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Showing posts from September, 2016

काटजू साहब का पाक को काम्बो आफर

आदरणीय काटजू साहब, आपने पाकिस्तान  को एक काम्बो आफर दिया कि काश्मीर के साथ साथ बिहार ! एक पर एक फ्री! बिहार तो आपको फोकटे का लगता है और उपर से इ कांफीडेंस कि कोई इसको फोकटो मे नही लेगा। ये अच्छी बात है कि बिहार के बहाने कश्मीर बच जाएगा।लेकिन  ये आपका व्यंग्य था,फ्रस्टेशन था, अति बौद्धिकता थी , काफी दिनो से गाली नही खाये थे या कुछ और? ये आप जाने ! पर इतना तो तय है कि आपने इसे सिर्फ तुकबंदी मे नही कहा होगा? शायद किसी बिहारी से आपका ऐसा साबका पड़ा हो कि आप उसे भुलाये न भूल रहे हो! और इसी बहाने चाहते हो कि बिहारी लोग भारत से निकल जाये और आप चैन की नींद सो जाएं। यह अपना काश्मीर छोडने का फ्रस्टेशन है या आप सही मे जंगल राज के बारे मे सोच रहे हैं !   वैसे जंगल राज के बारे मे सोचते तो नासूर हटाने कि जगह जहाँ नासूर बना है उस हाथ  को काटने की बात नही कहते!   आपकी बाते बिहारी होने के नाते मुझे दुखी नही करती बल्कि आपकी नासमझी और  अज्ञानता पर हंसी आती है कि आपने भी बिहार के बारे मे वो ही जाना जो " नान रेजिडेंट बिहारियो" ने आप सबको दिखाया है ! मै तो समझता था कि आप न्यायाधीश रहे है, विद्वान

दक्षिणपंथी सोच के भी कुछ मायने है...

बज्जिका मे एक कहावत है"   कहबऊ त लगतऊ भक द,कोरो मे कपार लगतऊ ठक द।सत्य कडवा होता है!  बाते बर्दाश्त नही होती,हम तिलमिला जाते हैं।बिलबिला कर इधर- उधर उठा-पटक करने लगते हैं,पर इससे सत्य समाप्त थोडे ना हो जाता है।होता तो एक ही है पर हम अपने अपने पंथो के चश्मे से उसे देखते है!वास्तव मे. ये वामपंथी विचारधारा के अस्तित्व की लडाई है! दक्षिणपंथ तथा वामपंथ के मध्य विचारो की लडाई पुरानी है और इन दोनो की लडाई के मध्य कांग्रेस का लगातार सता पर हावी रही! वामपंथ लगातार इतिहासकारो व विचारको के रुप मे देशवासियो की मनोदशा गढते रहे है!हमने जो अपने विचार  और मनोमस्तिष्क बनाये है और इतिहास पढा है, वह अधिकांश् वामपंथी  या कोलोनियल इतिहासकारो द्वारा रचित है ! जाहिर है ये उंनकी सोच को प्रतिबिम्बित करता है!  दक्षिणपंथी सोच  भी एक विचारधारा है!उससे  प्रेरित इतिहास की पुनर्रचना का प्रयास किया जा रहा है तो ये उन्हे भला  . कैसे बरदाश्त हो सकता है ? कांग्रेस ने हमेशा दलितो ,अगडो और मुसल्मानो की राज्नीति की, जो उसकी हाथो से निकल कर क्षेत्रीय दलो और भाजपा के हाथो मे जा चुकी है! भारतीय राजनीति मे वामपंथी हमेशा

मन के हारे हार, मन के जीते जीत....

कहते हैं जब आप किसी चीज की इच्छा करते है तो आपके चारो ओर एक वाइब्रेशन या तरंग निकलती है जो समान फ्रिक्वेंसी या इच्छित क्रिया या वस्तु से कनेक्ट कर आपकी इच्छा पूर्ति करती है। फिल्म"ओम शांति ओम "में नायक ओम कहता है" जब आप सच्चे दिल से किसी को चाहते हैं तो पूरी कायनात आपको उससे मिलाने की साजिश करता है"। यही बात पाऊलो कोएलो ने अपनी किताब "दि अल्केमिस्ट" मे भी  कही है। कहने का तात्पर्य यह है कि इंसान स्वंय के अंदर एक कल्पवृक्ष छुपाये फिर रहा है और उसे मालूम नही। वह मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारा और गिरिजाघरो मे भटक रहा है।"कस्तुरी कुंडली बसै मृग ढूंढे बन माही!"आप जो चाह लोगे, ठान लोगे वो पूरा होगा। नेपोलियन बोनापार्ट, सिकंदर, महात्मा गांधी आदि जीवट वालो ने जो चाहा,.वो अंतत: पाकर के ही छोड़ा। सबकुछ हमारे अंदर है, खुशी, भय, हास्य, इच्छा, जैसा हम उसका उपयोग करें।एक धार्मिक ग्रंथ मे एक कहानी पढी थी  कि एक घने जंगल में एक वृक्ष था जिसके नीचे बैठ कर किसी भी चीज की इच्छा करने से वह तुरंत पूरी हो जाती थी।एक बार एक थका  हारा  इंसान उस वृक्ष के नीचे आराम करने के लिए

