विद्या के लिए जेब मे रुपया जरूरी है

 अभी हाल मे माननीय उच्चतम न्यायालय ने निजी विद्यालयों मे फीस वृद्धि पर रोक लगाते हुए निर्णय दिया है कि यदि फीस बढानी है तो पहले सरकार द्वारा दी गई जमीन खाली करें। यह अत्यंत कड़ी टिप्पणी है स्कूलों के बढते धुंआधार फीस और मनमानी लूट पर।वस्तुतः  व्यापारीकरण, व्यवसायीकरण तथा निजीकरण ने शिक्षा क्षेत्र को अपनी जकड़ में ले लिया है। मण्डी में शिक्षा क्रय-विक्रय की वस्तु बनती जा रही है। इसे बाजार में निश्चित शुल्क से अधिक धन देकर खरीदा जा सकता है। फलत:शिक्षा में एक भिन्न प्रकार की जाति प्रथा जन्म ले रही है।संस्थाओं से उपाधिधारी शिक्षकों में विद्यार्थी, विषय, व्यवसाय समाज के प्रति प्रतिबध्दता न होने के कारण आज विद्यालयों में शिक्षा की परिभाषा को दो शब्दों में बन्द कर दिया गया है- ठूंसना और उंडेलना।ये जो कान्वेन्ट स्कूल है ,ये बच्चों को शिक्षा दे रहे हैं या बेच रहे हैं?पूरा का पूरा गैंग बना है, स्कूल, पुस्तक प्रकाशक, पुस्तक विक्रेता, बस- वैन मालिक, गारमेन्ट शाप, ट्युशन- कोचिंग इंस्टीट्यूट।धंधा है पर गंदा है ये।बच्चों के मां-बाप की सारी कमाई चूषक पंप लगाकर निकाल रहे हैं, ये विद्यालय वाले।ऐसे लोग इस धंधे मे है, जिनका शिक्षा से दूर दूर तक वास्ता नहीं है। ये स्कूल पब्लिक स्कूल जरूर हैं लेकिन ये पब्लिक के लिए हैं नहीं, आम लोगों को इन शानदार स्कूलों से दूर ही रखा गया है, बस पब्लिक सिर्फ इनके नाम के साथ, और नाम के लिए ही जुड़ी हुई है। ये शहरी नक्सली हैं जो रीएडमीशन,सिक्युरिटी मनी, और फीस बढा कर ऐसा डायनामाईट लगाते हैं कि अभिभावक गण चारो खाने चित! कोई कंट्रोल नहीं है इनपर ।अब तो लगता है कि सरकार इलाहाबाद हाईकोर्ट का आदेश पालन करा दे, तो फुर्सत मिले और सरकारी स्कूलों के दिन फिरे ,साथ मे इन लुटेरों पर लगाम ! तबतक बच्चे कम ही अच्छे! शिक्षा विभाग के नियमों को ताक में रखकर संचालित निजी विद्यालयों में प्रवेश से लगाकर परीक्षा समाप्ति तक मुहमांगी फीस वसूल कर रहे है। फीस निर्धारण समिति के नियमों को धत्ता बताकर शहर में निजी विद्यालय संचालक मनमर्जी से फीस वसूल कर रहे है। निजी विद्यालय के पास पर्याप्त भवन नहीं होने के बाद भी अभिभावकों से छात्र को कम्प्यूटर सिखाने, स्वीमिंग सिखाने और खेल कुद प्रतियोगिता में प्रतिभागी बनाने के नाम जमकर लूट मचा रखी है। निजी विद्यालय संचालकों पर जिला प्रशासन व शिक्षा विभाग के अधिकारियों की मेहरबानी के चलते निजी स्कूलों में शिक्षा का स्तर भी दिनो-दिन गिरता ही जा रहा है।  विद्यार्थियों का प्राथमिक उद्देश्य विद्या का अर्जन तथा विद्यालयों का मुख्य उद्देश्य उसके अनुरूप वातावरण एवं व्यवस्था प्रदान करना होना चाहिए। शिक्षा का अर्थ है परीक्षा, अंक प्राप्ति, प्रतिस्पर्धा तथा व्यवसाय जिन को व्यवसाय नहीं मिलता ,बेरोजगारों की फौज तैयार हो रही है। शिक्षण संस्थाएं कुकरमुत्तों की तरह फैली हुई है। निजी शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के लिए संपन्न वर्ग के बच्चों में एक होड़ सी लगी हुई है। निजी शिक्षण संस्थानों के संचालक मनमर्जी की फीस वसूल कर रहे है।  आज शिक्षा केवल धनाड्य परिवारों के बच्चों की बपौती बनकर रह गई है, जिसके चलते इसके दुष्परिणाम भी सामने आने लगे है। कोटा शहर क्या है? कोचिंग का हब है! यहाँ लगभग संपूर्ण शहर की अर्थव्यवस्था कोचिंग और उससे जुड़े व्यवसाय पर आश्रित है। यहाँ क्या गरीब परिवार के बच्चे पढते हैं?