ये पत्थरों के जंगल है न जो धीरे धीरे गांव और भदेशपना को लीलते जा रहे हैं।जैसे जैसे गांव व गंवईपन खत्म होता जा रहा है और शहरी कल्चर ने अपनी हनक बनाते हुए उन्हें शहरों मे बदल दिया है, हम प्रकृति और अपनी जड़ो से दूर होते गए।" जंगलों से निकलकर आदमी बने हम फिर से इन जंगलों मे बसते जा रहे हैं जहाँ इंसान बनने के बजाय हम फिर से जानवर बनते जा रहे हैं।यहाँ जंगली कानून, समाज का अभाव, व्यक्ति वाद, स्वार्थ, कुटिलता, हिंसा की भरमार है।हम पहले नंगे थे ,आदमी बनकर कपड़े पहनना सीखे और अब फिर से नंगेपन की ओर लौट रहे हैं।" डेरा" तब बना था जब हम ट्रांजिसन फेज मे थे और अपने गांव से हम कटे नही थे पर नयी जेनरेशन तो इन डेरों को ही अपना घर समझती है। एक नया शहरी जेनरेशन आज गांव, कुंआ,हल,-बैल, बैलगाडी, खडाऊं, भिति चित्र, ढेंकी, जांता(हाथ चक्की),भोजपत्र एवं केले के पत्ते पर खाना, बघाडी,आम के पल्लव,चौकी-पीढी पर बैठ कर खाना इत्यादि से अनजान है और इसको नव मार्केटिंग कल्चर के सहारे जानने की कोशिश कर रहा है।आज शहरी स्कूलों मे बच्चों को गांव जानने के लिए भेजा जाता है जैसे अमेरिकन बच्चे भारत को या अफ्रीकी द...