पिंक रिवोल्युशन

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स्त्री स्वतंत्र्ता का विमर्श काफी पुराना है! सामाजिक विकास के तीन स्तरो गांव,छोटे और मध्यवर्गीय शहर तथा मेट्रो शहर मे तीन अलग अलग समाज और स्त्रियो की स्थिति दिखलाई पडती है! मेट्रो मे पिंक रिवोल्युशन है तो गांवो मे खाप पंचायत है !पढे लिखे और खुले विचारो के बावजुद समाज की विडम्बना है कि जितनी स्त्रियो को हम उनपर हुए जुल्मो के खिलाफ आवाज़ उठाते हुए देखते हैं ,उस से अधिक महिलाओ की चीखे दम तोड़ देती हैं।उनमे से कितनी महिलाये अपनी सुरक्षा के लिए पुलिस के पास जा पाती हैं और कितनी बिना अपने को बेइज्ज्त कराये वहाँ से सहायता पा लेती हैं ? स्त्री मन कुछ नही होता वह समाज के लिये सिर्फ देह है,, जिसका हरेक स्तर पर सिर्फ भोग किया जाता है! स्त्री के खुलेपन का सीधा सम्बंध उसके : इजली एवलेवल" होने से लिया जाता है पर मर्दो को "लाइसेंस रिन्युवल:" की आवश्यकता नही !फिल्म "पिंक" माडर्न सोसायटी की कहानी है फिर भी उसमे स्त्रियो के प्रति पुरुष मानसिकता का दिवालियापन दिखता है! हाल मे दिल्ली के सेक्स सी डी कांड मे सोशल मीडीया पर स्त्रियोको मटर पनीर से ज्यादा लजीज ची

ना खायब ना खाये देब

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कल एक मित्र एक किस्सा सुना रहे थे  ,जो समसामयिक प्रतीत हो रही है :-   एक विभाग मे दो  ईंजीनियर  आपस मे   पावर के बटवारे को  लेकर लड गये! एक इंजीनियर साहब का लोभ कुछ ज्यादा ही बढ गया था! उन्होने अपने एक अधिकारी की मिली भगत से और एक अधिकारो को धोखे मे रखकर  विभागीय नियमावली बदलवा दी और दुसरे का भी सारा अधिकार अपने पास लिखवा लिया! दुसरे अपने अधिकारियो से काफी मिन्न्ते की, गुहार लगायी, काफी भागमदौड किया  पर पैसे और पहुंच के आगे उसकी एक ना चली  ! समाज और  विभाग  मे उसकी  जगहसाई होने लगी! पहले उसने कोर्ट जाने की सोची पर कोर्ट मे लगने वाले खर्चो और समय को  देखकर " आत्मघाती दस्ता'  बनने का निर्णय लिया! परिणाम यह हुआ की उसनी सारी पोल पट्टी विजिलेंस और सीबीआई को बता दी! जांच का ऐसा काला साया पडा कि   पूरे का पूरा विभाग लपेटे मे आ गया और उसकी अपनी मौत तो ब्रैन हैमरेज से हुई ही लेकिन वो साहबान ,जिनका सारा किया धरा था ,आज भी जेल के सलाखो के अंदर चक्किया पीस रहा है! सारी सम्पति कुर्क हो गयी और पत्नी एवम बच्चे  दर दर की ठोकर खा रहे है!उस  छोटी सी गलती का अंजाम उसे भुगतना पडा कोई उससे जा

जंग रहेगी जारी....!

