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Showing posts from 2017

रोहू माछ का मूंड़ा

"का हो भैयारी! कहाँ से भोरे भोरे लपक लिए! एतना सबेरे कौआ भी टहकार न मारा होगा और आप रोहू धर लिए!"  सोनफी झा कान से जनेऊ उतारते हुए बोले! कमलेश ठाकुर के हाथ मे लपलपाता रोहू माछ देख के लघुशंका भी अटक गई । " हें.. हें..हें.. सोनफी बाबू आप भी न  मजाक करते रहते हैं। ऊ तो हम सबेरे सबेरे मारनिंग वाक पर जग रहे थे ,तो देखा कि भिखनू मांझी का बेटा साइकिल पर एक तसला मांछ भरे कहीं देहात से आ रहा था। अब मांछ को देखकर जानते ही हैं आप कि न! हमारा मोन प्रफुल्लित हो जाता है। मैने रोका तो सार... के नाती रुकबे नही किया। मै भी दौड़ा तेजी से और गट्टा पकड़ के ऐंठा तो सार.. रिरियाने लगा। ऊ...बरम स्थान वाले मेले के दिन सौ रुपया टान के ले गया था। हिसाब चुकता करना था। दू रोहू तसला से निकाल लिया! " दू गो! लेकिन हाथ मे तो एक्के गो दिखाई पड़ रहा है!" "अरे ! का करें। बड़की माय को भी आज ही रास्ते मे मिलना था। बोली" लाल बऊआ ! सबेरे मांछ देखना शुभ होता है, दिन बढिया हो गया! अब मतबल तो मै समझ ही गया। का करें.. लाजे पाखे एक रोहू उनको दे दिया!" सोनफी झा  भी हंस कर बोले" दिन त

मुझे गांधी बनना है

"तुम्हारी इतनी हिम्मत की मुझे गांधी बनने से रोको! " आइ विल फाइट फार दिस काज"! कक्का जोरों से  बड़बड़ा रहे थे "मैने बचपन से सपने देखे हैं! तख्त बदल दो ताज बदल दो"!.नारे ऐसे नही लगाये हैं। नया इतिहास लिखना है, इतिहास बदलना है। सारे मानक ध्वस्त होंगे, नये मानको के बीच चमकता हमारा चेहरा होगा जो चांद पर बैठे अंतरिक्ष यात्री को भी दिखेगा"! मै पूछूंगा" कैसा दिखता है मेरा हिन्दोस्थान"! वो पलट कर आह्लादित होकर बोलेगा" सिर्फ आप ही आप दिखाई पड़ते हो, यहाँ से। चाहे एफिल टावर हो, दुबई बुर्ज हो या चीन की दीवार, सब पर आपका ही अक्स है, आपके ही चर्चे हैं, तब मै खुश हो जाऊंगा। "कक्का !लगता है कि आप पगला गये हैं ! ये क्या बके जा रहे हैं! ये किसके बारे मे बोल रहे हैं"! चंदेसर ने टोका।पर काका आज तो अपनी ही रौ मे थे। सबेरे सबेरे भांग का दू गोला पानी के साथ गटक लिए थे। भोले बाबा का बैताल पचीसी अपना रंग दिखा रही थी। "मै लडूंगा, कामन काज के लिए लड़ूंगा। तुम मुझसे मेरे लड़ने का अधिकार नही छीन सकते। बिना लड़े तो इतिहास नही बदल सकता न! तुम मुझसे मेरे एक

साहब ड्यूटी कटवा दो

अभी हाल मे " न्यूटन" फिल्म को चुनाव कराने मे पोलिंग पार्टी के समक्ष आने वाली समस्याओं को उठाने के लिए काफी सराहा गया है। साहब! किसी तरह ड्यूटी कटवा दो! यह फेमस लाइन होता है सबकी जुबान पर ! पर क्यों न हो भला जब इतनी जटिल और रिस्की प्रक्रिया हो चुनाव करवाने की। पहले तो पार्टी जाते ही गांव के सम्मानित लोग आवभगत मे लग जाते थे।" अतिथि देवो भवः " के साथ साथ चुनावी लाभ के लिए मेल मिलाप भी जरूरी था। पर अब आयोग ने गांव का पानी पीना भी निषिद्ध कर दिया है।चुनाव चाहे वो नगरीय हो या ग्रामीण ,अभीतक पंचायती चुनाव बैलेट पेपरों के माध्यम से संपन्न हो रहे हैं। बड़े बड़े बक्सो को लादकर ले जाना और उसमे वोटिंग कराकर फिर लादकर लाना एक जटिल कार्य है।  चुनावों मे एक दिन किसी अनजान जगह पर अनजान लोगों की बनी पोलिंग पार्टी के साथ बिताना किसी के लिए एक रोमांच का काम हो सकता है पर ज्यादातर लोग यही चाहते हैं कि उनकी ड्यूटी न लगे और लग भी गई है तो अंतिम समय तक वो तमाम जुगाड़ का उपयोग कर ड्यूटी कटवाने का प्रयास करते रहते हैं।ऐन चुनाव मे पोलिंग पार्टी रवाना होने के दिन सैकड़ो के उल्टी दस्त बुखार सब च