सफलता का प्रतिशत इतना कम है कि फ्रस्टेशन मे आत्महत्या कर रहे हैं!यहाँ तक कि इलाहाबाद और दिल्ली के कई मुहल्लो की सारी जिंदगी इन तैयारी करने वाले लड़के लड़कियों के घर से आनेवाले रुपयों पर ही तो टिकी है।आई.ए.एस., आई.पी.एस. तथा अच्य उच्च श्रेणी की परिक्षाओं में गांवों के 10 प्रतिशत विद्यार्थी भी सफल नहीं हो पाते। आज शहरों के संपन्न परिवारों के नवयुवक उच्च सेवाओं में आ रहे है। उन्हें न तो गांव का ज्ञान होता है और न ही गांव के लोगों से किसी प्रकार की हमदर्दी।शिक्षा, शिक्षाकर्मी, ठेके पर रखे शिक्षक, गुरुजी अनेक शब्दों से यह आज विभूषित हैं। परन्तु उन्हें न शिक्षा से प्यार है और न लगाव । सरकारी स्कूलों की दुर्दशा ही ऐसे पब्लिक स्कूलों के कुकूरमूते की तरह उग आने के लिए जिम्मेदार हैं।इलाहाबाद हाइकोर्ट ने सत्य कहा था कि यदि सभी सरकारी अधिकारी व मंत्रियों के बच्चे यहाँ पढने लगे तो स्थिति सुधर जाएगी।जो दिखता है वो तो बिकता ही है लेकिन जो नहीं दिखता वो सबसे अधिक बिकता है ,जिसका सबसे बड़ा उदाहरण ईश्वर, आस्था और ज्ञान है। प्रत्येक मनुष्य का निर्माण सर्वप्रथम न दिखने वाले विषय के खरीदने से ही हुआ है जिसके लिए धन प्रत्येक घर से जाता है और जो आता है वह दिखता नहीं है जिसे शिक्षा कहते है।स्कूलों ने काली कमाई कर-करके नाक में दम कर दिया है। जो स्कूल कुछ साल पहले कुछ कमरों में चल रहा था वो आज एकड़ों में फैले कैम्पस और कई हजार बच्चों की स्ट्रेन्थ के साथ सिर उठाए खड़ा है और शहर के कई नामी-गिरामी लोग अपने बच्चों को वहाँ एडमिशन करवाने के लिए लाइन लगाकर खड़े हुए हैं। आखिर उनके बच्चे को वहाँ ऐसा क्या मिलने वाला है, पश्चिमी कल्चर और धड़ाधड़-फटाफट अंग्रेजी बोलने में पारंगतता ।ऐसे मॉं-बाप बड़ी तादाद में मिल जायेंगे जो अपने सामाजिक दायरों में बड़े गर्व से घोषणा करते हैं कि उनका बच्चा पन्द्रह हजार रूपये महीने की फीस वाले स्कूल में जा रहा है। उसका स्कूल और स्कूल बस वातानुकूलित है। उसके स्कूल में ताज होटल से दोपहर को लंच आता है। वो छुट्टी मनाने स्कूल की ट्रिप पर सिंगापुर जाता है। जब ऐसी सोच वाले मॉ-बाप हैं तो स्कूल चलाने वाले उनका आर्थिक दोहन क्यों न करें? ये तो राजी का सौदा है। जब मियॉं-बीबी राजी तो क्या करेगा काज़ी!कान्वेन्ट का प्रचलन क्या शहर , ये तो गांव गांव मे खुल गया है जहाँ अंग्रेज़ी पढाने के नाम पर गार्जियन का आर्थिक शोषण बड़ी तेजी से बढ़ा है।सब आधुनिकता और बाजार वाद की देन है जिसने हमें अंग्रेजी शिक्षा की ओर मजबूर कर दिया है।  ये बाजारवाद एक भारी जंगल है और इस जंगल में केवल पैसो के ही पेड़ उगाये जा रहे है और उन पैसो से फल खरीदे जा रहे है जिसमे अंततः केवल विनाश ही है। यहाँ जंगली जानवर के रुप मे धनपशु हैं जो जंगल न्याय मे विश्वास करते हैं। बड़ा और ताकतवर जीव छोटो का भक्षण करता है। यहाँ शिक्षा का कोई मोल नही है। तो कांवेन्ट रुपी बिजनेस माल मे जाइये और पैसा खर्च कर विद्या खरीदिये। यह अब आधुनिक मंदिर हैं जहाँ बिना चढावा के पुजारी भगवान को छुने को क्या दूर से देखने तक नही देता।

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