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 "गद्दार कहीं के! जितना मिला था ,उससे पेट नही भर रहा था, क्या इतना बड़ा पेट हो गया कि अपने भाई के हिस्से को भी हड़पने का षडयंत्र कर बैठे!" सुरेश के होंठ फड़क रहे थे और उसमे से अंगारे बरस रहे थे। " पीठ  पर छुरा भोंका है तुमने! उपर से भैया भैया और नीचे से जड़ ही काटने की कोशिश कर रहे थे ! धिक्कार है तुम पर और पिताजी पर! क्या हम उनके बेटे नही है! क्या एकबार भी उन्होने नही सोचा कि सुरेश का क्या होगा? पक्षपात की इतनी ही ललक और तुमसे मिल रहे लाभों के प्रति  इतना ही लालच  था तो बटबारा कर दिये होते! न मै तुम्हारे घर मे देखता और न तुम हमारे घर मे!"सुरेश मानो आपा खोकर चिल्ला रहा था। असल मे उसके बाप ने उसके हिस्से के सारे जमीन और मकान रमेश के नाम लिख दिया था। रमेश बड़ा ही घुईयां टाइप का व्यक्ति था, अंदर ही अंदर षडयंत्र करता और अंडर द टेबल सेटलमेंट कराकर अपने काम निकालता था। पिताजी को भी उसने देश विदेश घुमाने का लालच दिया और मुहमांगी चीज दे देता था। इतना ही नही रमेश ने गांव के सरपंच ,मुखिया और कर्मचारी को भी घूस खिलाकर चुप करा दिया था। वो तो सुरेश को पता भी नही चलता यदि दाखिल खा

मंगरूआ की हिन्दी

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मंगरुआ सबेरे सबरे गुरुजी को साइकिल पर भागते देख बोला" का हुआ गुरुजी आज कौन  छब्बीस जनवरी या पंद्रह अगस्त है कि इतना सबेरे प्रभात फेरी लगाना है या झंडा फहराना है"! गुरुजी बोले तुमको पता नही आज हिन्दी दिवस है और स्कूल मे गोष्ठी आयोजित किया गया है, उसी की तैयारी करनी है। " इ हिन्दी दिवस क्या होता है? अपने देश मे न जाने कौन कौन दिवस मना लेते है  आपलोग? क्या होता है इसमे! हम तो रोजे हिन्दी बोलते हैं, लिखते हैं तो एक दिन काहे मनाये। हमलोगो के लिये तो हिंदी वर्ष और हिंदी जिंदगी है! ए सब आपलोग जैसे पढे लिखे लोगो के चोंचले है! हां! आपलोगो को हाकिम का आर्डर होगा, क्या करेंगे साहब लोगो का हुकुम मानना पड़ता है ना! फोटु वोटु खिचा कर भेजना होगा, है ना!   गुरु जी बोले" काहे का तुम मेरा टाइम खराब कर रहे हो, तुम नही समझोगे! आज  के दिन हम लोग हिंदी भाषा बोलने, लिखने ,पढने का संकल्प लेते है, याद करते है अच्छे साहित्य को!"  लेकिन गुरुजी हम याद तो उसको करते हैं ,जो मर जाता है।  जैसे हम अपने बाबू और बाबा का बरखी हरेक साल मनाते हैं या पितर पक्ष मे पिंडदान करते हैं तो  क्या हिंदी

आर्नामेंटल बाबा

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अंग्रेज लोग इस देश को संपेरो, भुत- प्रेत, साधूओं और बाबाओं का देश मानते थे, और ये रहा भी है। हिमालय के कंदराओं मे एक से एक जोगी, ज्ञानी, संत हुए हैं पर आजकल इनका अभाव है बल्कि इनके नाजायज संतानो का बोलबाला है। जो धर्म के ठेकेदार बने फिरते है पर अपने कुकर्मो के बदौलत अंत समय कृष्ण जी की जन्मस्थली(जेल) मे बिताते हैं।  भक्ति संगीत का ऐसा मिसयुज किया है अपने फीमेल बनकर नाचे और फीमेल को पुरा का पुरा एक्स्प्लायट कर  लिया! महराज अब जेले मे रास रचा रहे है! एक बाबा अपने किला या राजमहल कहिये ,उसमे  सभी कुकर्मो का सामान इकठ्ठा करे है तो एक "ओ माई गाड" के अर्द्ध्नानारीश्वर के तरह बीच वाले हो गये लगते है! ये बाबा लोग हिन्दू धरम का सफा रेंड़ मारकर ही छोड़ेंगे क्या?आर्नामेंटल बाबाओ ने भगवा चोला का युज सिर्फ जनता को बेबकूफ बनाने मे किया है।!" मन न रंगाये जोगी  रंगाये जोगी कपड़ा!"बाबा शब्द का सिर्फ आभूषण की तरह उपयोग किया। पूरा  का पूरा बनियागिरी पर ही उतर आये हैं ! योग बेचते बेचते तेल साबुन बेचने लगे!  देखो अब रिटेल स्टोर खोल रहे हैं, और सहारा, रिलांयस और बिग बाजार, स्पेंसर से टक्कर

