कांवरिया तो इक बहाना है......

आदरणीय श्री राजकपूर साहब ने बहुत पहले एक अद्भूत उपदेश दिया था"" ऐ भाई ! जरा देख के चलो! आगे ही नही पीछे भी! दांये ही नही बांये भी ! तभी से रोड सेफ्टी नियम लागू हुआ और देश बांये तरफ यानि सोवियत रुस के साथ चलने लगा था। इसीलिए राजकपूर जी वहां काफी लोकप्रिय रहे हैं।परंतु समय बीतने साथ साथ बांये तरफ की रोड धंसने लगी, लोड ज्यादा हो गया था! इससे बचकर लोग बीच मे चलने लगे, गुटनिरपेक्षवादी हो गये। बाद मे आकर दाहिने पथ पर भीड़ बढने लगी है और फैशन भी बढा है।शक्ति संतुलन प्रकृति का नियम है। दांया पक्ष शक्ति का प्रतीक है, बलशाली पक्ष है परंतु इसका असर यह हुआ कि  बांये चलनेवालो को लगने लगा है कि राजनीति मे भक्तिकाल का पुनरागमन हो गया है तबसे वाकई मे  परिदृश्य कुछ बदला बदला सा दिख रहा है। दक्षिण पंथी भक्ति औऱ भक्तों का क्या कहना ,वे तो सोंटा और रस्सी लेके हमेशा पिले रहते ही है कि अब कोई मिला तो धर लो।  काफी दिनो के बाद शक्ति हाथों मे आई है!यदि कोई उन भगवा वेशी कांवरियो पर कुछ बोल देता है जो राष्ट्रीय राजमार्ग पर कब्जा कर लेते है और कुछ उत्साही नवजवान  तो लगे हाथ जज, पुलिस और प्रशासन पर भी अपना हाथ साफ करने लगते हैं। तो क्या हुआ जो थोड़ी बहुत अराजकता हो गई, शिवजी के बारात मे तो भूत,प्रेत, पिशाच ,जानवर सभी गये थे,  तो ये  क्यों नही जा सकते? ये बेकार या बेरोजगार नही है, जैसा एक खुद बेरोजगार नेता ने कटाक्ष कर दिया है।बल्कि ये तो कर्मठ और लगन शील हैं, पचास से सौ किलोमीटर तक डीजे की धुन पर गाते- नाचते चलना कोई आसान काम है?हाल मे एक महान अर्थशास्त्री ने कांवरिया उद्योग का आर्थिक विश्लेषण किया और इसे लगभग पांच सौ करोड़ का सालाना उद्योग कहा है! कांवर, कपड़ा ,ड्रेस कोड ,बैग, प्रसाद, खाना पीना, डीजे, ट्रैक्टर ट्राली, बस आदि से लाखो का रोजगार सृजन होता है।इसे तो और प्रोत्साहित करने की जरूरत है!वैसे क्या हज करने वालो की संख्या नही बढी है?क्या ताजियो की उंचाई और भव्यता नही बढ गई है? बल्कि सभी धर्मो मे संवेदनशीलता और कट्टरता बढी है! तो क्या हुआ जो इसके लिए स्कूल बंद करने पर रहे है, एक घंटे का सफर चार घंटा मे पूरा कर रहे हैं ,आस्था का सवाल है ,सभी को उसको मानने और प्रदर्शित करने का हक है। क्या हुआ जो मुहर्रम के जुलूस और ईद की नमाज के वक्त रोड डायवर्जन हो जाता है या होली मे हुड़दंगी रास्तो पर पकड़ पकड़ कर कीचड़, मिट्टी और रंग डालते हैं? भई स्वतंत्रता है, स्वतंत्र देश है। कुछ भी करें।स्वतंत्रता तो इतनी है कि कुछ भी बोलें ,कहें, देश को टुकड़े करने की धमकी दे दें, किसी पार्ट को आजादी देने की मांग करें, देशद्रोह नही होता। विचारो की आजादी -मतलब कुछ भी। सारा जहां हमारा! राज्य नामक संस्था इनके सामने कुछ नही। खैर छोड़िए इन बातो को वो साहब नाराज हो जायेंगे और नुक्कड़ सभायें चालू हो जायेंगी।कहने लगेंगे "लड़ के लेंगे आजादी" । हो सकता है आइ एस आइ एस को ही अपनी आजादी के लिए आमंत्रण दे बैठें। देश का इतिहास भी रहा है ऐसा!आजादी का यह आलम है कि हम किसी को भी सरेराह डंडा मारना शुरू कर देते है जैसे देश को बचाने को ,गाय को बचाने को हमने कानून अपने हाथो मे ले रखा है?देशभक्ति, राष्ट्रवाद, अराजकतावाद जैसे पर्याय हो गये हों।कानून का डंडा अपने हाथों मे छीनने का शगल बढ गया है! हम तो ऐसे नागरिक है कि  जितना वेतन बढता जाए हमे उसे और बढ़वाने के लिए धरना प्रदर्शन रोड जाम का अधिकार है ,मांगने मे कोई कमी नही होनी चाहिए, भले हम काम कुछ भी न करते हों! हमने राजधानी  के मुख्य सड़क को तो धरना प्रदर्शनों से तो बंधक ही बना लिया है। हां तो हम चर्चा कर रहे थे, लटकन और झंडूबाम लोगों  के बारे मे जिनका हाल भी कम दिलचस्प नहीं है।ये भी ताड़ते रहते है कि जहाँ कहीं किसी स्टेटमेंट मे भक्ति का स्कोप नजर आया, भक्तों मे कैटेगराइजेशन करके बकैती चालू! तो जो राजाजी कहें वही सही! बाकी सब ढकोसला!कांवरिया तो एक बहाना है, कष्ट हरेक चीज से है उन्हे। देश का माहौल थोड़ा थोड़ा केसरिया हो गया है। कांवरियो ने जबसे तिरंगा झंडा हाथ मे थामा, भाई लोगो का दिल बैठना चालू। उसमे भी कलर ब्लाइंडनेस हो गया है।रंगो का भी ध्रुवीकरण हो गया, जाति, धर्म पार्टी ,वाद की तरह रंग भी बंट गया। तुम्हारा रंग हमारे रंग से बेहतर कैसे? भक्त तो भगवान मे लीन होता है, उसमे रंगो की व्याधि कैसी? तो भक्तों से पीडि़तो, अपने मुखार विन्दु से आलोचना रुपी रस प्रवाहित करते रहे और भक्तों को भक्ति रस पान करने देते रहे। सभी सत्ता  और वर्चस्व की लडाई है,सोच-विचारों का संग्राम है जो युग युगांतर से सतत गतिशील है,कोई भी इसे दिल पर ना लें ।किसी भी साइड चलिए लेफ्ट या राइट  बस एक्सीडेंट न होने दीजिए। वाद के पुराने गढो मे घुसपैठ तो शुरू हो ही गयी है, चाहे इसमे अच्छे स्कोप को देखकर भीड़ बढी हो या रियेक्शनरी ईफेक्ट! परंतु मनोरंजन पर्याप्त है, इस उठापटक और जुबानी जंग मे, दर्शकों के लिए,प्रेस, मीडिया की टी आर पी बढाने मे, सूरत चमकाने मे, प्राइम टाइम बुझाने मे,अंधकार का दिया जलाने मे, गला फाड़ चिल्लाने मे।  बस  कोई साइड मत पकडि़ए। लटकने वालों के लिए तो बस-ट्रक के पीछे लिखा ही होता है--लटकले त गेले बेटा !

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