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Showing posts from January, 2017

बापू का रिटायरमेंट प्लान

जिस दिन चरखेवाली तस्वीर गायब होने की खबर आई तो हल्ला ये उड़ा कि बापू ने दस साल पहले अपनी तस्वीर खुद हटाने की फाइल आगे बढ़ा दी थी, क्योंकि साठ साल हो गये थे , रिटायरमेंट का समय आ गया था और एक ही पोज मे बैठे बैठे बापू थक भी गये थे। अब जिस पार्टी को खुद उन्होंने समाप्त करने की शायद सिफारिश की थी ,वो तो साहस न सकी। साहसी कदम कोई उनके जैसा गुजराती ही कर सकता था तो पहले उसने नोटों पर उनका पोज बदल दिया। वहाँ से फोटो हटाने पर मुद्रा अवमूल्यन का खतरा था शायद! तो शाम मे  जब मै बापू को फिर से पढने का प्रयास कर रहा था कि अचानक बापू प्रगट हो गये। बोले" क्यों चिन्ता मग्न हो वत्स? बोला" बापू ये अच्छा नही हो रहा है आपके साथ! आप इसतरह धीरे धीरे  गायब हो जाओगे तो  हमलोग दो अक्टूबर को छुट्टी कैसे मनायेंगे? वो बोले" बेटे !चौक चौराहे पर हमारी मूर्ति पर पशु पक्षियों से बीट करवाने से मन नही भरा है क्या"? जगह जगह रोड का नाम रखकर उसपर चलते हो तो मुझे मजा आता है?" मुझे तुमलोग नोटों पर छापे हुए हो, लोग बाग अपने अंगुलियों मे थूक लगा लगाकर भींगाते हैं और नोट को गिनते रहते हैं। बोलो ! कितनी घ

फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी

"परदेश जाके परदेशिया ,भूल न जाना पिया" पहले के गाने कितने सुरीले और ह्रदय स्पर्शी होते थे।मां बाप और अपनी पत्नी बच्चों को गांव मे छोड़कर परदेश जाना, रुपया पैसा कमाना और साल - दो साल पर वापस आना ,ये भारतीय गांवों का चलन था। उस समय परदेश का मतलब विदेश नही बल्कि अपने जिला जवार, राज्य से दूर जाना होता था। चिठ्ठी पतरी का जमाना था!" जाते हो परदेश पिया, जाते ही खत लिखना!"कहीं पहुंचने के सप्ताह दस दिन बाद खबर आती थी  कि सकुशल पहुंच गये हैं। गांवो मे सुनते थे कि  पहले हाईकोर्ट कलकत्ता हुआ करता था तो जब कोई केस लड़ना होता था तो लोग बाग सतुआ गुड़ और चूड़ा की मोटरी बांधकर पैदल या बैलगाड़ी से निकलते थे और महीनों बाद लौटते थे, उनकी खोज खबर भी महीनों नही मिलती थी। " नाम" फिल्म का गाना" चिठ्ठी आई है" शायद चिठ्ठी पतरी के संबंध मे अंतिम गीत था जिसमे गीतकार ने उसकाल के समाज, परिवार, संवेदना, भावना के संबंध मे कलम तोड़कर लिख दिया है। " अपने घर मे भी है रोटी" शायद नही है या हमारी महात्वाकांक्षा और "स्काई इज द लिमिट" वाली सोच ने अपनी जड़ो से दूर जाने पर

बुक शेल्फ एक स्टेटस सिम्बल है

आमेजनी, फ्लिपकार्टी और स्नैपडीलाइट होना एक मजबूरी तो है ही, स्टेट्स सिम्बल भी बन गया है। जब कूरियर वाला बार बार घर का बेल बजाता है तो शान से बाहर निकलते हैं  और इधर उधर झांक कर देखते भी हैं कि सब देख भी लें!अरे! कोई देखेगा तो ही जानेगा कि हम आनलाइन शापिंग करनेवाले कैटेगरी से बिलांग करते हैं।मेला - फेयर जानेवाले वो बचपन और चढती जवानी के दिन बीत गये ,अब तो समय की किल्लत और पैसे की बचत ही प्रायरिटी है।बचपन मे बाबूजी के कंधे पर चढकर और भैया की अगुली पकड़कर बहुत मेला घूमा और जवानी मे फिरंटी ,लफंदड़ी , आंख सेंकने और ताड़ने के लिए सब टाइप के मेलों मे अपनी उपस्थिति दर्ज कराते थे। इसकी प्लानिंग पहले ही हो जाती थी पर खरचने के पैसे न होते थे।आज पैसे हैं तो समय नही है और थोड़ी कंजूसी भी आ गई है, सोच समझकर खरचता हूं। सेल, बंपर छुट, धमाका सदृश आफर  हेतु नैना और कान सजग और सतर्क रहते हैं।तो मेले  मे बुक स्टाल पर छुट वुट लेने का तकल्लुफ कौन करे? यहाँ तो वो पहले ही बता देते हैं कि कितना कम है।फिर मेला वेला जाकर किताबें खरीदने की जहमत कौन उठावे, जब अच्छे कमीशन और छूट पर ये आनलाइनी जीव घर पर पहुंचा देते हैं।

