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Showing posts from April, 2019

औघड़

ग्रामीण परिवेश पर लिखी गयी कहानियां हमेशा से मुझे अपने आप से बांधे रखती है। नीलोत्पल मृणाल का "औघड़" काफी दिनों के बाद पढ़ पाया और सही मायने मे शुरुआती पन्नों मे मुझे ये थोड़ा सतही तौर पर लगा पर जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती गयी, किरदारों के चाल और चरित्र खुलते गये और मैने स्वयं को इसमे डूबा हुआ पाया। यह हर गांव की कहानी है , हरेक गांव  पुरुषोतम सिंह, फूंकन सिंह, कामता प्रसाद, बैजनाथ, जगदीश यादव, लखन, मुरारी, लड्डन इत्यादि मिल जायेंगे पर बिरंची नही मिलेगा। बिरंची का कैरेक्टर एक अलग तरीके से बुना गया है जिसमे सत्तशाही के विरुद्ध आग भरी है। ऐसे कैरेक्टर खुशनसीब गांवों मे पाये जाते , लेकिन इनका हश्र भी भयानक होता है। सत्ता से टकराने वाले को क्रांति के साथी ही खा जाते हैं। बकौल लेखक औघड़ मतलब अघोर अर्थात जो अंधकार के खिलाफ हो। वैसे ग्रामीण अंचलों मे इसका मतलब तांत्रिकों या प्रचलित समाज व्यवस्था , जीवन शैली को न मानने वाले से निकाला जाता है।बिरंची जैसे  औघड़ हरेक गांव मे पैदा नही होते। हां! अधकचरा मार्क्स शेखर ,जिसने सिर्फ पंचमकारों मे मार्क्स को देखा है, जमीन पर उतरते ही बौखला जाता है, जैस

डार्विन जस्टिस

" डार्विन जस्टिस" नाम  तो बड़ा आकर्षक और अंग्रेजीशुदा रखा गया है, कुछ हदतक लेखक नाम रखने को जस्टिफाई करते भी नजर आते हैं। वस्तुतः यह सत्य पृष्ठभूमि पर रची बुनी गयी कहानी है ,जो तथाकथित " जंगलराज" कालखंड वाले मध्य बिहार  की कहानी है। कहानी है, बिहार मे नक्सलवाद और प्रतिक्रिया स्वरूप जन्मे रणवीर सेना की और उस पृष्ठभूमि मे जन्म ले रहे दो स्कूली लड़का- लड़की की प्रेम  की। कहानी मंडल कमीशन और बिहार पड़े इम्पैक्ट, लालू राज, अगड़ो के विरुद्ध पिछड़ो की आवाज बुलंद करने और हथियार उठाने की है। एक गांव के स्कूल मे पनप रहे प्रेम कथा को केंद्र बिंदु मे रखकर कहानीकार ने एक डिफरेंट कहानी कहने की कोशिश की है। कहानी और सधी हुई और कसी हुई हो सकती थी पर लेखक शायद बार बार भटक जा रहा था। कथा शैली डायरी पढने जैसी है , बार बार डेट, इसवी सन् को लिखने के पीछे लेखक का उद्देश्य इसे सत्य कहानी प्रमाणित करनै और वास्तविक घटनाओं से जोड़ने की कोशिश भर है। पर किस्सा और दृष्टांतों की इतना रिपीटेशन है कि बोरियत होने लगती है। बार बार वही लाइन पढने पर खीझ हो रही थी -जैसे कंडोम फटने की गाथा। लेखक ने किस्सागोई

कुकुरमुत्तों की तरह उगे इंजीनियरिंग कालेज

पापा ने तो बड़े अरमानों से इंजीनियर बनाने का ख्वाब देखा था परंतु इन्हें तो इतना भी वेतन नही मिलता जिससे बैंक को एजुकेशन लोन की किस्त जमा कर सकें।  अब सरकारी कालेज न मिल सका तो क्या! डोनेशन पर इंजीनियर बनायेंगे। असल मे दस बारह साल पहले तक दो ही प्रकार के जीव - मां बाप और बड़े बुजुर्गों की नजर मे होता था -एक डाक्टर और दूसरा इंजीनियर। बाकी बच्चे सब घास पात!बेटा जन्म लिया तो " मेरा बेटा इंजीनियर बनेगा(थ्री इडियट्स) और बेटी हुई तो पहले सिर पर मानों लाखों टन पानी पर गया हो, लेकिन थोडा खुश हुए तो " मेरी बेटी डाक्टर बनेगी"!  अब प्राइवेट कालेज मे डोनेशन बड़ा था तो  हैसियत नही है  फिर  लोन लेकर पढाया कि पास करते ही इंजीनियर साहब का "कैम्पस  सेलेक्शन" होगा और बेटा लाखों कमायेगा, पर कालेज तो सिर्फ डिग्री बांटते फिर रहा है, घोंटकर क्वालिटी थोड़े न पिला देगा!आज  सिर्फ लखनऊ के इर्दगिर्द मे सौ के आसपास इंजीनियरिंग कालेज होगा! उनको एडमिशन के लाले पर गये हैं, कबतक इंजीनियरिंग कर के लड़का सफाईकर्मी और चपरासी का फार्म भरता रहेगा ! अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि ये कालेज प्रति एडमिशन दस हजा