औघड़
ग्रामीण परिवेश पर लिखी गयी कहानियां हमेशा से मुझे अपने आप से बांधे रखती है। नीलोत्पल मृणाल का "औघड़" काफी दिनों के बाद पढ़ पाया और सही मायने मे शुरुआती पन्नों मे मुझे ये थोड़ा सतही तौर पर लगा पर जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती गयी, किरदारों के चाल और चरित्र खुलते गये और मैने स्वयं को इसमे डूबा हुआ पाया। यह हर गांव की कहानी है , हरेक गांव पुरुषोतम सिंह, फूंकन सिंह, कामता प्रसाद, बैजनाथ, जगदीश यादव, लखन, मुरारी, लड्डन इत्यादि मिल जायेंगे पर बिरंची नही मिलेगा। बिरंची का कैरेक्टर एक अलग तरीके से बुना गया है जिसमे सत्तशाही के विरुद्ध आग भरी है। ऐसे कैरेक्टर खुशनसीब गांवों मे पाये जाते , लेकिन इनका हश्र भी भयानक होता है। सत्ता से टकराने वाले को क्रांति के साथी ही खा जाते हैं। बकौल लेखक औघड़ मतलब अघोर अर्थात जो अंधकार के खिलाफ हो। वैसे ग्रामीण अंचलों मे इसका मतलब तांत्रिकों या प्रचलित समाज व्यवस्था , जीवन शैली को न मानने वाले से निकाला जाता है।बिरंची जैसे औघड़ हरेक गांव मे पैदा नही होते। हां! अधकचरा मार्क्स शेखर ,जिसने सिर्फ पंचमकारों मे मार्क्स को देखा है, जमीन पर उतरते ही बौखला जाता है, जैस