बाघ का नैचुरल हैबिटेट

बाघ अपने नैचुरल हैबिटेट मे भटक रहा है जिस पर इंसानों ने कब्जा कर लिया है। यह संघर्ष है जानवर और इंसान के मध्य जमीन पर कब्जा करने के लिए। अपना हक जमाने के लिए है।एक ओर इंसान अपनी शारीरिक और दीमागी शक्ति का प्रयोग करते हुए लगातार जंगलों मे हस्तक्षेप करता जा रहा है। जंगल ,नदियां, पोखरे ,तालाब पाटता हुआ उसे अपने उपयोग लायक बनाता जा रहा है। जंगली जीवों का घर द्वार सिमटता जा रहा है तो वो गांवो और खेतों की ओर निकल आता है। वन विभाग कहता है कि जंगल से सटे क्षेत्र मे गन्ने की खेती न किया जाय क्योंकि जब जानवर जंगल से निकलकर खेतों की ओर बढता है तो गन्ने के खेत उनके छुपने और निवास करने के लिए सबसे मुफीद जगह बन जाते हैं। अब जब यहाँ आसानी से इंसान, बकरी, भैंस ,गाय आदि उसे खाने को मिल जाय तो भला वो वापस जंगल मे क्यों जाय? वैसे भी कहा जाता है कि जब बाघिन बच्चों को जन्म देती है तो उनकी जान बचाने के लिए जंगल से दूर निकल आती है। नदी किनारों की झाड़ियां उनके लिए सुरक्षित स्थान हैं। जिन क्षेत्रों मे आजकल बाघ टहलते दिखाई पड़ रहे हैं वो क्षेत्र आज से सौ डेढ सौ साल पहले जंगल हुआ करते थे अर्थात बाघों के पूर्वजों

भंसाली का जौहर प्रेम

" खामोशी " से देवदास बनाने वाले भंसाली श्री " हम दिल दे चुके सनम " जैसी प्रेम कहानी बनाये तो तो कभी "गोलियों की रासलीला" करते करते अब इतिहास मे " ई एच कार" की तरह यूं घुस गये हैं कि कभी मराठों से खेलते हैं तो कभी राजपूताने से! फिल्में बनाना तो कोई इनसे सीखे! " द ग्रेट शोमैन" बनने के चक्कर मे  सेट और गेटै पर इतना पैसा लुटा देते हैं कि स्क्रिप्ट, कहानी, गीत ,संगीत सभी अपने से करते हैं। स्वाभाविक है बजट बड़ा होने पर भी "प्रोमोशन"  के लिए पैसा कम पड़ जाता होगा, तो ये शगल सबसे आसान है कि " कोई नाम न हुआ जबतक बदनाम न हुए "! फिल्में विवादित कराना करोड़ों की डीलिंग है। फिलिम बनाने से पहले स्क्रिप्ट राइटर से बजाब्ते इस बात पर प्लानिंग की जाती है कि फिल्म के किस हिस्से मे विवादित दृश्य, कथ्य आ डायलॉग रखे जायें।  धर्म, जाति, संप्रदाय , क्षेत्रीयता आजकल हिट है , इस पर चोट पहुंचा कर विवाद उत्पन्न किया जा सकता है, यदि कोई संस्था या समाज इंट्रेस्ट नही ले रहा हो तो पत्रकारों , मीडिया और अपने एन जी ओ के माध्यम से इसे उछलवाया जाता है।  

