कोटा- सुसाइड फैक्टरी


रविवार के दिन भी कोटा का कोचिंग सेंटर खुला हुआ था।  महाराष्ट्र के लातूर का रहने वाला अविष्कार बेमन से कोचिंग में टेस्ट पेपर देने पहुंचा। उसने पेपर तो दिया पर इसबार भी पेपर अच्छा नहीं हुआ, वह उठा और बिल्डिंग की छठी मंजिल पर पहुंच कर वहां से नीचे कूद गया। डॉक्टर बनने का ख्वाबों एवं मां -बाप के उम्मीदों का बोझ शायद ज्यादा भारी निकला। हालांकि आविष्कार अकेला नहीं था, उसके साथ उसके नाना - नानी रहते थे। रुटीन टेस्ट  में लगातार आ रहे कम नंबर से परेशान था और डिप्रेशन में था। आदर्श के भी नंबर कम आये थे, वह भी डिप्रेशन में था और अपने कमरे में पंखे से लटक कर आत्महत्या कर ली। यह दो आत्महत्याएं तो सिर्फ़ सैंपल हैं। इस वर्ष जनवरी से लेकर अबतक कोटा में सुसाइड के 24 केस सामने आ चुके हैं। सिर्फ अगस्त महीने में ही 6 स्टूडेंट की जान गई है। इन 24 में से सात बच्चे ऐसे हैं, जिन्हें कोचिंग में दाखिला लिए छह महीने भी पूरे नहीं हुए थे। कोटा में औसतन हर महीने तीन छात्र खुदकुशी करते हैं। साल 2022 में 15 छात्रों ने आत्महत्या की थी। आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि यहां 2015 से 2019 के बीच 80 स्टूडेंट्स ने सुसाइड कर लिया था, जबकि अनेक ऐसे मामले तो दर्ज ही नहीं हो पाते। आखिरकार वह कौन से कारण जिम्मेदार हैं जो कोटा को एक कोचिंग हब से सुसाइड हब के रूप में बदलते जा रहा है। 

         चंबल नदी के किनारे बसा राजस्थान का शहर कोटा करीब तीन दशक में डॉक्टर और इंजीनियर बनने का ख्वाब देने वाले नौजवानों का मुख्य  गतंव्य बन गया है। बीच अपनी अलग पहचान बनाई है। साल 1991 में यहां गिनती के कोचिंग क्लासेज  हुआ करते थे। बिहार के बच्चों के लिए पटना, बोकारो और उत्तरप्रदेश को बच्चों के लिए कानपुर डिस्टिनेशन हुआ करता था। एक वर्ष यहां एक कोचिंग संस्थान के 10 छात्रों का चयन आईआईटी में हो गया।अगले साल यहां के  50 छात्र आईआईटी में चुने गए। बस क्या था, भेड़िया  धसान का दौड़ शुरू हो गया। लोग आंखें मूंदकर कोटा को ओर दौड़ने लगे। वर्ष 2015 तक कोटा में कोचिंग का कारोबार लगभग हजार करोड़ रुपये का हो चुका था, जो आज लगभग 5 हजार करोड़ का हो चुका है। आज करीब डेढ़ सौ कोचिंग संस्थानों में हर साल कोटा में जुलाई से लेकर जनवरी महीने के बीच 2 लाख से ज्यादा छात्र नीट यूजी और जेईई की तैयारी करने के लिए आते हैं। सिर्फ राज्य सरकार को कोटा कोचिंग इंडस्ट्री से हर वर्ष लगभग 700 करोड़ रुपये का टैक्स मिलता है। यहां की पूरी अर्थव्यवस्था छात्रों पर निर्भर है, लेकिन छात्रों के हित में काम करनेवाला कोई नहीं। सिर्फ सभी उनसे कमाने के लिए व्यवसायिक बने हुए हैं। होटल, हास्टल, पीजी, आटो रिक्शा, साइकल, टिफिन, मेस, किताब, स्टेशनरी , युनिफोर्म, टीचिंग का धंधा जोरों पर है। यदि पूरी अर्थव्यवस्था को एक साथ देखा जाए तो लगभग यह तीस हजार करोड़ रुपए की है।लेकिन इस फैक्ट्री में बनता क्या है? कितनी डाक्टर इंजीनियर बनकर निकलते हैं। सक्सेस रेशियों दो प्रतिशत है अर्थात तैयारी के लिए आये 100 बच्चों में से मात्र दो बच्चे ही सफल हो पाते हैं। स्वाभाविक रूप से बच्चों पर प्रेशर ज्यादा है। 

