गाय की आत्मकथा

  अब हमे भी लाइम लाइट मे रहने का शौक चर्राया है,अब जिधर देखो मेरे नाम के चर्चे है तो लगे हाथ मैने भी सोचा कि अपनी आत्मकथा लिख डालूं। बिना कुछ किए मुफ्त की पब्लिसिटी मिल जाएगीऔर छापने वालो को मुनाफा। तो  पाठको मेरी कहानी  मे चटकारा लेकर सुनने का तो कोई स्कोप नही है ,पर है मजेदार! यह मानव के विकास की कहानी है जो तबसे शुरू होती है जब मनुष्य ताजा ताजा बंदर से आदमी बनना चालू किया था। बंदर वाली पूंछ  ज्यो ज्यो कम हो रही थी वह मेरी पूंछ की तरफ हाथ बढा रहा था।जबतक वह फल फूल खाता रहा ,मेरी जरूरत नही रही पर जैसे ही खेती शुरु किया और घर-द्वार बनाकर परिवार बसाना शुरू किया, मेरे बछडे़, दूध, गोबर, खाल और मांस की जरूरत पड़ने लगी। कुता भले ही पहला पालतू जानवर बना परंतु वह सिर्फ उसकी जंगली जानवरों से रक्षा करने मे उपयोगी था परंतु मै तो जीवन सहारा बन गयी थी ।मेरा  महत्व इतना बढ गया की आज जिस तरह आपलोग रूपया  का इस्तेमाल करते हो, उसी तरह मेरा उपयोग होने लगा।जिसके पास जितनी ज्यादा संख्या मे मै होती वो उतना ही बडा़ आदमी, धनी माना जाता। मेरे लिए बड़ी लडा़ईयां लड़ी जाती थी। मै इंसानी सभ्यता के लिए इतनी अपरिहार्य हो गयी कि मुझे देवी, मां, माता कह कर बुलाया जाने लगा। पर सब दिन होत न एक समान। धीरे धीरे जर- जोरू- जमीन की बढती महता ने मेरी आर्थिक महत्व कम कर दिया। व्यापार उद्योग मे मेरी उपयोगिता नही थी पर मेरा धार्मिक और सामाजिक महत्व कम न हुआ। खेती प्रधान देश मे मेरे संतानो का दबदबा तबतक जारी रहा जबतक आधुनिक तौर तरीको और मशीनो ने उन्हे खेती से बेदखल न कर दिया। मेरे दूध को पीकर हर बच्चा पलता था, पर डिब्बा बंद दूध और आधुनिक जीवन शैली ने वहां से भी हमारी आवश्यकता को सीमित कर दिया।जिन बच्चो की मांओ के छाती से दूध नही उतरता था, वो हमारी बदौलत ही जीते थे। मुझे वैतरणी पार कराने का साधन माना जाता था और आजतक मरने से पहले आत्मा की शांति के लिए मेरा दान किया जाता है।मेरे गोबर से लीपने से जगह शुद्ध हो जाता था, ऐसा आपके पूर्वज मानते थे, वे आप सबकी तरह ज्यादा पढे लिखे नही थे शायद! मुझे आज भी वो दिन याद है जब कन्हैया बांसुरी बजाते हुये सुबह से शाम तक नंदग्राम मे खुले मैदानो मे हमे चराते रहते थे, मन प्रफुल्लित हो जाता था। पर अब न तो वो ग्वाले रहे और न घास के मैदान। अब तो गौशालो मे बांध कर छोड़ दिया जाता है या सड़को पर भटकते रहते है। हमे भी कचरा, प्लास्टिक, कागज खाना थोडे़ ही अच्छा लगता है पर क्या करें, क्या खायें?इंसान ने सारे जंगल काट डाले, चारागाह खत्म कर डाले और हमे फार्म हाऊसो मे बिठा डाला। कहां अब वो मेरे दूध घी मे वो शक्ति रही, जो प्रकृति के साथ रहने पर आती थी।हम देश के थे और देश हमारा था।बूढे हो जाने पर सब दिन हम बेकार थे पर आजकल हमे विदेशो मे और कई  समाजो मे हमारे मांस को बड़े शौक से खाया जाता है पर यहां धार्मिक मान्यता को लेकर हमारे मांस खाने पर प्रतिबंध लगा दिया है पर ये तो आस्था की बात है, जो नही मानते वो चोरी छुपे खाते हैं।जो मुझे मां मानते है उन्हे हराम लगता है पर समय बदल गया है। आर्थिक और भौतिकवादी युग मे इंसान अपने सगे मां बाप तक को मार डाल रहा है तो मै क्या चीज हूं?मुझे दुख भी नही होता! क्यो होगा भला ! मर कर भी किसी के काम आ जाऊं तो क्या हर्ज है? मां तो हमेशा बच्चो के लिए खुद को कुर्बान करने को तैयार रहती है!" अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी ऐ दिल, जमाने के लिए"।