असुरक्षा का भाव

वो रोज सुबह सबेरे आता और गेट के पास आकर फर्श पर बैठ जाता ! " ऐ बाबू! कुछ खाने को दे दे!" दो तीन बार घंटी बजाने पर हरिया डंडा लिए गलियाते निकलता! " भागते हो कि नही! हरामी कहीं के! रोजाना दिमाग चाटने चले आते हो सबेरे सबेरे!" वो सहम जाता और उसकी कातर आंखें तलाशती रहती अम्मा के लिए! उसे शायद पता था कि यदि अम्मा सुन लेगी तो जरूर उसके लिए कुछ लेकर आएगी! हरिया गेट खोलकर दौड़ाता। वह भी तेजी से रोते भागता पर थोड़ी दूर जाकर रुक जाता! जहाँ से वो गेट देख सके कि अम्मा आ रही है कि नही! हरिया जहाँ अंदर वापस आकर गेट बंद करता वो फिर गेट के पास आकर जोर चिल्लाता ताकि अम्मा सुन ले। अम्मा जब भी सुन लेती थी घर मे रात का बचा रोटी सब्जी प्लास्टिक के थैले मे लाकर उसे दे देती थी। इतना ही नही हरिया को डांट भी देती थी। " मालकिन! आप इन सबको मुंह मत लगाया करिए! सब साले चोर है! जासूसी करने आते हैं!" " चुप रहो! तुमको तो सब चोर ही दिखाई पड़ता हैं ! बेचारा भूखा रहता है! जहाँ आस होती है वहीं पर आएगा न! सबेरे सबेरे किसी को खाली हाथ लौटाना नही चाहिए! कौन जाने किस रुप मे भगवान आ जाये

फेसबुकिया पोस्ट लिखने की कला

फेसबुक पर पोस्ट लिखने से लेकर फ्रेंड सर्कल बनाना और अल्टीमेटली लाईक रुपी धनार्जन करना एक आर्ट है, या यूं कहिए कि यह साइंस और कामर्स भी है, जिसमें जाहिर है दिमाग लगाना पड़ता है। यह एक विश्वविद्यालय है जिसमे सभी प्रकार की फैकल्टी है तो इसमे अपनी धाक जमाने के लिए अपनी फ्रेंड लिस्ट मे धुरंधर पंडित(ज्ञानी नही), कट्टर मौलवी, प्रचंड अंबेडकर वादी, धुर आरक्षण विरोधी, जन्मजात आरक्षण समर्थक, खानदानी कांग्रेसी, भगवाधारी भाजपाई, अपने मुंह मे हमेशा हंसुआ- हथौड़ा लेकर चलनेवाला कामरेड, घोर अघोरपंथी, पंच मकार( मत्स्य, मांस, मदिरा, मुद्रा और मैथुन) मे विश्वास करनेवाला बुद्धिजीवी, कवि, साहित्यकार, गायक, फोटोग्राफर, फिल्मकार, स्टूडेंट, बेरोजगार, सरकारी नौकर, प्राइवेट नौकर इत्यादि सभी विधाओं के सिद्धहस्त फेसबुकियों को शामिल करिए। एक्सेप्ट न करे तो रगड़ मारिये फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज भेजकर ! अरे! मानेंगे कैसे नही! " जंतर मंतर का " धरना मंत्र " कब काम आयेगा। और कैसे नेता लोग चुनाव के दिनों मे तबतक पैर नही छोड़ता जबतक आपसे हां नही बोलवा लेता है। इसे कहते हैं" बम बोलना!" " टैगियाना&quo

टिफिन का खाना

जब जब घर से बाहर रहकर कंपटीशन देनेवाले वीरों की वीरगाथा लिखी जाएगी तो उसमे " टिफिन" के धंधे को चार चांद लगाने वाले बाहुबलियों का नाम स्वर्णाक्षरों मे लिखा जाएगा।धन्य हैं वो वीर जिसने सुबह शाम नियत समय पर आनेवाली छोटी सी टिफिन के सहारे अपना विद्यार्थी जीवन बिता दिया। हालाँकि इसे " सिंगल हड्डी" और " स्लिम फिट " नौजवानों का क्षेत्र माना जाता है।पर कई जीव तो टिफिन पर ही पल जाते हैं भले पीठ और पेट एक समान भये और बिना " वर्क आऊट" के करीना के जीरो फीगर को प्राप्त होते हैं। उपर से हमेशा " Liv  52 का सेवन वरना पेट कब उपर - नीचे दोनों चलने लगे क्या पता? ऐसे मे भी जीवट के लोग हैं भाई हाथ नही हिलायेंगे। खाना तो रेडीमेड ही मिलना चाहिए। बरतन बासन कौन करेगा? इसी उद्वेग का लाभ उठाने को सोचे बटुक नाथ जी! गये कलेक्टरी की पढाई करने पर कोई भी कोचिंग इनको केले के झाड़ पर चढा न सका! कितना मगजमारी किये, दो तीन बार धौलपुर हाऊस भी बाहर से देख आये पर "टोटमा" काम न आया। गुरू जी रगड़ मारे पर पीटी का " अरना महीस" ऐसा थम देके बैठा कि ऊठबे न किया। अब व

