फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी

"परदेश जाके परदेशिया ,भूल न जाना पिया" पहले के गाने कितने सुरीले और ह्रदय स्पर्शी होते थे।मां बाप और अपनी पत्नी बच्चों को गांव मे छोड़कर परदेश जाना, रुपया पैसा कमाना और साल - दो साल पर वापस आना ,ये भारतीय गांवों का चलन था। उस समय परदेश का मतलब विदेश नही बल्कि अपने जिला जवार, राज्य से दूर जाना होता था। चिठ्ठी पतरी का जमाना था!" जाते हो परदेश पिया, जाते ही खत लिखना!"कहीं पहुंचने के सप्ताह दस दिन बाद खबर आती थी  कि सकुशल पहुंच गये हैं। गांवो मे सुनते थे कि  पहले हाईकोर्ट कलकत्ता हुआ करता था तो जब कोई केस लड़ना होता था तो लोग बाग सतुआ गुड़ और चूड़ा की मोटरी बांधकर पैदल या बैलगाड़ी से निकलते थे और महीनों बाद लौटते थे, उनकी खोज खबर भी महीनों नही मिलती थी। " नाम" फिल्म का गाना" चिठ्ठी आई है" शायद चिठ्ठी पतरी के संबंध मे अंतिम गीत था जिसमे गीतकार ने उसकाल के समाज, परिवार, संवेदना, भावना के संबंध मे कलम तोड़कर लिख दिया है। " अपने घर मे भी है रोटी" शायद नही है या हमारी महात्वाकांक्षा और "स्काई इज द लिमिट" वाली सोच ने अपनी जड़ो से दूर जाने पर मजबूर कर दिया है।या यूं कहें कि पापी पेट का सवाल है, नही तो परदेसी  बनकर जीना कौन चाहता होगा! संचार तंत्र एवं परिवहन सुविधाओं के विकास ने दूरियां कम कर दी है और शहर- नगर कास्मोपोलिटन बन गये हैं। आज हरेक समाज, क्षेत्र, भाषा बोली और संस्कृति के लोग सभी जगह मिलने लगे हैं फिर भी अपना भदेशी कहीं कोई मिल जाये तो वो आत्मिक सुख और खुशी मिलती है कि दिल गार्डन -गार्डन हो जाता है।अपनी जन्मभूमि, अपने गांव से दूर आपको सब आपके कार्य, पद, व्यवसाय से जानते हैं।यहाँ लोग आपको नाम से नहीं पद से जानते हैं। सारे संबंध पद व आपके अधिकार से जुडे हैं।जिस दिन कुर्सी नीचे से हटी, बेगाने हो जाते हैं।नेम प्लेट हटते ही वफादारी हट जाती है।"आइना वही रहता है, चेहरे बदल जाते हैं"।गफलत मे जो रहते हैं कि यह मेरा है, यह तेरा है, कुछ नही सब माया है।जो हम देखते हैं वो धोखा है,सत्य का अहसास कुर्सी से हटने के बाद होता है ,तब लगता है कि अपने तो वहीं पीछे छुट गए, जहाँ पेट पालने के लिए हम छोड़ आए थे।जहाँ उसे लोग उसके, उसके बाप-दादा के नाम से जानते थे जो कभी खत्म नही होता है। जब आप अपने व्यवसाय या पद से हट जाते हैं तो  अब यहाँ भी उसकी वो जगह नहीं है क्योंकि समय बदला, जेनरेशन बदली, लोग बदले, अनजान चेहरे उसकी पहचान पूछने लगते हैं।जिस परदेश को जीवन के बहुमूल्य  तीस पैंतीस साल दिए,उसको अपनाता नहीं और जहाँ जन्मभूमि है ,वहाँ रह सकता नही। त्रिशंकू की स्थिति है हम जैसो की।पर क्या करें पापी पेट का सवाल है। परदेशी होना तब फील होता है जब  हमसे मज़ाक में कहा जाता है कि वो पानवाले ,सब्जी वाले और रिक्शे वाले भईया जैसे बोलते हैं वैसे बोल कर दिखाओ न!,फिर कहते, "यू  पीपुल आर वेरी टैलंटेड एंड फ़नी" और हमको उनके इस कॉम्पलिमेंट में छुपे कमेंट का पता होता है,मगर हम मुस्कुरा कर रह जाते हैं। आप तब अपने देश मे परदेशी फील करते हैं जब दिल्ली मे बाहरी लोगो को " बिहारी, चिंकी ,पंजाबी,और साउथ इंडियन"  मे कैटेगराईज किया जाता है या मुंबई मे " पुरबिया लोगों को " भैया" बोलते हैं या तमिलनाडु मे " हिन्दी भाषियो" को धिक्कार भरी नजर दी जाती है। अरे! क्षेत्र के नाम से संबोधित करने मे क्या हर्ज है, प्राब्लम तो तो उस पुकारने के पीछे छुपे, हिकारत, घृणा, धिक्कार और मजाक से है। लेकिन यहाँ हमारी सोच भी तंग हो चुकी है, यदि हम बिहारी को बिहारी नही तो क्या पंजाबी बोलेंगे? इसमें क्यों हमें अपमान लगता है? जब हम कहते हैं " एक बिहारी सबपर भारी " तब तो बडा अच्छा लगता है ,तो दूसरों के कहे जाने पर एतराज क्यों? " हम  कहे  तो  बड  अच्छा, और कहे तो मारब  लाठी" ! दर असल " चिंकी" कहकर हम नार्थ ईस्ट के लोगों और " भैया "  के  रूप  मे पुरबिया  लोगो के सामान्यीकरण की आदत जो है ,वो गलत है।"  सब  धान  साढे  बाइस  पसेरी  "  नही  होता  ! सारे 'सॉउथ-इण्डियनस' जैसा कि मध्य-प्रदेश से ऊपर की राज्यों में रहने वाले लोग महाराष्ट्र के नीचे रहने वाले लोगों को बुलाते हैं, अपने एेक्सेंट, टोन, बोली से बोलते हैं,। पंजाबी' अपने और बाकी  सारे राज्यों के लोग भी अपने ऐक्सेन्ट और टोन में ही बोलते हैं और वो इस चीज़ को लेकर शर्मिंदा महसूस नहीं करते। " अपनी बोली, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति "पर सबको गर्व होना चाहिए।" फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी

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