बिन पीसीएस सब सून...

तुमको देखा तो ये ख्याल आया                                                                                                               जिंदगी धूप तुम घना साया।                                                                                                                     जब हम लल्ला की चुंगी पर चालीसाना प्रौढ़ लोगो को शाम मे कट्टा चाय के साथ झुंड मे गपियाते , मैगजीन की दुकान पर परीक्षा मंथन का अगला अंक तलाशते और नवागत छात्रो को प्रतियोगी परीक्षा को क्रैक करने की टेकनीक समझाते देखता हूं तो सहसा उनकी स्थिति पर तरस आने लगता है,की  इनकी जिंदगी तो मानो धूप ही धूप मे जल रही है,साये को तरस रही है!इनकी मानो तो बिन पीसीएस,आईएएस बिना, जीवन भयो अन्हार"!  बिना पीसीएस के जिंदगी चल ही नही सकती। बिन पीसीएस जीना भी कोई जीना है भैया! पूरी जवानी खपा दिए तैयारी मे तो जीओगे कब? वैसे दिल्ली मे तैयारी करने वालो का लाइफ स्पान 30-32 साल है क्योंकि आइएएस की अधिकतम सीमा समाप्त होते ही वे अन्य विधाओं मे हाथ पैर मारने लगते हैं पर राज्य की सेवा मे आयु बढाकर जवानो की जवानी के साथ अत्याचार सदृश कार्य किया गया है।फ्रस्टेशन का अड्डा बना पीसीएस की तैयारी।लाइफ के लिए के क्या चाहिए एक अदद सुंदर बीबी(भले अपने कालाहारी मरूस्थल के कुपोषण पीड़ित सदृश थुथने वाले हों) ,दो बच्चे( बेटा न होने की सूरत मे गिनती लागू करना बाध्यता नही है) ,एक घर( इलाहाबाद या लखनऊ की पाश कालोनी मे हो), एक कार ( कम से कम स्कार्पियो) तो ही चाहीए, तो पीसी एस ही क्यों? क्या अन्य आजीविका वालो के पास ये सब नही है। अरे! नेमप्लेट तो भूल ही गये! घर के आगे" बी ए, एम ए, बीएड, पीसीएस(एलायड) लिखवाना है जो चाहे सिलेक्शन 4200 ग्रेड पे मे हुआ हो। गांव मे बापू सीना तान के बोलेगा" हमार बिटबा, पीसीएस हो गईल  हो! ये जो मृगतृष्णा है वो इन " चांद चाचा अनुभवी किसान" सदृश तैयारी कर्ताओ के जीने का सहारा है। जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां"! पीसी एस के सिवा जीना जैसे कीड़ो मकोड़ो के समान है।इस संदर्भ मे एक घटना पेशे नजर है! कुछ पुराने घनिष्ठ मित्रो ने  कॉलेज छोड़ने के बहुत दिनों बाद मिलने का प्रोग्राम रखा और अपने प्रिय टीचर के घर इकठ्ठा हुए।वे सभी अच्छे कैरियर के साथ खूब पैसे कमा रहे थे। टीचर उनके काम के बारे में पूछने लगे। धीरे-धीरे बात लाइफ में बढ़ती स्ट्रेस और काम के प्रेशर पर आ गयी। इस मुद्दे पर सभी एक मत थे कि, भले वे अब आर्थिक रूप से बहुत मजबूत हों पर उनकी लाइफ में अब वो मजा नहीं रह गया जो पहले कालेज लाइफ में हुआ करता था। टीचर बड़े ध्यान से उनकी बातें सुन रहे थे,  वे अचानक ही उठे और थोड़ी देर बाद किचन से लौटे और बोले" प्रिय छात्रो! मैं आपके लिए गरमा-गरम कॉफ़ी बना कर लाया हूँ , !लेकिन प्लीज आप सब किचन में जाकर अपने-अपने लिए कप्स लेते आइये।"