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लोग नकल करें ही क्यों?

वर्ष 2005-06 की बात है । पूर्वांचल के किसी गांव का दृश्य है । एक सात- आठ कमरों वाले अनफिनिश्ड बिल्डिंग  में भीड़ लगी है। रास्ते -पगडंडियों में रंग बिरंगे कपड़ों वाले स्त्री पुरुषों की भरमार है। आम के बगीचे में नीचे चादर बिछाते झूंड में बैठकर लाई - चना फांक रहा है।एक कमरे में काफी सारे बच्चे नीचे जमीन पर बैठे हैं और ब्लैक बोर्ड पर एक आदमी कुछ लिख रहा है जिसे सब बच्चे देख देखकर लिख रहे हैं। बिल्डिंग के बाहर बच्चों के बड़े बुजुर्ग कहीं आपस में बतिया रहे हैं, तो कहीं आज ही ठेले पर लगा चाय स्टाल इनके ठहाकों से गूंज रहा है। प्रथम दृष्टया आपको क्या लग रहा है? क्या हो रहा है यहां पर! हां जी यहां बोर्ड परीक्षा हो रहा है। कहीं से भी कोई माहौल नहीं है जिसमें दिख रहा हो कि बच्चों के भविष्य का यहां फैसला हो रहा हो। बल्कि यहां तो किसी तरह पास हो जायें ,इसकी ठेकेदारी हो रही है। यहां बच्चे काफी दूर दूर से आये हैं। इस छोटे से कस्बे में कोई भी छत, टीन शेड, पंपिंग सेट का घर, दालान नहीं बचा है जो एक महीने के लिए किराये पर न उठा हो। कई विशिष्ट लोग तो अपने बच्चों के लिए दूसरे को हायर कर रखे हैं या उनकी कापी