पाखंड

"मन न रंगाये जोगी, रंगाये जोगी कपड़ा दढ़िया बढाके जोगी बन गई ले बकरा "! बिहारी काका आज अंदर से काफी उद्वेलित दिख रहे थे! " काका! कल वाली घटना से परेशान हैं?'   मैने पूछा! " मारो ...... को! नाम न लो उस पापी का"! मै तो इसीलिए पहले से ही इन ढोंगी बाबाओं को गलियाता रहता हूँ"! " लेकिन प्रवचन तो आप भी सुनते रहते हैं"! रोज सबेरे ".फूं - फां.. भी करते रहते हैं!" " अरे बबुआ! किसी अच्छे भाषण, प्रवचन, भजन गायन का सुनना, धार्मिक किताबों का पढना अलग बात है पर मै कभी इनके किसी शिविर मे नही गया"! " काका! लेकिन इन आश्रमों मे तो " भेड़िया धसान" भीड़ लगी रहती है! जैसे " स्वर्ग की सीढ़ी डायरेक्ट इनके आश्रमों मे ही लैंड करती है"! मै बोला। मुझे तो कई लोगों ने कहा" अभी तक किसी को गुरु नही बनाए! जन्म मरण के बंधन से मुक्ति नही मिलेगी"! तो मैने कहा चाहता कौन है मुक्त होना"! जो देखा नही उसके बारे मे क्यों परेशान रहूँ। और इन गुरुओं को कबसे " मोक्ष" दिलाने का ठेका मिल गया!" "लेकिन काका!

पत्नी पीड़ित की व्यथा

कहावत है"अप्पन हारल और बहुअक मारल" कोई किसी नही बताता। " भीतर के मार खायल वो ही जाने जो खाया है!""जा हो बूड़बक मेहरारु से हार गये!"माना जाता है कि महिलाएं शारीरिक बल मे कमजोर होती है पर यह " अर्धसत्य " है, ओमपुरी वाला नही! तस्वीर का दूसरा पहलू भी है जो  " महिला सशक्तिकरण" के "लहालोट " मे गंवई  बिजली के बल्ब की तरह भुकभुका रहा है।सो काल्ड मर्दवादी समाज मे " पत्नी पीड़ित" मुखर और संगठित नही है।है तो ये विमर्श टाइप का विषय पर किसी" सो काल्ड वाद" न जुड़ पाने और किसी "दल "का समर्थन न मिल पाने के कारण " नेपलिया ट्रेन" की भांति धुकधुका कर चल रहा है।काफी पहले से ही कुछेक मर्द अपनी पत्नियों द्वारा प्रताड़ित होते आ रहे हैं। कहने का यह तात्पर्य कदापि नही है कि मर्द स्त्रियों पर जुल्म नही करते! बल्कि  क्विंटल के भाव मे " महिला उत्पीड़न" हो रहा है पर क्या इससे महिलाओं को भी " टिट फार टैट" का लाइसेंस मिल जाता है? बेचारे इन पत्नी पीड़ितों के सूखे और उतरे चेहरों को देखो! क्या तुम्हें इनक

