ना खायब ना खाये देब



कल एक मित्र एक किस्सा सुना रहे थे  ,जो समसामयिक प्रतीत हो रही है :-   एक विभाग मे दो  ईंजीनियर  आपस मे   पावर के बटवारे को  लेकर लड गये! एक इंजीनियर साहब का लोभ कुछ ज्यादा ही बढ गया था! उन्होने अपने एक अधिकारी की मिली भगत से और एक अधिकारो को धोखे मे रखकर  विभागीय नियमावली बदलवा दी और दुसरे का भी सारा अधिकार अपने पास लिखवा लिया! दुसरे अपने अधिकारियो से काफी मिन्न्ते की, गुहार लगायी, काफी भागमदौड किया  पर पैसे और पहुंच के आगे उसकी एक ना चली  ! समाज और  विभाग  मे उसकी  जगहसाई होने लगी! पहले उसने कोर्ट जाने की सोची पर कोर्ट मे लगने वाले खर्चो और समय को  देखकर " आत्मघाती दस्ता'  बनने का निर्णय लिया! परिणाम यह हुआ की उसनी सारी पोल पट्टी विजिलेंस और सीबीआई को बता दी! जांच का ऐसा काला साया पडा कि   पूरे का पूरा विभाग लपेटे मे आ गया और उसकी अपनी मौत तो ब्रैन हैमरेज से हुई ही लेकिन वो साहबान ,जिनका सारा किया धरा था ,आज भी जेल के सलाखो के अंदर चक्किया पीस रहा है! सारी सम्पति कुर्क हो गयी और पत्नी एवम बच्चे  दर दर की ठोकर खा रहे है!उस  छोटी सी गलती का अंजाम उसे भुगतना पडा कोई उससे जाकर पुछे!  क्या मिला ऐसे पावर छीनने से,?  वस्तुत: शक्ति संतुलन बिगडने से अशांति आती है!   ऐसे "हरावल दस्तो " की दुनिया मे कमी नही है! कौन जाने कौन से बात किसी के दिल को छू जाये और वो पलभर मे क्या निर्णय कर ले ! इसलिये सबको अपनी हद मे रहना चाहिये! इस कहानी से कुछ बाते उभर कर आती है ! पहली बात यह है कि.दो भाई या दो ऐसे लोग जो एक दुसरे का सबकुछ अर्थात जीरो से हंड्रेड तक जांते हो तो दोनो को अपनी अपनी हद मे रहना चाहिये!  मान अपमान से बचना चाहिये क्योंकि यदि सबको पता है "घर का भेदी लंका ढाहे! विभीषण को भले ही लंका वाले  गाली देते हो पर हमारे राम जी का सह्योग करने के कारण हम उनका सम्मान करते है और उनकी शैली अपनाने से गुरेज नही करते! इतिहास इसका गवाह है! जब जबदुसरे हम पर विजय पाये है तो उनमे सहयोग हमारे अपनो का होता है!  भले ही विभीषण नाम रखने परहेज हम करे पर बदला लेने के लिये दुश्मनो को सारा भेद बताने मे हम चुकेंगे नही! सोने की लंका का क्या अंत हुआ इसके लिये रामायण पढाने की जरूरत नही है!

 " ना खायब ना खाये देब" खेलबे बिगाडब" एक प्रचलित लोकोक्ति है!  खेल बिगाडना कितना आसान है सबको पता है! नेगेटिव सोचना और करना बडा आसान है! एक कहावत है" लिखे आवता त ना आ मिटावे आवता त दूनू हाथे" ये तो थोडा स्लैंग लैंग्वेज मे हो गया पर मतलब इसका सब समझते है! दुसरी बात कि  धोखेबाजी का अंत हमेशा बुरा होता है! पीठ पीछे षडयंत्र  करना कायरो का काम होता है जो उपर से तो मीठी मीठी बोलेंगे पर मौका मिलते   छुरा भोंक देते है! पर उनका अंत हमेशा अपनी हिदी फिल्मो की तरह होता है!  महात्मा बुद्ध ने कहा था " वीणा के तार को इतना मत खींचो की तार ही टुट   जाये!"  क्योंकि तार की भी एक सहनशक्ति है और जिस दिन उसपर तनाव" परमिसेबिल लिमिट" से अधिक हो जायेगा,वो टूट जायेगा और जब सब्र का बांध टूटता है तो प्रलय आ जाता है! तीसरी बात कि आपसी लडाई से आजतक किसी को लाभ नही हुआ है ! इतिहास साक्षी है कि युद्ध-महायुद्ध ने हमेशा विनाश ही किया है!असल मे पावर की चाह या भूख कहिये ,,लोगो को पागल बना देती है! सत्ता मद या अहंकार पैदा करती है जो सर चढकर बोलती है!   पहले राजाओ के मुकुट मे हुआ करती थी ,अब दिमाग और कलम मे बोलती है!सबको अपनी हद मे रहना चाहिये और अपना अपना देख्ना चाहिये! मीडिया और पारदर्षिता के इस युग मे किसी को ट्रैप करना, स्टिंग करना और टीवी पर पट्टी चलवाना कितना आसान है ! क्षण भर मे आप मशहूर हो सकते है तो क्षणभर मे बदनाम!  " बाबूजी धीरे चलना! बडे धोखे है इस राह मे!" लेकिन सबके बावजूद हमारा नारा तो यही है कि " इंसान से इंसान का हो भाईचारा ,यही पैगाम हमारा, यही पैगाम हमारा !"

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