नान रेजिडेंट ग्रामीण

ये पत्थरों के जंगल है न जो धीरे धीरे गांव और भदेशपना को लीलते जा रहे हैं।जैसे जैसे गांव व गंवईपन खत्म होता जा रहा है और शहरी कल्चर ने अपनी हनक बनाते हुए उन्हें शहरों मे बदल दिया है, हम प्रकृति और अपनी जड़ो से दूर होते गए।" जंगलों से निकलकर आदमी बने हम फिर से इन जंगलों मे बसते जा रहे हैं जहाँ इंसान बनने के बजाय हम फिर से जानवर बनते जा रहे हैं।यहाँ जंगली कानून, समाज का अभाव, व्यक्ति वाद, स्वार्थ, कुटिलता, हिंसा की भरमार है।हम पहले नंगे थे ,आदमी बनकर कपड़े पहनना सीखे और अब फिर से नंगेपन की ओर लौट रहे हैं।" डेरा" तब बना था जब हम ट्रांजिसन फेज मे थे और अपने गांव से हम कटे नही थे पर नयी जेनरेशन तो इन डेरों को ही अपना घर समझती है। एक नया शहरी जेनरेशन आज गांव, कुंआ,हल,-बैल, बैलगाडी, खडाऊं, भिति चित्र, ढेंकी, जांता(हाथ चक्की),भोजपत्र एवं केले के पत्ते पर खाना, बघाडी,आम के पल्लव,चौकी-पीढी पर बैठ कर खाना इत्यादि से अनजान है और इसको नव मार्केटिंग कल्चर के सहारे जानने की कोशिश कर रहा है।आज शहरी स्कूलों मे बच्चों को गांव जानने के लिए भेजा जाता है जैसे अमेरिकन बच्चे भारत को या अफ्रीकी देशों को देखने जाते हैं।कहते हैं दुनिया गोल है और हम सब चक्र मे चलते हैं। यदि आदिम अवस्था से चले हैं तो कभी न कभी फिर से वापस वहीं पहुचेंगे। हां संभव है स्वरूप बदला हुआ हो।एक वर्ग जितनी तेजी से शहरी कल्चर की ओर भाग रहा है, वहीं दूसरा शहरी वर्ग कला ग्राम, बाटी चोखा रेस्टोरेंट, ग्रामोत्सव आदि के जरिये उस सादगी और प्रकृति की ओर लौटने हेतु आकर्षित हो रहा है।ये शहरों मे ग्रामीण माहौल पैदा कर उसको बेचने की कोशिश भर है, फिर भी थोडी देर के लिए ही सही,हम अपने आपको शहरी ताम झाम,शोरगुल, अफरा तफरी, भागमदौड और पत्थरों के जंगल से दूर महसूस कर दिलों सुकून पाते हैं। ऐसे जगह, हमारे बच्चों के लिए पिकनिक स्पाट तो हम जैसे NRG(नान रेजिडेंट ग्रामीण) के लिए यादें ताजा करने का मौका देते हैं।इन जगहों पर समय बिताने मे लगा मंहगा खर्च , हमें बताता है कि हम जिस प्रकृति और गंवई भदेशपना को खोते जा रहे हैं ,उन्हें फिर से पाने के लिए बडी कीमत चुकानी होगी।आखिर हमें वहीं आना है पर जरा देर लगेगी। आखिरकार हम गावों को छोडकर क्यों भाग रहे हैं या गांवों को शहर बनाने पर क्यों तुले हैं या अपनी खेती बाड़ी का काम क्यों छोड़ रहे हैं। वास्तव मे एक किसान जो कि अनाज का उत्पादन करता है और शहरी डॉक्टर, इंजीनियर और प्रोफेसर को खिलाता है तो आशा करता है कि जब उसका बच्चा बीमार पड़े तो डॉक्टर उसे अपनी सर्वोत्तम सेवा दे, इंजीनियर बिजली सड़क और सिंचाई जैसे मूलभूत सुबिधायें प्रदान करे और शिक्षक उसके बच्चों को अच्छी शिक्षा दे | अर्थात जो जिसका काम है वो करे परंतु यदि कोई भी इसमें अपने को ज्यादा महत्वपूर्ण या दूसरे को तुच्छ समझने लगता है तो ये सामाजिक संरचना का ताना-बाना टूटने लगता है और आपसी विश्वास खत्म होने लगता है।