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Showing posts from November, 2016

फिदेल कास्त्रो :-- एक युग के अंत

फिदेल कास्त्रो का जाना एक युग के अंत समान है ! लैटिन अमेरिकी देश क्युबा जितना अपने चीनी और सिगार के लिये जाना जाता है उससे ज्यादा कास्त्रो की दिलेरी को लेकर !हमेशा वे एक ऐसे कहानी का पात्र बने रहेंगे जिसमे एक चीटी ने हाथी को पानी पिला दिया !उन्होंने विश्वशक्ति अमेरिका के खिलाफ मोर्चा खोला और इसी दौरान अमेरिका ने भी क्यूबा पर कई तरह के आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए। हालांकि बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद ही क्यूबा एवं अमेरिका के रिश्ते सुधर सके।आज भी क्यूबा ने अमेरिका के साथ जो समझौता किया है वो अपनी शर्तों पर किया है! चुंकि ग्लोबलाइजेशन और इंफॉरमेशन टेक्नोलॉजी की वजह से दुनिया में अब कोई अलग रह के नहीं चल सकता.! जेनरेशन ऑफ वेल्थ और डिस्ट्रीव्यूटिव जस्टिस की भी जरूरत है.! कास्त्रो की छवि हमेशा एक सर्वकालिक क्रांतिकारी की रही है। वे ज्यादातर सैनिक पोशाक में देखे जाते रहे हैं! कास्त्रो को अक्सर "कमांडेंट" के रूप में उल्लेखित किया गया है, साथ में उन्हें, उपनाम "एल काबल्लो ", जिसका अर्थ है "हार्स" यानि घोड़ा कहकर भी पुकारा जाता रहा है। इस उपनाम से प्रभावित कास

पचास दिन की मोहलत..

 नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने कहा था " तुम मुझे खून दो, मै तुझे आजादी दूंगा !"फिल्म चक दे इंडिया   मे कोच शाहरुख खान अपनी टीम से कहता है" तुम मुझे अपना सिर्फ सत्तर मिनट दो मै जीत दिलवाउंगा" ! प्रधान मंत्री जी कहते है ! आप हमे पचास दिन दे दो मै तुम्हे नया भारत दूंगा !निर्णय लेने का हक प्रधानमंत्री के पास था , उसने लिया !  अब जनता उन्हे पचास दिन देती है या नही ये जनता पर है ! पर जिसकी फट रही है वो तो चिल्लायेगा ही !फैसले का अच्छा बुरा दोनो इफेक्ट होना ही था !और जनता बियर भी कर रही है !'सही या ग़लत होना इसके लागू होने से कोई ताल्लुक़ नहीं रखता है क्योंकि फैसले के लिए जाने का इरादा ठीक था। ऐतिहासिक था, साहसिक था,मंशा अच्छी थी। लेकिन हमलोग सुत्र बहुत जोडते है  ना ! जैसे सर्दी के मौसम मे जितनी भी मौते होती है वो ठंड से ही होती है, बिमारी से भी मौत हो तो उसे भुखमरी से मौत दिखाते है क्योंकि इससे सनसनी फैलती है, मीडिया की टीआर पी बढती है !लोग लाइनो मे लगे है तो उनके साथ कोई खडा होने कोई नही जा रहा है?कोई उंनको सहारा नही दे रहा  है ,बस आलोचना चालू है !  जैसे पीपली लाइव चल र

बकायेदार की पीड़ा.