नान रेजिडेंट ग्रामीण

ये पत्थरों के जंगल है न जो धीरे धीरे गांव और भदेशपना को लीलते जा रहे हैं।जैसे जैसे गांव व गंवईपन खत्म होता जा रहा है और शहरी कल्चर ने अपनी हनक बनाते हुए उन्हें शहरों मे बदल दिया है, हम प्रकृति और अपनी जड़ो से दूर होते गए।" जंगलों से निकलकर आदमी बने हम फिर से इन जंगलों मे बसते जा रहे हैं जहाँ इंसान बनने के बजाय हम फिर से जानवर बनते जा रहे हैं।यहाँ जंगली कानून, समाज का अभाव, व्यक्ति वाद, स्वार्थ, कुटिलता, हिंसा की भरमार है।हम पहले नंगे थे ,आदमी बनकर कपड़े पहनना सीखे और अब फिर से नंगेपन की ओर लौट रहे हैं।" डेरा" तब बना था जब हम ट्रांजिसन फेज मे थे और अपने गांव से हम कटे नही थे पर नयी जेनरेशन तो इन डेरों को ही अपना घर समझती है। एक नया शहरी जेनरेशन आज गांव, कुंआ,हल,-बैल, बैलगाडी, खडाऊं, भिति चित्र, ढेंकी, जांता(हाथ चक्की),भोजपत्र एवं केले के पत्ते पर खाना, बघाडी,आम के पल्लव,चौकी-पीढी पर बैठ कर खाना इत्यादि से अनजान है और इसको नव मार्केटिंग कल्चर के सहारे जानने की कोशिश कर रहा है।आज शहरी स्कूलों मे बच्चों को गांव जानने के लिए भेजा जाता है जैसे अमेरिकन बच्चे भारत को या अफ्रीकी द

विद्या के लिए जेब मे रुपया जरूरी है

 अभी हाल मे माननीय उच्चतम न्यायालय ने निजी विद्यालयों मे फीस वृद्धि पर रोक लगाते हुए निर्णय दिया है कि यदि फीस बढानी है तो पहले सरकार द्वारा दी गई जमीन खाली करें। यह अत्यंत कड़ी टिप्पणी है स्कूलों के बढते धुंआधार फीस और मनमानी लूट पर।वस्तुतः  व्यापारीकरण, व्यवसायीकरण तथा निजीकरण ने शिक्षा क्षेत्र को अपनी जकड़ में ले लिया है। मण्डी में शिक्षा क्रय-विक्रय की वस्तु बनती जा रही है। इसे बाजार में निश्चित शुल्क से अधिक धन देकर खरीदा जा सकता है। फलत:शिक्षा में एक भिन्न प्रकार की जाति प्रथा जन्म ले रही है।संस्थाओं से उपाधिधारी शिक्षकों में विद्यार्थी, विषय, व्यवसाय समाज के प्रति प्रतिबध्दता न होने के कारण आज विद्यालयों में शिक्षा की परिभाषा को दो शब्दों में बन्द कर दिया गया है- ठूंसना और उंडेलना। ये जो कान्वेन्ट स्कूल है ,ये बच्चों को शिक्षा दे रहे हैं या बेच रहे हैं?पूरा का पूरा गैंग बना है, स्कूल, पुस्तक प्रकाशक, पुस्तक विक्रेता, बस- वैन मालिक, गारमेन्ट शाप, ट्युशन- कोचिंग इंस्टीट्यूट।धंधा है पर गंदा है ये।बच्चों के मां-बाप की सारी कमाई चूषक पंप लगाकर निकाल रहे हैं, ये विद्यालय वाले।ऐसे लोग

