बुक शेल्फ एक स्टेटस सिम्बल है

आमेजनी, फ्लिपकार्टी और स्नैपडीलाइट होना एक मजबूरी तो है ही, स्टेट्स सिम्बल भी बन गया है। जब कूरियर वाला बार बार घर का बेल बजाता है तो शान से बाहर निकलते हैं  और इधर उधर झांक कर देखते भी हैं कि सब देख भी लें!अरे! कोई देखेगा तो ही जानेगा कि हम आनलाइन शापिंग करनेवाले कैटेगरी से बिलांग करते हैं।मेला - फेयर जानेवाले वो बचपन और चढती जवानी के दिन बीत गये ,अब तो समय की किल्लत और पैसे की बचत ही प्रायरिटी है।बचपन मे बाबूजी के कंधे पर चढकर और भैया की अगुली पकड़कर बहुत मेला घूमा और जवानी मे फिरंटी ,लफंदड़ी , आंख सेंकने और ताड़ने के लिए सब टाइप के मेलों मे अपनी उपस्थिति दर्ज कराते थे। इसकी प्लानिंग पहले ही हो जाती थी पर खरचने के पैसे न होते थे।आज पैसे हैं तो समय नही है और थोड़ी कंजूसी भी आ गई है, सोच समझकर खरचता हूं। सेल, बंपर छुट, धमाका सदृश आफर  हेतु नैना और कान सजग और सतर्क रहते हैं।तो मेले  मे बुक स्टाल पर छुट वुट लेने का तकल्लुफ कौन करे? यहाँ तो वो पहले ही बता देते हैं कि कितना कम है।फिर मेला वेला जाकर किताबें खरीदने की जहमत कौन उठावे, जब अच्छे कमीशन और छूट पर ये आनलाइनी जीव घर पर पहुंचा देते हैं।  हां! साहित्य जीवी बंधुगण वहाँ जरुर पहुंचते हैं, इससे उनको औकात पता चलता है कौन कितने पानी मे है, किसके पीछे कितने लोग आटोग्राफ लेने पड़े हैं या फोटू खिंचाने के लिए लगे हैं। अपनी अपनी कविता पाठ, किताबों का चटाखेदार अंश को हाइलाइट करके बिक्री प्रोमोट करते हैं।भीड़ तो इस तरह फेयर मे अंग्रेज़ी स्टाल के उस सेक्शन मे होता है जो सेकंड हैंड बुक्स को औने पौने दाम मे बेचते होते हैं। उन यंग और लव बर्डस के लिए जो मिल्स एंड बून्स सदृश पुस्तकों के तलाश मे रहते हैं या जिन्हें रेलगाड़ी, बसो या कालेजों मे अंग्रेजी बुक्स दिखा कर इंप्रेशन मारने की आदत होती है वो इसको बिना सोचे समझे थोक के भाव खरीदते हैं। कई सेल्फियांट टाइप लोग इन स्टालो के पास सेल्फिया भी लेते है ताकि सनद रहे।  बाकी हमलोग टाइप भी हैं जो किताबों का शौक तो रखते हैं पर पढने के लिए नही, इंप्रेशन जमाने के लिए ड्राइंग रुम मे शीशेदार बड़ा सा बुक शेल्फ बनाये हैं। भेरायटी के बुक्स रखने से आगंतुको के सामने बहु विधा विशेषज्ञ और बुद्दिजीवी होने का सर्टिफिकेट भी मिल जाता है। कभी कभी तो आमेजनवाला डिलीवरी दिया कि उन किताबों को करीने से सजाकर फोटूआ खैंच के फेसबुकिया भी देते हैं। इसके दो साइड इफेक्ट है, कुछ तो टेंशनिया जाते हैं कि अरे! इसके पास फलानां किताब आ गया,बस वो भी उसी समय आनलाइन बुकियाने लगता है! भला उसके शेल्फ मे क्यों न लगे! वो मुझसे पहले कैसे रिव्यु मारेगा? और कुछ फटाफट लाइक्स और कमेंट गिटपिटाने लगते हैं! वाह! भैया आप तो बड़े पढाकू हैं,कैसे आप समय निकाल लेते हैं, इतना पढते हैं आप कब लिखेंगे? फलाना- ढेमाका! इसका लाभ नव लेखकों को भी हो रहा है! अपना विज्ञापन फेसबुक पर चालू! उसकी किताब लेकर कितने लोग" बुकेल्फियाते" हैं। कई को तो हमारी तरह फेसबुक और आनलाइन शापिंग देखकर ही लिखने का शौक चर्राया है। अब वो दिन लद गये जब साहित्यिक गोष्ठीऔर  कवि सम्मेलन मे गुणीजन अपनी छुपी प्रतिभा का प्रदर्शन करते थे ,अबतो सबकुछ आनलाइन है।जिस तरह से सोशल मीडिया ने नव लेखकों की जमात पैदा कर दी है कि संभव है जुकरबर्ग जी महाराज इन लेखकों की कृति मे अपना कापीराइट मांगने लगें, आखिर कई कहानियों ने जन्म भी यहीं लिया है ना! तो उनका शेयर तो बनता ही है। तो अपना स्टेटस सिंबल बढाइये ,इन नव लेखकों के लेखन से ,क्योंकि नयी पीढी प्रेमचंद, बंकिमचंद्र, शरतचंद्र और अज्ञेय को नही जानती और समझती है, उसे या तो अंग्रेजी लेखक समझ मे आते हैं या वो जो सोशल मीडिया मे छाये हैं। पापुलर बुक्स शेल्फ मे रखना और उसपर बहस करना स्टेट्स सिम्बल बन गया है।

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