मर्दो की नंगई


जाते हुए साल की मध्य रात्रि ने बंगलौर मे मर्दो की नंगई  का खुल्ला खेल फर्रूखाबादी देखा।ऐसे मे इनकी नंगई ,नंगे जिस्म और मन की चर्चा लाजिमी है।कहा जाता है कि " नंगे इंसान से तो भगवान भी डरते हैं"! इन नंगे मर्दों से तो समाज और ईश्वर दोनो डरते हैं, इनकी भी बदनामी तो हो रही है!" "दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन मे समाई ,काहे को दुनिया बनाई!"लेकिन इसी मे है,स्त्री शरीर और उस पर उसका अधिकार, नो कहने का अधिकार, जिस्म प्रदर्शन का अधिकार जो सिर्फ विमर्श की वस्तु बनकर रह गया है । प्रत्येक ऐसी घटना के बाद बड़ी तेजी से मीडिया और समाज मे छा जाता है और जल्द ही हम इसे भूल भी जाते है।इन घटनाओं का कारण लड़कियों का जिस्म प्रदर्शन नहीं, केवल पुरुष की नंगी मानसिकता है कि वह श्रेष्ठ है,वेशभूषा के कारण नहीं होता बलात्कार | यदि नंगेपन से बलात्कार होता तो मर्दों के साथ गांवो शहरों मे कबसे होता आया होता। घर मे भी कच्छे, हाफपैंट, बनियान या नंगे बदन घूमने का लाइसेंस तो लड़कों और मर्दों को काफी पहले से मिला हुआ है।बलात्कार या छेड़खानी का सीधा संबंध सत्ताविमर्श से है, बलात्कार या छेड़खानी का संबंध सत्ता और वर्चस्व से है। बलात्कारी स्वयं को शिकारी मानता है जिसका उद्देश्य अपने शिकार के शरीर पर जबर्दस्ती कब्जा करके उस पर अपनी सत्ता और वर्चस्व कायम करना है, उसकी अस्मिता को अपमानित करके उसके व्यक्तित्व को कुचलना है, और इस तरह बलपूर्वक अपनी श्रेष्ठता को स्थापित करना है। कहते हैं" दुनिया भर से मार खाकर या हारकर आया मर्द अपना फ्रस्टेशन और खीज घर आकर निकालता है। घरेलू हिंसा या कमजोर पर बलप्रयोग करता है।इसका संबंध उस पुरातनपंथी दकियानूसी पितृसत्तात्मक मानसिकता से है जो स्त्री को पुरुष के सामने दीन हीन, बेबस और लाचार ही देखना चाहती है,जिसके लिए स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व ही उसके दुश्चरित्र होने यानि हरेक के लिए सुलभ होने का सुबूत है।जहाँ तक स्त्री देह प्रदर्शन की बात है तो समाज मे मर्द ही हमेशा से देह व सौष्ठव प्रदर्शित करता आया है। दारा सिंह और " मैचोमैन" धरम जी काफी पहले से अपने उपरी वस्त्र खोलते आये हैं। सलमान खान तो अपनी हरेक फिल्म मे नंगा बदन जरूर होते हैं पर जो नंगापन आमिर खान ने पी के मे दिखाया वो अभूतपूर्व था।लेकिन आमिर खान के नंगे होने पर इतनी हाय तौबा मची थी कि महाभारत में द्रौपदी के चीर हरण पर भी इतना बवाल नहीं मचा होगा, हालांकि उस काल मे भी दुर्योधन के न्युड होने के दृष्टांत है। यहाँ पीके ने रेडियो से लाज बचायी थी तो वहाँ दुर्योधन ने केले के पत्ते से। ये अलग बात है कि उसी केले के पत्ते ने ऊसकी जान ले ली।तो जो नारीवादी सेक्शन अपने नंगेपन के अधिकार को बनाये रखने के लिए बड़ी खूबसूरती से मर्दो को पानी पी-पी के कोसती थी पीके ने उनके लिए आदर्श पुरुष है जो उनका देह उनका अधिकार वाद को समर्थन देता है। हालाँकि कई अन्य फिल्मों मे भी मेल स्ट्रिपर आये हैं, जो लड़कियों की पार्टी मे " बार बालक" सदृश कार्य करते हैं।. लड़कियों की तरह पुरुष भी अब आइटम हो गए। आइटम के तौर पर बिहार युपी में पहले लौंडा डांस हुआ करता था।दूर्गा पूजा मे होने वाले नाटकों के दृश्य अंतराल मे लौडा डांस या नचनिया का नाच अवश्य होता था। लोग नाटक मे जितना इंट्रेस्ट नही लेते थे जितना इस डांस और नाटकों मे स्त्री पात्र करने वाले चिकने गोरे लड़कों को देखने मे लेते थे।