ लेने निकला हूँ, ले नही गया तो इनकी कुर्सी तो बाद मे खिसकेगी, हमारी तोआज ही खटिया खड़ी हो जाएगी"। कहते हुए बिहारी काका ने खैनी को जल्दी से जीभ के नीचे दबाया और चल दिए।

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