पर मै मां हूं तो पूरे देश का! क्यों मुझे किसी खास वर्ग, संप्रदाय, जाति, धर्म से जोड़ दिया गया? क्या मेरे दूध सबको समान रूप से प्रिय नही है या मै धर्म संप्रदाय देखकर अपना दूध घी देती हूं। मुझे बड़ा कष्ट होता है जब मुझको लेकर आपस मे झगड़ा, लड़ाई, मारपीट, हत्या दंगा फसाद करते है! तब लगता है " हे ईश्वर मेरी प्रजाति ही इस पृथ्वी से समाप्त कर दो!" न रहेगा बांस और न बजेगी बंसुरी"।एक जमाने मे मै अपने बछड़े के साथ एक बड़ी राजनीतिक पार्टी का चुनाव चिन्ह हुआ करती थी ,तब तो मुझे सांप्रदायिक रंग से नही रंगा गया था? अब क्या हो गया? कभी मेरे  से  निकले गोत्र, गोष्ठी, गोपालक,, ग्वाले,गोखूर, गोमुख, गोधर, आदि शब्द समाज मे प्रचलित थे पर आज लगता है जैसे मै अब यहां अवांछित हो गयी हूं।मेरी रक्षा के नाम पर बिना जांच पड़ताल के उग्र हो जाना और गरीबो- दलितो की पिटायी  क्या अच्छी बात है? यदि वे मेरी मृत्यु पश्चात हमे ले नही जायेंगे तो कौन ले जाएगा? लाश को तुम लोग अशुभ मानते हो जबकि मृत्यु तो मुक्ति है, उल्लास का क्षण है, नश्वर शरीर से छुटकारा मिल जाता है। हमको सुरक्षा चाहिए पर देशवासियो की कीमत पर नही! हमने सदा मनुष्य प्रजाति के संवर्धन और विकास मे योगदान दिया है ,मै उनके विनाश का कारण नही बनना चाहती। मेरा आज व्यापार हो रहा है बाजार मे, राजनीति मे, मीडिया मे।सभी हमारे नाम पर खेलते है पर कोई देखने नही आता कि दान करने के बाद मुझे सड़क पर लावारिस छोड़ दिया जाता है, मेरी क्या हालत होती है? अभी एक गोशाला मे लगभग पांच सौ गायें दलदल मे फंसकर मर गयी, किसने देखा? मै रोड पर इधर उधर घूमती रहती हूं ,ऐक्सीडेंट हो जाता है, किसने देखा?आजकल वो भी नही हमे देखते जिनका वंश ही कभी हमारी बदौलत चलता था क्योंकि दूसरी पार्टी ने हमे हथिया लिया है! मै बेचारी मूक पशु किसी को क्या बोल सकती हूं ,अपनी विवादों मे मुझे न घसीटो!अब बताओ कहूंगी तो बुरा लगेगा! यदि किसी को मेरे मांस को खाने मे आपत्ति है तो यदि नही ही खाओगे तो क्या जिंदा नही रहोगे? जहां हमारी मांस को नही खाया जाता ,तो क्या वे जीवित नही हैं? असल मे हमे दूसरे की भावनाओं का ख्याल रखना आता ही नही!जानबूझकर राजनीति चमकाने, विवाद पैदा करने ,असहिष्णूता दिखाने, लाइम लाइट मे आने मे आप लोगो को मजा आता है!इससे तो अच्छे अंग्रेज हैं भला! कभी कोई मानक नही बनाया , मेरा सबकुछ उपयोग किया- दूध, घी, चमड़ी ,मांस(बीफ)। उनकी कोई संवेदना या भावना हमसे नही जुड़ी थी फिर भी "काऊ ब्याय" काफी प्रचलित हुआआ। सुना है ये जो सोशल मीडिया है न, ट्वीटर, और फेसबूक !उस पर मेरे नाम से कई पेज, एकाऊंट ,ग्रुप ,आई डी बन गये है! हम पर लगातार बहस टीवी पर चलता रहता है पर तो ये सब देखते सुनते नही,बस कुछ खाने को मिल जाए ,पगुराता रहूंगा।लोग हम रोटी सेंकते रहें, विश्वविद्यालयो , सेमिनारो मे बहस करते रहें, कोई नया कन्हैया जन्म लेता रहे,इखलाक और गुजरात-उना की वहशत चलती रहे, मन की बात और टाक टू एके सुनाते रहे, अपने राम का क्या जाता है? हम तो चौपाया ही रहेंगे! हमारा दिमाग पेट के पैरलल होने के कारण पेट से ज्यादा नही सोचता। हमको और हमारे बच्चो(इंसान) को दो वक्त की रोटी मिलता रहे बाकि सब हाई फाई बातें है , अगले जन्म मे समझ आएंगी। खैर बहूत लंबा हो गया, अब खत्म करती हूं, बूचड़खाने मे मेरे कटने का वक्त आ गया है! " खुश रहना देश के प्यारों ,अब हम तो सफर करते है।"

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

कोटा- सुसाइड फैक्टरी

पुस्तक समीक्षा - आहिल

कम गेंहूं खरीद से उपजे सवाल