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Showing posts from June, 2019

पहाड़ों मे ट्रैफिक जाम

"हुस्न पहाड़ों का, क्या कहना कि बारहों महीने यहाँ मौसम जाड़ों का" ये फिल्मी गाने कभी हकीकत हुआ करते थे पर अब किस्से कहानियों का हिस्सा बनकर रह गये हैं।"आओगे जब तुम साजना, अंगना फूल खिलेंगे"! पहाड़ों मे लोग इसी तरह मैदानी लोगों का स्वागत करते थे, आज भी करते हैं क्योंकि उनकी आजीविका का साधन ही पर्यटन है। परंतु पहाडी सड़को पर ट्रैफिक जाम, होटलों ,गेस्टहाऊसों मे इकठ्ठी भीड़, मार्केट मे रश, ये जून के वीकेंड की तस्वीर है। शिमला मे प्रशासन को पानी की बढ़ती किल्लत के कारण आने से रोका है। नैनीताल मे इतनी भीड़ बढ़ गई कि गाड़ियों को काठगोदाम मे ही रोका जा रहा है। अभी पिछले सफर मे रास्ते मे कार की खिड़की खोलकर पहाड़ी ठंढी हवा का आनंद लेना चाहा तो एक जानी पहचानी दुर्गंध ,जो हमेशा दिल्ली, लखनऊ जैसे शहरी जिंदगी का हिस्सा बन गयी है, नथुनों से टकराई। झटपट कार की खिड़की बंद किया और एसी चालू किया। अब आप कहेंगे, पहाड़ो मे एसी ! जब एसी ही चलाना था तो पहाड़ मे क्यों गये थे? मुझे याद है 2013 मे मै शिमला गया था, वहां के होटलों मे पंखा नही लगा था, यहाँ तक कि पंखा को छत मे लगाने वाला हुक ही नही छोड़ा गया थ

आपका रसिया

आपसबको फिल्म पाकीजा के वो मशहूर ट्रेन वाली सीन तो याद होगी !" आपके पांव खूबसूरत हैं, इसे जमीन पर मत रखिएगा, मैले हो जायेंगे!और दास्तान शुरू हो गई थी।" आपका रसिया"  उपन्यास मे भी दास्तान ट्रेन से ही नायक नायिका किसलय- काव्या  के सफर से शुरु होती है और अंत मे प्लेन पर जाकर खत्म होती है। दास्तान ऐसी की दीवानगी की इंतहा है।रश्मि प्रकाशन लखनऊ से प्रकाशित और ओमप्रकाश राय यायावर द्वारा लिखित यह  उपन्यास एक आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक सोशल मीडिया आधारित प्रेमकथा है ,जो शुरुआत तो होती है ,ट्रेन के सफर से पर परवान चढ़ती है, फेसबुक चैटिंग से, फिर चैंटिंग की हकीकत खुलने पर प्रेम नैया डगमगाने लगती है और अंत मे " गाइड" फिल्म की तरह दर्शन की पराकाष्ठा पर चली जाती है, जिसमें प्रेम भाव से विरक्त नायिका दैहिक सुख को कमजोर क्षणों मे भोगने के पश्चात भी नायक को छोड़ पलायन कर जाती है। लेखक ने उपन्यास की प्लाटिंग अच्छी की है ,जो सिंपली ट्रेन से शुरुआत होती है ,तो लगता है ,जैसे कोई आम कहानी होगी। कई जगहों पर यह उपन्यास गुलशन नंदा, रानू और मनोज के उपन्यासों की याद दिलाता सा प्रतीत होता है पर इसम

जनता स्टोर

लेखक नवीन चौधरी के उपन्यास" जनता स्टोर"  के नाम से  प्रथमदृष्टया यह लगता है कि जैसे किताब का केंद्रबिंदु  कोई फेमस बुक स्टोर होगा, जो युनिवर्सिटी के पास राजनीतिक हलचलों का अखाड़ा होगा, परंतु शुरूआती पेजों मे ही लेखक ने स्पष्ट कर दिया  कि यह जयपुर का एक एरिया है और व्यवसायिक गतिविधियों के साथ साथ छात्र राजनीति का अड्डा है। उपन्यास की शुरुआत बड़ी रोमांचक तरीके से की गयी है, लग रहा था ,जैसे माफियाओं वाली किसी फिल्म का दृश्य चल रहा है, हालांकि उस दृश्य का सस्पेंस किताब के अंततक बरकरार  रहता है। किताब पूरी तरह से राजस्थानी राजनीति, छात्र राजनीति, जातीय वर्चस्व की लड़ाई, सता के दावपेंच, विश्वासघात, षडयंत्र, प्रतिशोध की कहानी कहती है। मुख्यत राजस्थानी राजपूतों और जाटों के बीच वर्चस्व की लड़ाई और उसमे ब्राह्मणवाद की छौंक, जो हमेशा से सत्ता के शीर्ष पर राजपूतों को बैठाती आयी है, परंतु इस उपन्यास मे अंत मे ब्राह्मणों द्वारा सत्ता पर कब्जा कर लेने की दास्तान बुनी गयी है। छात्र राजनीति पर कई फिल्में बनी है जिसमे सबसे प्रसिद्ध " शिवा" का इसमे जिक्र भी है।हास्टलों और डेस्कालर के मध्य