दाना मांझी के बहाने..

कल जबसे दाना मांझी को अपने कंधे पर अपनी पत्नी की लाश लादकर पैदल चलते दिखाया गया है तबसे मानवीय संवेदनाओं के पतन तथा सरकारी तंत्र के ध्वस्त हो जाने का क्लिप, वीडियो, परिचर्चा, लेख लगातार मीडिया मे छाया हुआ है! प्रश्न यह है कि दाना मांझी क्या पहला शख्स है जिसके साथ ऐसा हुआ? क्या सरकारी तंत्र की विफलता का तांडव इससे पूर्व चर्चा मे नही रहा है? क्या इससे पूर्व मानवीय संवेदनाओं पर प्रश्नचिन्ह नही उठाया गया है? क्या करेगा शासन प्रशासन ,उस जिम्मेदार पटल सहायक, कंपाउंडर का निलंबन और अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक के विरुद्ध, चार्जशीट? दो - चार दिन मीडिया मे बहस ,हो -हल्ला, सतारुढ दल को गाली, लोकल विधायक मंत्री को कला झंडा और घेराव, और कुछ दिन बाद सब शांत! इससे क्या होगा? क्या फिर से ऐसी घटना नही घटेगी?क्या हम सिर्फ तात्कालिक रियेक्शनरी बन गये हैं, घटना के तह तक जाने और उसका समूल निराकरण मे विश्वास नही करते?क्या कोई यह जानने की कोशिश कर रहा है कि दाना मांझी की गुहार किसी सरकारी कर्मचारी, अधिकारी ने क्यों नही सुनी?क्या किसी ने जानने की कोशिश की कि उस एम्बुलेंस की आखिरी सर्विसिंग कब हुई थी? उस ऐम्बुलेंस ड्राइवर को कबसे वेतन नही मिला है? उस ऐम्बुलेंस के लिए महीने भर मे कितना डीजल मिलता है?एम्बुलेंस का उपयोग कहीं किसी मंत्री, विधायक के घर का सब्जी-भाजी लाने मे तो उपयोग नही हो रहा है? क्या प्रत्येक पेशेंट को घर से लाने ले जाने के लिए डीजल उसे मिलता है? क्या उस अस्पताल के सी एम एस या जिले के डी एम के घर का जेनरेटर तो उस डीजल से नही चल रहा है? कबसे उस अस्पताल के जेनरेटर या एम्बुलेंस के तेल का बजट नही मिला है या फाइल  सचिवालय के टेबल दर टेबल धक्के खा रहा है? सारे प्रश्न अनुत्तरित रहते हैं क्योंकि भ्रष्टाचार और सिस्टमेटिक फेलियर का यह ऐसा मकड़जाल है जिसमे हमारा देश वर्षो से उलझा हुआ है, तड़प रहा है, छटपटा रहा है, पर निकल नही पा रहा है! जो भी इसे सुलझाने की कोशिश करता है खुद चकरघिन्नी खाकर गिर जा रहा है!वस्तुत: दाना मांझी तो एक प्रतीक मात्र है, करोड़ो दाना मांझी देश की लाश को कंधो पर उठाये फिर रहे है! कहीं कोई दिख जाता है और मीडिया हो हल्ला मचा देती है, या कोई सह्रदय प्रशासनिक अधिकारी स्वंय के बदौलत कुछ कर पाता है तो शेष रास्ते के लिए शव वाहन या विकल्प उपलब्ध करा देता है वरना् अश्वथामा की भांति घाव अपने माथे पर लिए भटकता रहता है। अस्पताल ही क्यों आप थाना, पुलिस, प्रशासन, सहित समस्त विभागों को देखिए, सबका वही हाल है! अभी कुछ दिन पहले एक पुलिस थाने मे ड्युटी के दौरान कुछ समय बिताने का अवसर मिला। पता चला महीने भर का पुलिस जीप  के लिए जितना डीजल मिलता है ,उतने मे यदि हरेक काल पर पुलिस भेजी जाने लगे तो एक सप्ताह भी गाडी नही चल पाएगी। अब उनके सामने दो विकल्प है, एक तो वे अब हरेक काल पर या घटना स्थल पर जाने से बचते हैं और  उन्हे ही थाने बुला लेते हैं या अपने पाकेट से तेल भराते हैं। अब वेतन तो इतनी ज्यादा है नही कि उससे तेल खरीदें। स्वाभाविक रुप भ्रष्टाचार, वसूली,और कमीशन को बढ़ावा मिलता है।और हम कहते हैं पुलिस भ्रष्ट है, संवेदनाहीन है, चोरी, छिनैती के बाद पहुंचती है, क्यों? उनके पास एक पुरानी जीप या जिप्सी है जिसके मेन्टेनेन्स के लिए टोकन मनी मिलती है, कैसे अपराधियों का पीछा करेंगे? यह एक उदाहरण है हमारे तंत्र  की विफलता का!अस्पताल भी इससे अलग नही है! हो सकता है डीजल मिलता ही न हो और मिलता भी हो तो आपरेशन थियेटर के जेनरेटर के लिए भी कम पड़ रहा हो, जो ज्यादा आवश्यक है! अस्पताल अंधेरे मे डूबा रहता है, स्टाफ जेनरेटर चलाने से बचते हैं। या तो तेल की चोरी करते हैं या उन्ही मरीजो को घर पहुंचाते हैं जो या तो पहुंच वाला है या हो हल्ला मचाने वाला! दाना मांझी जैसे लाचार, गरीब, निर्बल और मूक प्राणी की आवाज भला कोई क्यों कर सुनेगा? दाना मांझी ही क्यों ,आप सोचिए कल एक और ह्दयविदारक घटना मे रेलगाड़ी से गिरकर मरे एक व्यक्ति के शव के साथ कर्मचारियो ने क्या किया? अब उसे बांस पर टांग कर ले जाना था तो उस लाश के हाथ पैर तोड़कर बोरी मे भरना ही था। पहली बात अस्पताल या मुर्दाघरो मे लोग रोजाना लाश देखते हैं तो उनके लिए यह एज युजुअल है। उनके या मेडिकल साइंस के लिए वह मृत शरीर  लाश नही बल्कि सिर्फ एक मैटर है, वस्तु है, उसके प्रति वह संवेदना क्यों दिखाएगा?हमारे लिए जो संवेदना या भावना से जुड़ा है उनके रोजमर्रा का कार्य है। उनसे मानवीयता की अपेक्षा मात्र की जा सकती है पर यहां भी वही प्रश्न आता है कि ऐम्बुलेंस क्यों नही आया? संभावनायें  कुछ भी हो सकती है? हमें कभी भी एक पक्षीय नही होना चाहिये!  यहां यह मतलब कदापि नही है कि दाना मांझी या उस अनजान लाश के साथ गलत नही हुआ, पर तस्वीर का दुसरा पहलू भी होता है!

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