"का कहे साहब! हालत ऐसी हो गई है की धोबी का गदहा, न घर का न घाट का!"घर मे एक पैसा नही बचा है ।कोर्ट कचहरी मे पैसा फूंक दिया।कहीं शरम से जाते नही। आफिस आ नही सकता क्योंकि यहाँ से डिफाल्टर घोषित हूं। तहसील वाले हमेशा पीछे पड़े रहते हैं कि पैसा जमा कराओ, भागते फिरते रहते हैं। मार्केट मे इमेज इतनी खराब हो गई है कि कोई उधार भी नही देता। उपर से आप लोग हमेशा  नोटिस भेजते रहते हैं ,कभी टीवी पर न्युज चलवाते हैं तो कभी पेपर मे नाम उछालते है। हमलोग जिले के सबसे बड़े बकायेदारो मे शामिल हैं पर हमारी हालत हम ही जानते है!" एक राइस मिलर जब कल यह बताने लगा तो उसके चेहरे पर झलक रही पीड़ा से स्पष्ट था कि वो झूठ नही बोल रहा है। " हमने कहा " आप लोगों ने करोेड़ो रूपये के  सरकारी चावल का गबन कर लिया! आपकी देने की मंशा नही है ,नही तो वह धन कहीं न कहीं आपलोग रखे हुए ही तो है? क्यो नही जमा कर देते!" वह बोला" साहब असल मे परिस्थितियों के मारे हैं हम। कुछ तो सरकार की कमी ,कुछ हमारी कमी। सही बात तो यह है कि लक्ष्मी के हाथ पांव होते हैं! यदि उसको कहीं हाथ पांव बांधकर बैठा दिया तो आपके प

सामा चकेवा और उतरायणी का मेला

आज के " एन आर जी" (नान रेजीडेंट ग्रामीण)परिवारों के शहरुआ बच्चे तो शायद सामा चकेवा और चुगला का नाम भी न जानते हों और गांवों मे भी शहरी कल्चर के अंधानुकरण ने इस को भुलाने का काम किया है फिर भी यहाँ शाम होते ही घर दरवज्जा से ये गाने जरूर सुनाई पड़ने लगते हैं।"सामा खेलय गेलियइ हो भइया, लाल भऊजी के अंगना, लाल भउजी हो भइया देलखिन लुलुआय कि छोडू ननदी मोर अंगना हे!" छठ खत्म होते ही घर घर मे सामा चकेवा के गीत गूंजने लगते है। चंगेरा मे सामा चकेवा और पटुआ के रेशों से बने चुंगला को लेकर लड़कियाँ किसी न किसी के दरवाजे पर जम जाते और गोल घेरे मे बैठकर सुमधुर गीत गाते हैं। इसे लोक खेल भी कह सकते है जिसमे डाला फेरा जाना और चुंगला को झड़काना मजेदार होता है। सभी के भाई , बहन और भौजी का नाम लेकर गाना ,अपनापन दर्शाता है। किंवदंती है कि सामा कृष्ण की बेटी थी जिसे चुंगला के भड़काने पर कृष्ण ने शाप देकर पक्षी बना दिया था। चकेवा जो सामा का भाई था, ने तपस्या कर फिर से सामा को मानव रुप दिलवाया। यह लोकगीत समा चकेवा भाई बहन के अमर प्रेम की गाथा कहता है। गाने के बाद चुगला को आग लगाकर झुलसाया जाता ह

ब्लैक को व्हाइट करने की छटपटाहट

सडक किनारे बैंको और एटीएम के सामने लम्बी लम्बी कतारे लगी है ! दुकानो पर सन्नाटा पसरा है! गंगा नदी मे नोटो के बंडल बह रहे है !कही कुडेदानो मे नोट बिखरे पडे है1 नोटो को जलाया जा रहा है!जितने भी खाली बैंक अकाउंट थे उसमे धडाधड पैसे जमा हो रहे है ! ये क्या हो रहा  है देश मे ?  कुछ लोग बाग कह  रहे है जनता रिवोल्ट कर जायेगी ! कोई कह रहा है यदि कतार मे लगे लोगो को वोट का भी अधिकार हो तो नोट के साथ सरकार भी बदल जायेगी ! यह सब सरकार के फैसले का असर है कि हजार और पांच सौ के नोट अब चलन मे नही रहेंगे !   यदि कोई उन नोटों को बदलना चाहे तो बदल ले, जमा करना चाहे तो बैंक में जमा कर दे! मतलब साफ था कि काला धन जो कैश के रूप मे अमीरो के तिजोरियो, बैंक लाकरो और बिस्तरो के नीचे डम्प है, कागज के टुकडे मात्र रह गये !  कुछ भ्रष्ट  लोग देश का ज्यादातर पैसा अपने पास दबा लेते हैं या केवल वहाँ संचित होने के अवसर उपलब्ध कराते हैं, जहाँ से जब चाहें तब निकलवा सकें, वसूल सकें। ऐसे पैसे को बाहर निकालने के लिए या उसे कूड़ा बनाने के लिए   सरकार ऐसे निर्णय लेती है !जाहिर है चोट बडी गहरी है  तो तिलमिलाहाट भी उतनी ही बड

बाबुल मोरा नैहर छुटल जाय..