जेनरेशन गैप

इसे आप जेनरेशन गैप कहें या समय का फर्क । शायद प्रत्येक युग मे ऐसा होता आया हो कि  हमे उपर की पीढी और नीचे की पीढी  के सोच व्यवहार और करनी मे फर्क नजर आता है। दो पीढ़ी के मध्य अमूमन 20-25 साल का फर्क होता है जिसमे प्रगति और विकास का अंतर दिख जाता है। सुमन जो महसूस कर रहे है शायद सुमन के बाबूजी ने भी महसूस किया हो और आगे चलकर उसका बेटा भी महसूस करेगा, क्योंकि जब वह उसके रोल मे आयेगा तबतक सुमन बाबूजी के रोल मे जा चुका होऐगा। शायद यही प्रकृति का नियम है। पर जो कैरेक्टर मे होता है उसे लगता है कि यह सिर्फ उसी के साथ हो रहा है जबकि वह पहले भी हो चुका होता है। श्री मद्भागवत गीता मे श्रीकृष्ण ने भी तो यही कहा है तो सुमन यहां अपनी पीढी के अनुभवो को शेयर करते हुए कहना चाहता है कि हमे आधुनिक संसाधनों से कोई गिला शिकवा नही, बल्कि हम इसे इंजाय करते है, लेकिन  हम भाग्यशाली रहे कि हमें कभी भी आज की तरह जानवरों की भांति किताबों को बोझ की तरह ढो कर स्कूल नही ले जाना पड़ा ।बस एक झोला या बस्ता उठाया जिसमे सभी विषय की एक कापी और कुछ किताबें होती थी और चल दिये स्कूल। शुरु मे करेरा के कलम से इंक मे डुबा डुबाक

भूई फोड़ देवता

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बचपन मे कहानी सुनने का बड़ा शौक था। उपिन्दर कक्का खूब कहानी सुनाते थे जिसमे फतांसी और मनगढंत कथानक हुआ करता था  पर कभी कभी उनकी कहानियां व्यंगपरक और शिक्षाप्रद भी होती थी । ऐसे ही  एक दिन जब उन्होने सुनाना शुरू किया तो हमलोगो पेट हंसते हंसते फूल जा रहा था। वे कहने लगे"  एक आदमी  एक दिन सुबह सुबह स्नान ध्यान करके धोती गंजी पहने,एक डलिया फूल और एक लोटा अछिंजल लिए मंदिर जा रहा था । मंदिर थोड़ा दूर था । चलते चलते उसे अचानक  तेज लैट्रिन लग गयी। कहीं आसपास शौचालय या उपयुक्त स्थान नही था ,जहां वह निवृत हो लेता। थोड़ी दूर तक तो पेट दबाकर, कछमछाकर पाखाना दबाया पर जब लगा कि अब धोती मे ही हो जाएगा तो बीच सड़क पर ही बैठ गया। लैट्रिन कर तो दिया पर जब उद्वेग शांत हुआ तो चारो तृफ आदमी चलते फिरते दिखाई दिए। अब क्या करे ,तो धीरे से उठते हुए उस पाखाने पर डलिया मे से कुछ फूल डालकर उसे ढंक दिया और धीरे से वहां से खिसक लिया।सड़क काफी चालू था और मंदिर के रास्ते मे पड़ता था। धीरे धीरे जो भी श्रद्धालू उधर से गुजरते ,रास्ते मे पड़े उस फूल पर कुछ बुदबूदाते और फूल डाल देते। शने: शनै: फूलो का ढेर बढ़ता गया।

जरा हम भी उन्हे याद कर लें...

गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः ।।        गुरूर्साक्षात् परंब्रह्म तस्मै श्री गुर्वे नमः ॥                                                                     शिक्षक अर्थात गुरु की महत्ता का बखान जितना किया जाय ,वह कम है परंतु  क्यों आज सभी शिक्षको के प्रति वह आदर और स्नेह  नही है जो श्रावस्ती के एक शिक्षक  के प्रति बच्चो और उसके अभिभावको का है?उसने क्या ऐसा कर दिया कि जिससे जब उसका ट्रांसफर वहां से हुआ तो बच्चे ,सहयोगी, गार्जियन सब रोने लगे?क्या शिक्षको मे कमी है या सिस्टम मे? क्यों आज शिक्षकों से शिक्षण कार्य कम और अन्य कार्य ज्यादा करवाये जाते हैं।शंभूनाथ मास्टर सबेरे से इसी बात को लेकर परेशान है कि आज मेनू मे सब्जी और चावल बनाना है, पर मार्जिन मनी नही मिला है तो सब्जिया कहां से लायें। प्रधान जी एंटी बैठे हैं, तुरत शिकायत करेंगे ब्लाक मे!  वो पढाई खाक करायेंगे। ज्यादातर बच्चे पढाई करते करते किचन की तरफ मुंह किये रहते हैं कि आज क्या मिलेगा? मानो शिक्षक छात्र का संबंध अब खाना बनाने और खाने का रह गया है। क्या दुर्दिन आ गया है शिक्षको का? शिक्षक बच्चों का खाना बनबायेगा