भीम गीत और संस्कृतीकरण

संस्कृतीकरण भारत में देखा जाने वाला विशेष तरह का सामाजिक परिवर्तन है। इसका मतलब है वह प्रक्रिया जिसमें जातिव्यवस्था में निचले पायदान पर स्थित जातियाँ ऊँचा उठने का प्रयास करती हैं। ऐसा करने के लिए वे उच्च या प्रभावी जातियों के रीति-रिवाज़ या प्रचलनों को अपनाती हैं।संस्कृतीकरण का एक स्पष्ट उदाहरण कथित "निम्न जातियों" के लोगों द्वारा द्विज जातियों के अनुकरण में शुद्ध शाकाहार को अपनाना है, जो कि परम्परागत रूप से अशाकाहारी भोजन के विरोधी नहीं होते।एम. एन. श्रीनिवास के अनुसार, संस्कृतीकरण केवल नयी प्रथाओं और आदतों का अंगीकार करना ही नहीं है, बल्कि संस्कृत वाङ्मय में विद्यमान नये विचारों और मूल्यों के साथ साक्षात्कार करना भी इसमें आ जाता है। जाति मे सामाजिक स्थिति यों तो सभी की जन्म से निर्धारित होती है जो स्थायी होती है परंतु प्रतिष्ठात्मक उपागम के आधार पर कई निम्न जाति के लोग अपनी स्थिति को उपर उठाने के लिए कई तरीकों का इस्तेमाल करते हैं ताकि वे उच्च जाति के लोगों के समकक्ष आ सकें। इस प्रकार अपनी स्थिति को उपर उठाने की कोशिश अक्सर निम्न स्तरीय जाति के लोगों में पायी जाती है। उन्ह

जिसकी लाठी उसकी भैंस

जंगल कानून और मत्स्य न्याय सिद्धांत आज भी प्रासंगिक है और सर्वमान्य है। सुरक्षा परिषद मे पांच देशों को वीटो पावर ? क्या यह "जिसकी लाठी उसकी भैंस" का प्रतीक नही है??जिसके पास वीटो है वो विश्व समाज को अपने हिसाब से चलायेंगे।दुनिया जानती है कि अजहर मसूद टेररिस्ट है पर चीन को नही दिखता क्योंकि उसे "पाकिस्तानी गलियारा" दिख रहा है। तो फिर कैसी समानता और कैसा समाजवाद ?हम सिर्फ प्रयास कर सकते हैं लेकिन वैसा विश्व, समाज बनाना असंभव है।संभव है आप इस सोच को पुरातन पंथी या निराशा वादी कहें ,परंतु यह ध्रुव सत्य है ! महाशक्तियो के दादागीरी को चुनौती कौन देगा? हम सिर्फ पिछलग्गु हो सकते हैं क्योंकि उनको वीटो जो मिला है। आपके किसी भी प्रस्ताव की ऐसी तैसी कर देंगे।पर वियतनाम , क्युबा इनको आईना दिखा चुका है।तेल पर कब्जे के चक्कर मे खाड़ी देशों मे इनका हस्तक्षेप हमेशा रहा है इस्लामिक संगठन से लड़ाई मानवता के लिए नही बल्कि तेल के कुंओं पर वर्चस्व की लड़ाई है। UNO इनका face saving करता रहा है।सुरक्षा परिषद मे वीटो क्यों है? क्या पूरे विश्व पर राज करेंगे? क्या यह पांच देशों के अन्य देशों पर

महात्मा गांधी की तस्वीर

वित्त वर्ष 2015-16 में 1,510 करोड़ रुपये के खादी उत्पादों की सेल की सेल हुई, जबकि 2014-15 में यह आंकड़ा महज 1,170 करोड़ रुपये था। इस तरह एक साल के भीतर खादी प्रॉडक्ट्स की सेल में 29 पर्सेंट का इजाफा हुआ। 2014-15 में खादी प्रॉडक्ट्स की सेल में 8.6 पर्सेंट की ही ग्रोथ हुई थी। मौजूदा वित्तीय वर्ष में खादी ग्रोमोद्योग आयोग के प्रॉडक्ट्स में 35 पर्सेंट का इजाफा होने का अनुमान है।दस वर्षों तक 2004 से 2014 तक यूपीए की सरकार में खादी की बिक्री 2 से 7 फीसदी ही होती थी. उन्होंने कहा जब से मोदी सरकार आई है खादी में 5 गुना वृद्धि हुई है. अब खादी की बिक्री 35 फीसदी से ज्यादा है.बीजेपी प्रवक्ता का कहना है कैलेंडर पर 2005, 2011, 2012, 2013 में भी गांधी जी की फोटो नहीं थी.”पूरा खादी उद्योग की गांधीजी के दर्शन, विचारों और आदर्शों पर टिका हुआ है, वह KVIC की आत्‍मा हैं। इसलिए उन्‍हें नजरअंदाज करने का सवाल ही नहीं है।” उन्‍होंने कहा कि मोदी लंबे समय से खादी पहनते रहे हैं और उन्‍होंने इसे देश में और विदेशी हस्तियों के बीच लोकप्रिय बनाया है, वह खादी के इर्द-गिर्द अपना स्‍टाइल गढ़ते रहे हैं। सक्‍सेना ने कह