घाट से आते ही माय डलिया, कुड़वार आ ढकिया मे जो प्रसाद छठी माई को अर्घ्य दी होती है ,उसको उसरगती है और सभी को मिलाकर प्रसाद देना शुरु कर देती है। भले ही अपने व्रत मे दो दिन की निर्जला उपवास की होती है पर सबको प्रसाद खिलाने के बाद ही अपने मुंह मे अन्न रखेगी। जैसे खरना के दिन का मिठ्ठा(गुड़) वाला खीर का स्वाद बिसरते नही बनता है, उसी तरह आज सुबह सुबह ठेकुआ, कसार, लड्डू, खाजा का पंचमेड़, खजूरी खाकर मस्त हो जाता हूं। असल मे जो स्वाद इस समय का होता है, भले ही बाद मे आप कितनी बार गुड़ की खीर बनबा लो, वह स्वाद नही आ पाता।यह  स्पेशल है इस पर्व मे! हाथी(मिट्टी का)  के उपर जो ऊंख टंगा रहता है उ,मे से माली कहेगा" हमको एक दे दीजिए"! माय कहती है" तू सब तो गांवे मे रहते ह़ो, खाने दो इन सबको, ये लोग फिर ऊंख कहाँ पायेगा? वो बेचारा ऊंख को बांधने मे उपयोग किया गया, चनमा लेकर संतोष कर लेता है।हम ऊंख को लेकर पालथी मारकर बैठ गये। छीलने मे मसूडा़ छिल जाता है, खाने की आदत छूट जो गई है । याद आता है स्कूल का वो दिन जब हमलोग बैलगाड़ी पर लदे ऊंख के पीछे पीछे दौड़ते रहते थे और गाड़ीवान के आंखों से जरा ओझल ह

खुट्टा तो यहीं गड़ेगा..।

"हम सुन्नरी, पिया सुन्नरी, गामक लोग बनरा बनरी"! मतलब दुनिया मे सब गलत ,हम जो कहे ,वो ही सही! एक जिद होती है लिखे पढे लोगो मे, तर्क हो कुतर्क हो, अपनी बात सही  ठहराने की। भैया ये भी एक तरह कि सामंतवाद है! अभी श्रद्धेय मार्कंडेय काटजू साहब ने जाट लोगों का मजाक उड़ाते हुए कहा था" पंचो की राय सर माथे! पर नाली तो यहीं से बहेगी!" वैसे "डी एन ए" तो सबका गड़बड़ है! सब बिके है और और अपने हिडेन एजेंडा के तहत बकियाते हैं। हम मैंगो पीपल, बस अपने चूसे जाने फिर गूठली की भांति फिंक जाने की जलालत सहते है, फिर भी मुस्कियाते रहते है जैसे  एयर इंडिया का वो साहबान करता रहता है।तो खूट्टा गाड़ने या अपनी बात मनवाने के लिए, तो लाल चोगा धारियों को परहेज करना चाहिए क्योंकि वो तो सामंतवाद का विरोध करते है, दुनिया भर मे समानता लाने का बीड़ा उठाये हैं भले कोई बंदूक के बल पर तो कोई कलम के बल पर परिवर्तन की बात करता रहता है !पर ये जो  हरेक बात पर" लेके रहेंगे लेके रहेंगे ,"चिल्लाते रहते हैं,  ये क्या लेंगे?  जैसे दुनिया मे आजतक उन्हें कुछ भी लडाई के बिना मिला ही नही। वैसे ये बात अल