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आस्था और विज्ञान

आस्था एवं विज्ञान एक दूसरे के विरोधी नही है बल्कि एक क्रम मे हैं।दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। जहाँ विज्ञान की सीमा समाप्त हो जाती है वहीं से आस्था और विश्वास प्रारंभ हो जाता है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि जैसे जैसे विज्ञान का विकास होता जा रहा है आस्था का दायरा सिमटता जा रहा है। इसकी तुलना ग्लेशियर से निकल रहे हिमनद और नदी के अविरल पानी से कर सकते हैं। विज्ञान का जन्म भी आस्था से होता है बस उसमे तर्क और कार्य कारण सिद्धांत लागू होता जाता है जैसे ज्यों ज्यों गर्मी बढ़ती जाती है तो हिमनद पिघलते हुए सिमटता जाता है और नदी की लंबाई बढ़ती जाती है वैसे ही विज्ञान अपने खोज के माध्यम से आस्था की वस्तुओं को तार्किक ढंग खोज करते हुए आगे बढ़ता जाता है। विज्ञान बनाम आस्था काफी समय से बहस का बिंदु बना हुआ है। हाल के विज्ञान कांग्रेस मे महाभारत और रामायण की घटनाओं को विज्ञान से जोड़ते हुए व्याख्या करने पर बहस तीव्र हो गई है। गांधारी के सौ पुत्रों को टेस्ट ट्युब संतति कहने और आग्नेयास्त्रों को मिसाइलों से तुलना करने पर वैज्ञानिकों / तर्कशास्त्रियों द्वारा आलोचना की जा रही है। यह सत्य प्रतीत होता है कि इस कथ

अक्टूबर जंक्शन

आज का पाठक वर्ग मुखर हो गया है, कुछ भी पढते हुए उनका जी अकुलाने लगता है , जोश आ जाता है कि मै भी कुछ लिख डालूँ। वो चाहे समीक्षा ही क्यों न हो! अब देखिए !" अक्टूबर जंक्शन" को जनवरी मे पढा तो सोचने लगा आखिर अक्टूबर मे ही क्या रखा था? इसका नाम "जनवरी जंक्शन "भी रखा जा सकता था। लेकिन लेखक ने शायद शुरुआत करने की तिथि 10.10.10  को अच्छा मानकर अक्टूबर रखा। फिर अक्टूबर का मौसम सर्दियों की शुरुआत होती है जिसमे बनारस, मुक्तेश्वर, मुंबई, दिल्ली, लखनऊ सभी स्थानों का मौसम भी समान होता है।  हाल के वर्षों मे कहानीकारों मे बनारस को लेकर काफी जिज्ञासा और आकर्षण बढा है। "बनारस शृंखला" का इसे अगला उपन्यास कह सकते हैं पर इसमे सिर्फ बनिरस के घाट, नौका विहार, साधू और मणिकर्णिका ही है।यह उपन्यास एक प्रयोगात्मक है साल को दिनों के समान देखने की। पाठक दस सालों की कहानी को बस यूं खत्म करता है जैसे दस दिन की बात हो। कहानियां अक्सर भूत और वर्तमान की हुआ करती है पर " अक्टूबर जंक्शन" ऐसा तिथि गत प्लेटफार्म है जिसपर चलने वाली ट्रेन हमे भूतकाल से वर्तमान होते हुए भविष्य तक ले ज