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Showing posts from June, 2018

हाकिम का बंगला

अखबारों मे उजड़ते बंगलों के बारे मे सुना तो बस हाकिमों के बंगलों की याद हो गई जो हमेशा इन दुर्दशाओं से गुजरती है। ट्रांसफर सीजन शुरू होते ही " मैनेजमेंट गुरुओं" का जी धड़कने लगता है कि पता नही इस बार कितने का चुना लगे।इसलिए नही कि नये हाकिम के साथ काम मे सामंजस्य बार बार बनाना पड़ता है बल्कि हाकिम के बंगले मे गाय के जौ- चुन्नी से लेकर किचेन के हल्दी-नमक की व्यवस्था उन्हे ही करनी पड़ती है। पुराने साहब गये तो बंगला खंडहर बन जाता है, जहाँ सिर्फ दरो- दीवार होती है, एक बल्ब भी नही। पर्दा-.बेड से लेकर फ्रीज और किचनवेयर सब साफ।एक बेचारे तो हरेक साल एसी लगवाते -लगवाते परेशान थे, साहब हरेक कमरे मे एसी लगवाते , ऐसे जैसे " आइसलैण्ड " मे पैदा हुए हों और भारत की गर्मी मे झुलस जायेंगे। इनके अपने घर पर जाकर देखिए तो वहां भी किसी मरदूद का उठाया हुआ ही लगा होगा। अपने पैसे से तो शायद हहाथ का पंखा भी न खरीदे हों। ट्रांसफर हुआ की खिड़की सहित ऐसी गायब।कई तो सी एफ एल तक खोल ले जाते थे। नये हाकिम को 71 इंच का एच डी टीवी चाहिए था" बाप के नाम घास पात, बेटा के नाम परोर!" कभी बाप जिंदगी

गांधी- पहला गिरमिटिया

ईश्वर जो करता है वो अच्छा ही  करता है। कबसे इच्छा थी कि "गिरमिटियों " के बारे मे पढूँ, पर समयाभाव मे पढ़ नही पा रहा था। हम लोग  बिना एग्रीमेंट के " गिरमिटिया" बने बैठे हैं। शुक्र हो " चिकेन" के नामवाली बिमारी(चिकनगुनिया नही) का जिसने घर पर बैठा दिया, वैसे मै चिकेन खाता तो नही पर न जाने ये शाकाहारियों को भी पशु- पक्षी नामावली वाली बिमारी कैसे हो जाती है? शायद जानवर वाले अंश, जो बचा है, उस पर अटैक जल्दी करता है। गांधीजी भी वही करते रहे, अपने मे से पशुता को हटाते रहे!" गांधी इन मेकिंग के दौरान। खैर! इतिहास तो थोडा़ बहुत पढा है मैने, गांधीजी को भी पढा है, थोड़ा बहुत गांधीवाद भी जानता हूँ, पर गांधीजी को इस किताब मे नये दृष्टिकोण से देख पाया।उनका  एक अलग चरित्र, व्यक्तित्व, कार्यशैली और विचार शैली देखने को मिला।मोहनदास से गांधी तो " एक गिरमिटिया" ही बन सकता था।जैसे महावीर और बुद्ध को रासलीला के बाद संसार की निस्सारता का बोध हो पाया, उसी तरह मोहनदास को अफ्रीका मे अपने शरीर के रंग का भान हो पाया, उससे पहले तो वे अंग्रेजी वेशभूषा और डिग्री के पीछे उसे