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Showing posts from July, 2021

बाढ रोकने के लिए इच्छाशक्ति की जरूरत है

वर्ष 1996 की जून माह की बात है जब  मै दिल्ली से गांव के लिए चला था। वैशाली एक्सप्रेस से मुजफ्फरपुर शाम चार बजे उतरा। मुजफ्फरपुर से मेरा गांव 45 किमी है। बैरिया स्टैंड से बस पकड़कर 20 किमी आगे आया। बस से उतरकर पैदल एक किमी चलने के बाद एक ट्रैक्टर मिला ,जो सवारियों को ढ़ो रहा था। बागमती नदी से 200 मी पहले उसने भी उतार दिया। नदी किनारे एक नाव पर सवार हुआ, जिसने उस पार उतारा। फिर कुछ दूर पैदल व ट्रैक्टर के सहारे रुन्नी गांव तक पहुंचा ,जहाँ से मिनी बस मिली और अपने गांव प्रेमनगर रात बारह बजे पहुंच पाया। कुल मिलाकर इस 45 किमी दूरी, मैने आठ घंटे मे तय की। मै अकेला नही था ,हजारों लोग इसीतरह सीतामढ़ी से मुजफ्फरपुर आ जा रहे थे।  दिल्ली से घर पंहुचने के किस्से के पीछे वो दृश्य दिखाना था कि बाढ़ ने उस जमाने मे आवागमन की क्या हालत कर दी थी। यह वह जमाना था, जब सीतामढ़ी- मुजफ्फरपुर मार्ग पर हरेक साल पांच -छः महीने के लिए डायरेक्ट बस सेवा बंद हो जाती थी। छोटी गाड़ी से मुजफ्फरपुर आने के लिए 100 किमी का चक्कर काटकर पुपरी-जाले होकर आना पड़ा। बागमती नदी पर उस समय पुल नही था और हरेक साल पुराना पुल पानी मे डूब जाता

मिथिला मे पोखरा(तालाब)

पग पग पोखरि माछ मखान मधुर बोल मुस्की मुखपान यै अछि मिथिलाक पहचान। जाहिर है पोखरि अर्थात पोखरा(तालाब) का महत्व मिथिला के  जन-जन मे रचा बसा है।यहाँ बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी से ही कर्मकांडो मे पोखर-यज्ञ के माध्यम से पोखरा खुदवाया जाने लगा था। पुण्य के लोभ मे, सिंचाई एवं जल की अन्य आवश्यकताओं तथा यश कीर्ति की आकांक्षाओं के कारण मिथिला मे पोखरा खुदवाने की परम्परा बहुत प्रचलित थी। जाने अनजाने मे यह कार्य पर्यावरण और जल संरक्षण की दिशा मे अद्भुत कार्य था। तालाबों से न केवल पृथ्वी का जल स्तर बना रहता है बल्कि बर्षा जल भी संरक्षित होता है। पोखरा मुख्यतः राजा महाराजा एवं जमींदारों द्वारा खुदवाया जाता रहा है। साथ ही समाज के सक्षम लोग भी अपनी यशकीर्ति के लिए पोखरा खुदवाते थे। मध्यकालीन इतिहासकार ज्योतिरीश्वर के वर्णरत्नाकर (चौदहवीं शताब्दी) में भी इस क्षेत्र के सरोवर और पोखरे का वर्णन है।उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लिखी गई पुस्तक " आईना-ए-तिरहुत" मे  मिथिला के  प्रसिद्ध पोखरों का विवरण है।बिहारी लाल फितरत, जिन्होंने गाँव-गाँव घूमकर और सर्वेक्षण कर आईना-ए-तिरहुत की रचना की,के अनुस

स्वामी विद्यानंद और दरभंगा महाराज

स्वामी विद्यानंद  भारत मे धर्मगुरुओं और स्वामियों की महत्ता हमेशा से रही है। यहाँ तक कि ब्रिटिश शासनकाल मे सामाजिक और धार्मिक आंदोलनों के साथ किसान और आदिवासी आंदोलनों मे भी इनकी भूमिका बढचढकर रही है। वो चाहे संन्यासी विद्रोह हो, मोपला विद्रोह हो या बीसवीं सदी का किसान आंदोलन। स्वामी सहजानंद तो किसान आंदोलनों के प्रणेता ही माने जाते हैं । उनसे पुर्व दरभंगा मे किसानों को संगठित करने और उनकी आवाज को पूरजोर तरीके से उठाने का श्रेय स्वामी विद्यानंद को जाता है।। बीसवी सदी के दूसरे दशक के अंत तक भारत मे लगभग  92% लोग अपने जीविकोपार्जन हेतु कृषि कार्य में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संलग्न थे। लेकिन कृषि की पद्धति पुरानी  और भू राजस्व व्यवस्था अत्यंत शोषणमूलक थी। कतिपय कारणों से कृषि अर्थव्यवस्था अत्यंत हानिकारक हो गई और कृषक वर्ग निर्धन होता चला गया।अधिकांश किसान जमीन से बेदखल होने पर बटाई दार और भूमिहीन मजदूर बन गए तथा उनकी भूमि जमींदारों के पास चली गई। लार्ड कार्नवालिस के स्थायी बंदोबस्त ने बिहार मे दरभंगा राज, हथुआ राज,बेतिया राज,डुमरांव राज,पातेपुर राज,छोटानागपुर राज जैसों को जमींदारी