 अधिकांश माता-पिता अपने बच्चों को डॉक्टर और इंजीनियर के  कच्चे मिल की तरह यहां छोड़ जाते हैं और चाहते हैं कि कोचिंग संस्थान इनको अच्छा प्रोडक्ट बना देंगे। लेकिन कभी वे जानने की कोशिश नहीं करते कि उनके  बच्चे को कोई परेशानी तो नहीं, कोचिंग में उसका प्रदर्शन कैसा है? कोचिंग संस्थानों को  कोई फर्क नहीं पड़ता कि बच्चा इन प्रतियोगी परीक्षाओं को पास करने लायक है भी या नहीं। उन्हें तो बस फीस से मतलब है लेकिन वो सब्जबाग दिखाने में कभी चूकते नहीं। ज़्यादातर अभिभावक एडमिशन के बाद बच्चे को हर महीने का खर्च भेजकर अपनी जिम्मेदारी  पूरी मान लेते हैं। कुछ मां-बाप तो अपने सपनों को जबरन बच्चों पर थोपते हैं। वे चाहते हैं कि उनका बच्चा डॉक्टर-इंजीनियर बन जाए, ताकि समाज में उनका रौब बढ़े। भले ही बच्चा पढ़ने में कमजोर हो। कोचिंग के लिए आने वाले अधिकतर बच्चे मध्यम वर्ग के होते हैं। ऐसे में वे बच्चों पर प्रेशर डालते हैं। जब बच्चों से बात होती है, तो वे हमेशा यही कहते हैं कि तुम्हें पता है ना कि किस तरह तुम्हें वहां भेजा गया है, इसलिए इस बार मुझे विश्वास है तुम अवश्य पास कर लोगे। इस विश्वास का बोझ बहुत ही भारी होता है। यद्यपि कुछ मां-बाप  ऐसे अवश्य हैं, जो अपने बच्चों को लेकर काफी संवेदनशील हैं। वे अपने बच्चों की परेशानियों को समझते हैं और सही समय पर हस्तक्षेप  करते  हैं। आजकल यहां तो बच्चों को छठी क्लास से ही पढ़ने भेज दिया जा रहा है , उन्हें लगता है कि अगर वे अपने बच्चे को कम उम्र में तैयारी के लिए भेज देंगे, तो उसके सफल होने की संभावना बढ़ जाएगी। जो बच्चे छठी से 11वीं क्लास के बीच आते हैं, उन्हें नर्चर कहा जाता है। 12वीं के बाद आने वालों को ड्रापर कहा जाता है।  गलाकाट प्रतियोगिता के दौर में यहां स्वस्थ प्रतिस्पर्धा  की भावना नहीं रह गई है। दोस्त बनने के बजाय यहां सभी साथी बच्चों के कंपटीटर बन जाते हैं। उन्हें लगता है कि कहीं मुझसे पहले यह एग्जाम ना क्रैक कर ले। स्वाभाविक रूप से वे आपस में मन की बात एक-दूसरे कह नहीं पाते। यह अवसाद की स्थिति उत्पन्न करता है। अगर वह आपके बातचीत  को अनदेखा कर रहा है, खुद पर अविश्वास दिखा रहा है, बातचीत में झल्ला जा रहा है ,बिना कारण के बार-बार रोना शुरू कर देता है, हमें तुरंत संज्ञान में लेना चाहिए। संभव है वो एंग्जाइटी और डिप्रेशन मे जा रहा है ।ऐसे केसेज में शीघ्र  साइकॉलजिस्ट या किसी काउंसलर से बातचीत शुरू कर देना चाहिए। अगर भूख कम लगती है, डायरिया या दस्त आ रहा है बार बार पेशाब जा रहा है है, बहुत दिन लगातार नींद नहीं आ रही है, फूड डिसऑर्डर या बहुत ज्यादा खाने का मन कर रहा है। तो निश्चित  रूप से ये सारे फिजिकल सिग्नल्स हैं जिसमें  सतर्क हो जाना चाहिए। जो इसमें चूक जाते हैं वो अपने बच्चे को खो देते हैं।हालांकि सरकार को चाहिए कि कोचिंग संस्थानों के लिए भी कुछ कड़े नियम बनाये। जैसे हरेक कोचिंग संस्थानों में काउंसलर रखना अनिवार्य कर दिया जाय, जो सबका रेगुलर काउंसलिंग करें। इसके अतिरिक्त कोचिंग संस्थानों द्वारा दिखाये जानेवाले सब्जबाग पर भी नियंत्रण जरूरी है। सप्ताह में छुट्टी, टेस्ट भी रविवार को न हो तथा कम नंबर लानेवाले को अलग से क्लास लगायें। जो इन परीक्षाओं के लायक नहीं है या कमजोर बच्चे हैं उनको वास्तविक स्थिति से अवगत कराते हुए उन्हें अन्य दिशाओं में पढ़ाई के लिए भेजें।

     

 ग्रेजुएशन के बाद प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी और इतने कम उम्र में परीक्षाओं की तैयारी में अंतर यह है कि ग्रेजुएशन के बाद वह मैच्योर हो जाता है, प्रेशर हैंडल कर लेता है। सक्सेस रेशियों तो सिविल सेवाओं की तैयारी में लगे प्रतियोगियों का बहुत कम है लेकिन वहां सुसाइड नहीं करते बच्चे। वे अपने को दुसरी दिशा में मोड़ लेते हैं और सफल भी होते हैं। मेडिकल और इंजीनियरिंग की तैयारी में भी जबतक पटना, बोकारो और कानपुर कोचिंग हब बना हुआ था, तब भी बच्चों में इतना फ्रस्ट्रेशन, एंग्जाइटी , डिप्रेशन या सुसाइड की चटनी नहीं सुनने को मिलती थी। जाहिर है इसमें बहुत हद तक कोचिंग संस्थानों का भी रोल है, जो बच्चों का सिर्फ मानसिक  और आर्थिक शोषण कर रहे हैं। 



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