लड़के तेजी से अंदर गए, वहाँ कई तरह के कप रखे हुए थे, सभी अपने लिए अच्छा से अच्छा कप उठाने में लग गये, किसी ने क्रिस्टल का शानदार कप उठाया तो किसी ने पोर्सिलेन का कप सेलेक्ट किया, तो किसी ने शीशे का कप उठाया। सभी के हाथों में कॉफी आ गयी । तो वे बोले, जो कप दिखने में अच्छे और महंगे थे, आपने उन्हें ही चुना और साधारण दिखने वाले कप्स की तरफ ध्यान नहीं दिया। जहाँ एक तरफ अपने लिए सबसे अच्छे की चाह रखना एक सामान्य बात है। वहीँ दूसरी तरफ ये हमारी लाइफ में प्रोब्लम्स और स्ट्रेस लेकर आता है। ये तो पक्का है कि कप, कॉफी की क्वालिटी में कोई बदलाव नहीं लाता। ये तो बस एक जरिया है जिसके माध्यम से आप कॉफी पीते है। असल में जो आपको चाहिए था। वो बस कॉफ़ी थी, कप नहीं, पर फिर भी आप सब सबसे अच्छे कप के पीछे ही गए और अपना लेने के बाद दूसरों के कप निहारने लगे।"ये लाइफ है ना कॉफ़ी की तरह है ।हमारी नौकरी, पैसा, पोजीशन, कप की तरह हैं। ये बस लाइफ जीने के साधन हैं, खुद लाइफ नहीं ! और हमारे पास कौन सा कप है। ये न हमारी लाइफ को डिफाइन करता है और ना ही उसे चेंज करता है। इसीलिए कॉफी की चिंता करिये कप की नहीं।" "दुनिया के सबसे खुशहाल लोग वो नहीं होते , जिनके पास सबकुछ सबसे बढ़िया होता है, खुशहाल वे होते हैं, जिनके पास जो होता है । बस उसका सबसे अच्छे से यूज़ करते हैं, एन्जॉय करते हैं और भरपूर जीवन जीते हैं! पर इन धुअंधर रटने वालो, कोई भी किताब के पेज संख्या सहित याद रखने वालो, किसी भी टापिक पर   धाराप्रवाह घंटो बोलने वालो  के लिये उपरोक्त उपदेश बालू के ढेर के समान है, जो हवाओ के झोको के साथ स्थान बदलते रहते है! तो क्या इलाहाबादी योद्धा रणक्षेत्र छोड़ देंगे। वे अपनी लाइफ लाईन छोड़ दें, नही उनकी  ये  सरकारी नौकरी के प्रति लगाव, पैशन वाली  सामंतवादी मानसिकता तबतक नही बदलेगी जबतक परिवार, समाज अपनी सोच नही बदलेगा जो अपनी महात्वाकांक्षाओ की बलिवेदी पर उनकी जवानी, शक्ति, सोच, उर्जा कुर्बान कर रहा है।साठ साल तक नौकरी और चालीस ,कभी कभी सेशन लेट होने पर पैंतालीस तक ज्वाइनिंग! क्या खक नौकरी करेगा, पेंशन भी पूरा नही मिलेगा। अमूमन तो जबतक नौकरी नही, तबतक छोकरी नही के तर्ज पर जवानी के दिनो मे आये रिश्ते ठुकरा देते है, यह लोभ होता है यदि पीसी एस हो गये तो जन्म से लेकर अबतक जितना खर्चा किया है दहेज मे वसूल लेंगे, यदि शादी कर भी दिए तो " मेरे साजन है उस पार, मै उस पार" या ""तु वहां मै तड़पता यहां" मे फ्रस्टेशन और बढ जाता है, बार बार गांव जाने पर लोगो को बताते शर्म आती है कि अभी तैयारी ही कर रहे हैं। लेट एडीशन वालो की जब लाटरी लगती है तो एज डिफरेंस सामने आ जाता हैऔर "मै क्या करूं राम मुझे बुढ्ढा मिल गया" सुनना पड़ता है।तो इन सबके चक्कर मे अपनी लाईफ बरबाद! क्या जरुरत है, कोई नौकरी पकड़ो और लाइफ सेटल करो। सरकार इस पर ध्यान दे और अधिकतम आयु 30-32 ही रखे,, होना होगा तो ठीक वरना आदमी कम से कम काम का तो रहेगा।  इनको काफी पीने पर ध्यान देना चाहिये ना कि कप पर, वरना काफी के स्वाद का पता ही नही चलेगा, लुत्फ उठाना है तो साध्य पर ध्यान दो , साधन पर नही!                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                           
 वरना जब बडे बेआबरू होकर इलाहाबाद के कुचो से निकलते है तो कहते है"
 खुदा ही ना मिले ना बिसाले सनम
ना इधर के रहे ना उधर के रहे
लुत्फ जिदगी की इस कदर बेस्वाद हो गयी
जब भी चखना चाहा बारावफात हो गयी!

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