गैंग्स ऑफ़ वासेपुर का आर्केस्ट्रा का गाना देखिये, पूरा पैसा वसूल हो जायेगा।मेडिकल- इंजीनियरिंग कॉलेज में रैंगिंग में तो हॉस्टल में तो जूनियरों की नंगो की परेड ऐसे कराई जाती है जैसे कुम्भ मेले में नंग-धड़ंग नागा सन्यासी बवाल करते हुए शाही स्नान के लिए जा रहे हो। जिन्होंने रैगिंग न देखी हो उन्हें मुन्ना भाई एमबीबीएस जरूर याद होगी, क्यों नही हम भारतीय फिलीम बहुत देखते हैं। नोटबदी मे भले पैसा कहीं नही मिला और चारों तरफ हाहाकार मचा रहा पर " दंगल" ने चार सौ करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया। वैसे इस फिलिम का पंचलाइन" म्हारी छोरियां छोरो से कम हैं क्या" हौसला आफजाई करता है।तो  हमाम में सब नंगे होते है पर असली नंगे तो वो है जो रास्ते में घूर-घूर कर लड़कियों को ऐसे देखते है जैसे आँखों में एक्सरे मशीन लगी हो।अश्लीलता आंखों मे छुपी होती है, देखने वालों की सोच मे होती है। जिस देश में मां काली की जो तस्वीर नरमुंडों की माला के साथ रहती है, क्या उसे भी आप अश्लील कहेंगे ? नहीं, क्योंकि मां चाहे जैसी भी हो, मां है, वह तो पूजनीया है। यह तो देखने वाले की आंख में है कि वह क्या देखता है. आप शिवलिंग के बारे में क्या कहेंगे?  इसे तो हम कभी भी अश्लील नहीं मानते।आखिर क्यों भारत जैसे परंपरावादी देश से लेकर न्यूयॉर्क या वियना जैसे आधुनिक विकसित शहरों में भी न्यूड मेल की फोटो या कलाकृतियों पर हंगामा होता है? अगर स्त्री देह का प्रदर्शन कला है, तो पुरुष देह का ठीक उसी तरह से प्रदर्शन अश्लीलता कैसे है? दरअसल, स्त्री की देह को घर और बाजार से लेकर कला की दुनिया तक में संस्कृति और कला के नाम पर परोस कर एक प्रॉडक्ट बनाए रखा गया है।पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष की देह की मार्केट वैल्यू उतनी नहीं है, जितनी कि स्त्री देह की है। सेक्सवर्क के जरिये भी स्त्री सबलीकरण की राह पर चल सकती है? वो हमेशा सेक्सवर्क ही करती है भले ही वह अपनी दैहिक संतुष्टि के लिए करे, प्रेम के तहत करे, प्रजनन के लिए करे, विवाहिता के रूप में करे, चाहे प्रेमिका के रूप में, वह मुफ्त का वर्क है। दिन भर गाली-गलौज और मारपीट करनेवाले निम्न आयवर्ग के पति से लेकर, सारा दिन घमंड में चूर रहकर पत्नी से सीधे मुंह बात तक न करनेवाले अमीर पति तक रात में शयनकक्ष में स्त्री को यौनदासी के रूप में इस्तेमाल करते हैं।ऐसे पति, पत्नी को बेवफा और बदचलन बताते हैं पर उन्हें घर छोड़कर जाने भी नहीं देते। स्त्री शरीर उनके रोजाना उपयोग की चीज बनी रहती है।मनोवैज्ञानिक कहते हैं भागमदौड़ और अतिमहात्वाकांक्षा के इस जीवन मे फ्रस्टेशन और असफलता से गुजर रहे पुरुष को अपनी मर्दानगी दिखाने के लिए औरत ही मिलती है जिसे दबोचकर वह अपनी अहंतुष्टि करता है। पिंक फिल्म मे एक डायलाग है " मार्डन सी दिखने वाली लड़की के बारे मे एक सामान्य सी धारणा है कि वो इजली एवलेवल है, उसे हाथ लगाओ तो वो ना नही कहेगी और उसके नो का मतलब हाँ होता है।"वास्तव मे काउंसलिंग होनी चाहिए मर्द की क्योंकि वो बिमार है न कि पीड़िता की।" सही माने तो लड़कों की इज्जत दांव पर है, वो बदनाम हो रहे हैं, उनके नाम के साथ बलात्कारी शब्द चिपक रहा है।तो तन की नंगई  को ढंकने से ज्यादा जरूरी है मन की नंगई रोकने की।

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