जिसकी लाठी उसकी भैंस

जंगल कानून और मत्स्य न्याय सिद्धांत आज भी प्रासंगिक है और सर्वमान्य है। सुरक्षा परिषद मे पांच देशों को वीटो पावर ? क्या यह "जिसकी लाठी उसकी भैंस" का प्रतीक नही है??जिसके पास वीटो है वो विश्व समाज को अपने हिसाब से चलायेंगे।दुनिया जानती है कि अजहर मसूद टेररिस्ट है पर चीन को नही दिखता क्योंकि उसे "पाकिस्तानी गलियारा" दिख रहा है। तो फिर कैसी समानता और कैसा समाजवाद ?हम सिर्फ प्रयास कर सकते हैं लेकिन वैसा विश्व, समाज बनाना असंभव है।संभव है आप इस सोच को पुरातन पंथी या निराशा वादी कहें ,परंतु यह ध्रुव सत्य है ! महाशक्तियो के दादागीरी को चुनौती कौन देगा? हम सिर्फ पिछलग्गु हो सकते हैं क्योंकि उनको वीटो जो मिला है। आपके किसी भी प्रस्ताव की ऐसी तैसी कर देंगे।पर वियतनाम , क्युबा इनको आईना दिखा चुका है।तेल पर कब्जे के चक्कर मे खाड़ी देशों मे इनका हस्तक्षेप हमेशा रहा है इस्लामिक संगठन से लड़ाई मानवता के लिए नही बल्कि तेल के कुंओं पर वर्चस्व की लड़ाई है। UNO इनका face saving करता रहा है।सुरक्षा परिषद मे वीटो क्यों है? क्या पूरे विश्व पर राज करेंगे? क्या यह पांच देशों के अन्य देशों पर सत्ता का परिचायक नही है? वस्तुतः भारत को स्थायी परिषद मे स्थायी सदस्यता की मांग नहीं बल्कि सबके वीटो पावर समाप्ति की मांग करनी चाहिए, तभी एक समान विश्व की परिकल्पना पूर्ण हो सकती है।".नो वीटो ओनली वोट! एक देश एक वोट!"एटम बम की धौंस तो अब चलने से रही क्योंकि इतने देशों के पास यह विनाशकारी अस्त्र है कि यदि इसका प्रयोग अब प्रारंभ हुआ, तो संपूर्ण विश्व व मानवता समाप्त हो जाएगा।यह शक्ति संतुलन विनाशकारी भले है पर उनको चेतावनी भी है कि जिस विनाश को आप जन्म दोगे ,वह कभी आपको भी भष्मासुर की भांति डरायेगा।एक पागल शासक उतर कोरिया से हमेशा अपने सनकीपन की वजह से डराता रहता है। पता न जाने कब विश्व को परमाणु युद्ध की आग मे न झोंक दे।अपनी भू-राजनीति के दबदबे को बनाए रखने के जिस आतंकवाद का महाशक्तियों ने पोषण व संरक्षण किया, 26/11 मे स्वयं झेल चुके हैं और युरोप आज भी भुगत रहा है।ईश्वर ने पांचों अंगुली समान नहीं बनाई है,कद काठी, रंग रुप,बोली भाषा, उपलब्ध संसाधन ,सभी असमान है।इसके पीछे कोई न कोई उद्देश्य रहा होगा तो समाज, अर्थ व्यवस्था एवं संस्कृति मे समानता की बातें hypothetical प्रतीत होती है।विचारों मे तो अच्छा लगता है पर क्या कोई भी देश या शासन व्यवस्था इसे धरातल पे उतार पाया है? आज से तीस साल पहले गांव और शहर मे जो अंतर था, आज भी बरकरार है।गरीब और अमीर के मध्य खाई बढी है।साठ साल शासन करने के बावजूद रूस, चीन, पश्चिम बंगाल ,केरल आदि देश या राज्य क्या इस खाई को पाट पाए? विषम प्राकृतिक एवं भौगोलिक परिदृश्य मे समानता सिर्फ किताबी बातें लगती है।भले ही साम्यवादी दल इस हाइपो थेटिकल वाद को जमीन पर उतारने की बात करे पर , मार्क्स और लेनिन स्तालीन के देश मे भी यह वाद असफल रहा है। चीन कहने को समाजवादी है पर वहाँ " फोर्स्ड कम्युनिज्म" है जो तानाशाही का दूसरा रुप होता है।।लगभग दो दशक पूर्व ड्रैगन चीन की भारत के चतुर्दिक घेरा बनाने की भू-राजनीति रंग ला रही है।पाक अधिकृत कश्मीर मे सैन्य स्थापन का प्रयास, हिंदमहासागर मे सैन्य द्वीप स्थापित करना, मालदीव के द्वीप को लीज पर लेना, नेपाल-बंगला देश-श्री लंका माओवादी कारीडोर निर्माण का प्रयास,इसका हिस्सा है।सबसे बडी सफलता नेपाल को भारतीय प्रभाव से बेदखल करना है।गेमप्लान के तहत पहले ड्रैगन ने हिंसक राजनीति के सहारे सता मे जगह बनाई और नेपाली कांग्रेस व मधेशी पार्टियों पर अपनी श्रेष्ठता साबित की।भारत संविधान सभा मे इनके भरोसे बैठा रहा जबकि चीन ने अपने मनमाफिक हिसाब लगा लिया।उसे पता था मधेशी विरोध करेंगे, भारत की सहानुभूति मधेशियो के प्रति होगी, मधेशी आंदोलन को भारत विरोधी लहर मे परिवर्तित कर नेपाल पूर्णरुपेण घुसपैठ कर लेगा।सब कुछ उसके गेम प्लान तथा मनमाफिक हो रहा है।अपना घर और पडोसियों को संभाले बिना आप वैश्विक परिदृश्य मे UNO के सुरक्षा परिषद मे स्थायी सदस्यता की कल्पना तथा नेतृत्व मे हिस्सेदारी की बात सोच भी नही सकते। अमेरिका भी पहले यही करता रहा है, रुस को लेकर हम इसी तरह पजेसिव थे। चीन ने सोवियत रुस के विघटन के बाद उत्पन्न शून्य को भर दिया है। ट्रंप अब कितना भी हाय तौबा मचाले, चीन को रोकना मुश्किल ही नही नामुमकिन है।वीटो ऐसी लाठी है चीन के पास , कि भारत के लाख प्रयास के बावजूद वो एन एस जी मे शामिल नही हो पाया। चीन यदा कदा भारतीय सीमा मे घुस आता हैऔर फिर हनक दिखाकर लौट जाता है। हम मन मसोस कर रह जिते है, कड़ा विरोध, कड़ा प्रतिवाद ऐसे भारी भरकम शब्द हैं जो मरहम तो लगाते हैं पर घाव नही भर पाते।

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