इसी कारण से दूधवाला उसमे पानी मिलाता है, डॉक्टर किडनी निकालकर बेचता है, इंजीनियर कमजोर पुल- रोड बनाता है , टीचर स्कूल मे कम और कोचिंग मे ज्यादा ध्यान देता है और आफिसर अपनी अफसरीयत की नुमाइश करता है।फलत:किसान अपनी किसानी छोडकर अपने बच्चों को शहरी बनने और डाक्टर इंजीनियर आफिसर बनने को भेजता है। उसे महसूस होता है कि उसका काम तुच्छ है। चकाचौंध भरी जिंदगी और हाई फाई स्टेटस सबको आकर्षित करता है।ज्यादा सामाजिक व्यक्ति गंवार माना जाता है।गांव में लोग एक-दूसरे की काफी मदद करते हैं और काफी अपनापन दिखाते हैं|वहीँ शहर में सभी, अपने आप से मतलब रखते हैं और इसमें अपार्टमेंट कल्चर तो चरम पर है|शहरी लोग गॉव वालों को बेवकूफ और गंवार समझते हैं, लेकिन वो लोग गंवार नहीं भोले होते हैं| जबकि शहरी, मतलबी और शातिर; हर वक्त अपना फायदा देखने वाले होते हैं| शहरी लोग, जब गांव जाते हैं तो वहीँ रम जाते हैं । वही लोग, किसी वहां की चोट खाए को मदद करते भी सबसे पहले नजर आएंगे; नहीं तो शहर में तो किसी को धक्का लग जाए तो दूसरी गाड़ी से आते लोग देखते हुए अफसोस जताते आगे बढ़ जाते हैं| कोई लाचार की मदद को आगे भी नहीं आता|वही भदेशी गंवार ग्रामीण, सबसे आगे बढकर हेल्प करते हैं। लेकिन "शहरी कूल डूड " को अपने स्वार्थ के आगे कुछ दिखता ही नहीं, न  तो किसी के मदद की पुकार और ना ही किसी दुर्घटना से जूझ रहा इंसान|  लेकिन जब भी बात गांव की होती है तो हम उन्हें गवांर कह कर संबोधित करते हैं और एक बेशर्मी भरी मुस्कान के साथ आगे बढ़ जाते हैं|गांव और शहर के बीच का सबसे बड़ा फर्क वहां के रिश्तों के बीच की बची गर्माहट ही तो है जो तमाम दिक्कतों के बावजूद हमें गांवो कि ना सिर्फ याद दिलाती है बल्कि वहां जाने को भी बाध्य करती हैं।आखिर दादा-दादी और काका काकी वहीं तो रहते हैं क्योंकि ज्वाइंट फैमिली आज भी वहां की हक़ीकत है। शहर में भले ही चतुर्दिक मॉल, फैशन शो और मल्टिप्लेक्सों का साम्राज्य है पर गांव के मेले में ‘बांसुरी वाले’ के द्वारा बजायी जा रही वो मीठी धुन," बाइस्कोप" पर पिक्चर देखना, आंखों मे प्लास्टिक का रंग बिरंगे चश्मे, खाने को " खूरमा, बड़ी, मुढी घुघनी,कचरी, बचका, जिलेबी आज भी सबसे ज्यादा मिस की जाती है और बाबूजी और दादाजी का वो कंधा, जहां बैठ के बच्चे आज भी खुद को किसी लाट-साहब से कम नहीं समझते हैं ।दोस्ती कहीं की भी हो पर हम एन आर जी की " लंगोटिया यारी" के जलवे अद्भुत और अप्रतिम है। भले ही हम इन उंची अट्टलिकाओं के बीच कहीं गुम हो गये हैं पर अपनी पहचान और " साड्डा दिल" तो उसी ताल तलैयो , बरगद के पेड़ ,आम की गाछी पर टंगे झूलों और लंगोटिया यारों के बीच कहीं हिलोरे मार रहा है। हम तन से तो शहरी बन गये पर गांव अंतर्मन मे कहीं इस कदर घुल मिल गया है कि कितना भी चाऊमिन, पिज्जा, मैगी, डोसा और बर्गर खालें ,आत्मा अतृप्त ही रहती है जबतक गोलगप्पे न खालें।हम ऐसी जेनरेशन हैं जो शहरी होकर भी शहरी नही है--नान रेजिडेंट ग्रामीण ।

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