मर्दो की नंगई

जाते हुए साल की मध्य रात्रि ने बंगलौर मे मर्दो की नंगई  का खुल्ला खेल फर्रूखाबादी देखा।ऐसे मे इनकी नंगई ,नंगे जिस्म और मन की चर्चा लाजिमी है।कहा जाता है कि " नंगे इंसान से तो भगवान भी डरते हैं"! इन नंगे मर्दों से तो समाज और ईश्वर दोनो डरते हैं, इनकी भी बदनामी तो हो रही है!" "दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन मे समाई ,काहे को दुनिया बनाई!"लेकिन इसी मे है,स्त्री शरीर और उस पर उसका अधिकार, नो कहने का अधिकार, जिस्म प्रदर्शन का अधिकार जो सिर्फ विमर्श की वस्तु बनकर रह गया है । प्रत्येक ऐसी घटना के बाद बड़ी तेजी से मीडिया और समाज मे छा जाता है और जल्द ही हम इसे भूल भी जाते है।इन घटनाओं का कारण लड़कियों का जिस्म प्रदर्शन नहीं, केवल पुरुष की नंगी मानसिकता है कि वह श्रेष्ठ है,वेशभूषा के कारण नहीं होता बलात्कार | यदि नंगेपन से बलात्कार होता तो मर्दों के साथ गांवो शहरों मे कबसे होता आया होता। घर मे भी कच्छे, हाफपैंट, बनियान या नंगे बदन घूमने का लाइसेंस तो लड़कों और मर्दों को काफी पहले से मिला हुआ है।बलात्कार या छेड़खानी का सीधा संबंध सत्ताविमर्श से है, बलात्कार या छेड़खानी का सं

अंडा तिवारी का फंडा

लोग उसे "अंडा तिवारी" के नाम से पुकारने लगे थे, नाम तो बटुकनाथ तिवारी था पर अंडे ने इस कदर उसके व्यक्तित्व पर रंग जमाया कि सबकुछ अंडामय हो गया। शाकाहारी तिवारी जी के घर मे कोई माछ मांस नही खाता था पर जब तिवारी जी हास्टल मे पढने गये तो कुछ समस्याएं सामने आई। सप्ताह मे एक दिन मांसाहार होता था, अब तिवारी जी उस दिन क्या खाते? तो दोस्तों ने समझाया, अंडा खाया करो, यह मांसाहार नही होता! तिवारी के अंदर से क्युरीसिटी हुई कि वो कैसे? अंदर से तो खाने की इच्छा हो रही थी पर डर था कि घर पर सबको पता चल गया तो बड़े पंडित तिवारी घर मे घुसना मुहाल कर देंगे और दादी तो बरतन, खानपान और बर -विछावन सब अलग कर देगी। इसलिए मन मार के पंडित बने रह गये थे।बिहारी ,बंगाली पंडितो मे माछ मांस खाने का चलन है क्योंकि वो लोग शाक्त परंपरा और तंत्र पूजा से जुड़े होते हैं। बाकी जगह के पंडित शाकाहारी होते हैं पर अंदर से नही! नये लड़के अब होटलों मे जाकर चोरी छिपे खाने लगे हैं। बाहर जहाँ कहीं भी स्कोप मिलता हैं, वो नान वेज खाने से चुकते नहीं। वैसे नान वेज बातें करने की मनाही किसी भी प्रकार के पंडितो मे नही है!तो बटुक ना

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन.।

बिहारी काका परसों काफी सेंटिया गये थे!" गुजरा हुआ जमाना आता नही दुबारा"!आज अचानक वो अपने " लड़िकारी" के दिनों को याद करने लगे थे। बताने लगे कि बचपन मे जब भी वो  लेट से क्रिकेट खेलकर आते थे तो उन्हे  पता होता था कि आज  मां काफी गुस्साई हुई होगी। घर जाते ही हो सकता है पिटाई भी हो जाए " दिन भर आवारा लड़कों की तरह घूमते रहते हो, पढाई लिखाई नही करते हो। आने दो बपहिया को तो बताऊंगा! डाल दें इन लोगों को हास्टल मे, ये लोग गांव मे रहकर नही पढने वाले! उसके भैया कहते" जाओ ,देखकर आओ कि कोई काकी, चाची, दाई आस पड़ोस से घूमने तो नही आई है? यदि कोई घर मे बाहर से आया होता तो आसानी हो जाती क्योंकि बाहरी लोगों के सामने डांट-मार नही पड़ती थी।घर मे सबसे छोटा होने के कारण वह " कोरपोछुआ" बेटा थे, उसे डांट- मार कम मिलती थी। " भंसा घर"(किचन) से जाकर कुछ खाने का सामान निकाल कर भैया को बाहर दे आता,जो घर के बाहर ही रहते ,जबतक उसकी मां का गुस्सा शांत नही हो जाता। मां गांव की बहू थी इसलिए दरवाजे पर नही आती थी। उसकी सीमा घर के गेट तक ही थी, जिसका लाभ वे हमेशा उठाते थे, ज