अबूझ पहेली-जिंदगी
" मै पल दो पल का शायर हूं, पल दो पल मेरी जवानी है, पल दो पल मेरी हस्ती है, पल दो पल मेरी जवानी है"मशहूर गायक मुकेश के ये गाने जब भी कानो मे पड़ते हैं, मन प्रफुल्लित हो जाता है ,साथ ही जीवन की क्षणभंगुरता भी दिख जाती है। ज़िंदगी बहुत ही छोटी होती है। उसे यूं ही जाया करना उचित नही है।मेरी समझ मे इक जिंदगी कम है इंसान के प्यार , दोस्ती, सद्भाव के लिए फिर इतनी छोटी जिंदगी मे नफरत और लड़ाई के लिए जगह कहां बचती है?इसलिए प्यार बांटते चलो! यह इक ऐसा पिटारा है जो बांटने से कभी कम नही होता बल्कि बढ़ता है । इस छोटे से जीवन मे बहुत सारे काम करने होते हैं।इक दिन बिक जाएगा, माटी के मोल, जगमे रह जायेंगे ,प्यारे तेरे बोल। इंसान बच्चा से जवान होते हुए वृद्ध हो जाता है पर जीवन की डोर कब ,कैसै ,कहां टूट जाये कौन जानता है? जिंदगी का सफर है ये कैसा सफर, कोई समझा नही ,कोई जाना नही ! सभी इक अनजाने सफर मे चल पड़े है लेकिन हमसफर यदि मनोनुकूल हो तो रास्ता आसान और मनोरंजक हो जाता है।इसलिए अपने प्यार को पहचानिए। अपने जीवनसाथी के साथ दो पल तो बिताइये। जो अपने माँ बाप भाई बहन सगे संबंधी सब को छोड़ आप से रिश्ता जोड़ आपके सुख-दुख में शामिल होने का वादा किया उसके सुख-दुख को पूछिए तो सही। सात फेरो के सातों वचन प्यारे तुम भूल न जाना। यह जिम्मा सिर्फ उसी पर क्यों रहे। दोनो मिलकर कसम खायी है तो साथ निभाना पड़ेगा।हालांकि जिंदगी की पहेली का हल उसके पास भी नही है फिर भी एक दिन अफसोस करने से बेहतर है, सच को आज ही समझ लेना कि ज़िंदगी मुट्ठी में रेत की तरह होती है। कब मुट्ठी से वो निकल जाएगी, पता भी नहीं चलेगा ? जिंदगी के सफर को बच्चो द्वारा खेले जाने वाले खेल से समझा जा सकता है जिसमे वो धागे के बीच मे छेद किया हुआ सिक्का फंसाकर और दोनो सिरों को अंगुलियों मे डालकर जोर से नचाते हैं तो एक वृत बनने लगता है। धागे के दोनो छोर ,यहां जिंदगी के दो छोर है- जन्म और मृत्यु। दोनो सिरों के मध्य हमारी जिंदगी। इंसान जन्मता अकेला है, धीरे धीरे मां, फिर परिवार, फिर गांव, समाज और मध्य आयु मे वृत के बडे़ आकार के समान दायरा।यहां तक मिलने वालो का सिलसिला चलता है फिर जैसै जैसै आगे बढता है लोग बिछड़ने लगते हैं, पहले मां बाप, भाई बंधु फिर बच्चे अलग हो जाते हैं और अंत मे पुन: अकेला"।जिंदगी भी हमे उसी तरह नचाती भी है और हम चक्कर घिन्नी खाकर गिर भी जाते हैं पर हौसला बुलंद रखने वाले फिर उसी दमखम से आगे बढ़ते हैं।" सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है, न हाथी है न घोड़ा है, वहां पैदल ही जाना है"! बंद मुठ्ठी आये थे और हाथ पसारे जाना है।फिर काहे की रार, द्वेष, घृणा, अहंकार, लड़ाई, चोरी, बेईमानी और किसके लिए? हमने लोगो को ट्रेनो की सीटो के लिए झगड़ते देखा है जबकि सबको पता है कुछ घंटे बाद उसे सीट खाली करना है। ट्रेन का सफर जिंदगी के सफर को समझने का सबसे अच्छा उदाहरण है।जब आप चढते हैं तो कुछ रिजर्वेशन वाले, कुछ बिना रिजर्वेशन वाले, कुछ बिना टिकट वाले, कुछ नीचे बैठे ,कुछ उपर बैठे, कुछ गेट पर बैठे, कुछ खोमचे वाले तो कुछ खाना खिलाने वाले, कुछ टिकट चेकर तो कुछ पुलिस। बीच बीच मे रुक कर गंतव्य पर उतारती ट्रेन तो कभी चेनपुलिंग या एक्सीडेंट से रुक जाती ट्रेन।भांति भांति के हमसफर पर सबके गंतव्य अलग अलग।कोई बीच रास्ते साथ छोड़ जाता तो कोई आपसे आगे निकल जाता।क्षण मे परिचय क्षण मे विलगाव। जीवन की यह रीत पुरानी।कोई गाता" जीवन से भरी ,तेरी आंखे, मजबूर करे जीने के लिए' तो कोई गाता" कोई तो होता, जिसको अपना,हम कह लेते यारों।" एकदम अनजान, अबूझ पहेली।
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