जीवन के रंग

धन एवं भौतिक सुखो की चाह मनुष्य को क्या से क्या बना देती है! अपने पराये, अच्छे बूरे, सच झूठ की पहचान समाप्त हो जाती है।कहा जाता है आंखों पर पर्दा पर जाता है और वह सिर्फ सामने वाले को धन उगाहने वाली मशीन समझ लेता है और मानवीय संवेदनाये समाप्त हो जाती हैं।कहते है कि डायन भी चार घर छोड़ कर अपना काला जादू दिखाती है पर इनपर कोई असर नही होता। "मुठ्ठी बांधे आया तु बंदे ,हाथ पसारे जाएगा, नंगा आया,कुछ भी कमाया, नंगा ही तू जाएगा।" तुम्हारे महल चौबारे, यहीं रह जायेंगे सारे, अकड किस बात की प्यारे, कहीं तो सर झुकाना है" ये धन दौलत तुम्हारे किस काम के, क्या कोई इसे साथ ले जा पाया है! फिर भी हाय हाय! जानते सभी है परंतु फिर भी सभी रमे है इसी मे, यही माया है, ठगिनी हमेशा छलती रहती है! सब छलावा है फिर भी मारकाट, लूटपाट, भ्रष्टाचार, अपहरण, बलात्कार, धोखा ,फरेब, जारी है। दुनिया मे सबकुछ चलायमान है, कोई रुकता नही।रोकती है तो सिर्फ मौत! वो भी क्षणभर के लिए।पात्र बदल जाते है पर जिन्दगी का रंगमंच सजा रहता है।"बाबू मोशाय" से सबको "आनंद" एक जिंदादिल इंसान याद आ गया होगा , जो मौत के मुहाने पर खडा होकर भी " मैने तेरे लिए ही सात रंग के सपने बुने" गाता जा रहा है।ईश्वर ने मानव को भूलने की शक्ति दी है, वह सुख दुख, कष्ट खुशी, जन्म मृत्यु, दर्द पीडा,आनंद सभी समय के साथ भूल जाता है ,इसी लिए लगातार आगे बढता है, वरना वो  तो वहीं डूब जाता, "जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबहो शाम"।श्मशान की अंतिम यात्रा मे  ही उसे परमात्मा की शक्ति और जीवन की क्षणभंगुरता का ज्ञान सर्वाधिक होता है, पर बाहर निकलते ही भूल जाता है, फिर अपनी दुनिया मे मस्त।वर्जीनिया वूल्फ ने सुअर के नाली मे कीडे ढूंढने के उदाहरण से इसे अच्छे तरीके से समझाया है।वस्तुतः संसार भौतिक है और मनुष्य भौतिक वस्तुओं के संग्रह मे जिन्दगी व्यर्थ कर देता है जबकि भावनाएं पराभौतिक है, उसपर सोचने का वक्त नहीं है।अनेक इसमें रचे बसे हैं जो और लोगों को भी प्रेरित करते हैं पर संसार तो चलते रहना चाहिए न!"नदिया चले, चले रे धारा, चंदा चले, चले रे तारा, तुमको चलना होगा, तुमको चलना होगा!" तो भला सब कैसे उस ओर प्रवृत हो सकते हैं? भौतिक सुखो की दौड़ मे मनुष्य, समाज, गांव, परिवार, संतान से आगे निकल आया, अब उसके हाथों मे सिर्फ शुन्य है, आभासी दुनिया है, इंटरनेट की दुनिया है ,जिसमें दायरा तो बडा है पर कोई पहचान नही।अपनो की तलाश मे परिवार सोशल मीडिया पर सिमट गई है।पास रहकर भी हम इक दुसरे से अनजान हैं।अनजाने चेहरो मे हम अपनापन तलाश रहे हैं? सब बेकार! कुछ हासिल नही होगा!अपनो की पसंद नापसंदगी का स्थान गैरों की like और कमेन्ट ने ले लिया है।सबकुछ जानते हुए भी हम अनजान बनते हैं या अनजान बनने का नाटक करते हैं, हमारी अंत: आत्मा हमे कचोटती नहीं है?

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