आंदोलन का सच

डोंट वरी दयाल"राजनीति बड़ी कुत्ती चीज है! कब ,कहाँ ,कौन पलटी मार जाये कह नही सकते! प्रत्येक लीडर का अपना उद्देश्य होता है जिसे स्वार्थ भी कह सकते हो और उसको पूरा करने के लिए वह किसी भी हदतक जा सकता है। सीधी भाषा मे कहूँ तो गिर सकता है!"  संजना लाल- पीले बर्फ के गोले चूसती हुई बोली। " लेकिन संजना, उसे तो कम से कम हमारे साथ ऐसा नही करना चाहिए था! उसे पता था कि यह हमारे भविष्य का सवाल है! हमने उस पर कितना फेथ किया था! लेकिन वो भी औरों के समान ही निकला, उसने हमारा युज किया! ,हमारी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया!" दयाल के होंठ गुस्से से फड़फड़ा रहे थे। क्या क्या बनने के अरमान लेकर वो शहर के बड़े कालेज मे आया था। यहाँ आकर अधिकार, स्वतंत्रता, समाजवाद, मार्क्स, चे ग्वेरा और बस्तर आदि बड़े बड़े वजनी शब्दों और वादों के जाल मे उलझ गया। शेखर , कालेज का युनियन लीडर ,बहुत ही अच्छा वक्ता ,जो अपने शब्दों से, नारों से कैंपस मे क्रांति ले आता था। एक अदृश्य क्रांति की रसधार दयाल को अपनी ओर खींच रही थी  और ऐसे मे संजना के बाजू और कंधो ने उसे साथ मे नैया खेने के सपने भी दिखाये थे। पृष्ठभूमि त

स्क्रीनिंग

"कोई आया है क्या?" राजिन्दर ने मेन गेट से घुसते हुए कहा" दरवाजे पर किसकी कार खड़ी है? " बिहारी काका आये है! कल रात मे आये! छुटकी के मधुश्रावणी मे नही आ पाये थे! ओझाजी से मिलना था!" मै बोला। " लेकिन ये तो बिहारी काका की गाड़ी तो है नहीं! न नीली बत्ती लगी है और न नंबर प्लेट पर " प्रदेश सरकार" लिखा है! इसीलिए दाऊट हुआ कि बिहारी काका आये हैं!" राजिन्दर ने कुर्सी पर बैठते कहा! तबतक अंदर से बिहारी काका भी अंगैईठी करते निकले और पीछे से रामपुरवाली  चाची चाय लेकर  आ गई।  राजिन्दर भी चाय सुड़ुकने लगा। " हौ राजिंदर! का कहें, लगता है अबतो सरकारी नौकरी का कोनों चार्म ही नही रह गया। पहले नीली बत्ती हट गयी। उसी का पब्लिक ,गांव समाज मे भौकाल बनता था। कहीं गये तो साहब साहब कहके लोग सम्मान देते थे पर अब तो जाके बताना पड़ता है कि हम साहब हैं। बताओ ईहो कोई इज्जत है?" काका का दर्द निकल पड़ा था। मै बोला" चाचाजी! सरकार तो वीआईपी कल्चर खत्म करना चाहती है। समाजवाद लाना चाहता है। ऐसे सारे प्रतीक जिससे कोई खास बन जाता है उसे समाप्त करना चाहती है।"

टीस तो रहेगी

कालेज मे था जब अचानक सुनने को मिला, अब हम सबको सरकारी नौकरी नही मिल पाएगी। पहले तो समझ मे नही आया !" क्यों भाई ? कौन सा अपराध किया है? बताया गया तुम्हारे पुरुखों ने किया है, अब तुम लोग झेलो!"  यह तो वज्रपात था उस समाज के लिए । मध्यवर्गीय बिहारी समाज मे सरकारी सर्विस की अहमियत युपी - बिहार के लोग आसानी से समझ सकते हैं।खेती कर नही सकते थे, जातीय बाध्यता और  सामाजिक प्रतिष्ठा आड़े आ रही थी। अब जिसने भी कहा हो, कहते थे" ब्राह्मण जब हल की मूठ पकड़ता है तो अकाल पड़ जाता है"! जरूर किसी चालाक ब्राह्मण ने शारीरिक मेहनत से अपने को बचाने के लिए हल्ला उड़ाया होगा!" उद्योग धंधा भी नही था न,दस से पांच वाले सरकारी स्कूलों से पढे थे ,जहाँ छठी क्लास से अंग्रेजी का ए बी सी डी पढाना प्रारंभ होता था तो मल्टीनेशनल  या प्राइवेट कंपनियों मे घुसने मे दिक्कत थी, जहाँ फर्राटेदार इंग्लिश स्पीकिंग को जाब मिलती थी हालांकि उस समय मल्टीनेशनल कंपनियों ने आना ही शुरू किया था तो ऐसे मे नौकरियों मे स्कोप कम होने से जैसे वज्रपात हुआ। संपूर्ण देश जल उठा था और हमलोग भी उसमे आंदोलित थे, अपनी अपनी क्षमता