न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बवाल

अपनी उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य तो किसानों का अधिकार है, उसे मिलना ही चाहिए। उसने जो खेती मे लागत लगाई है जैसे बीज, खाद, पेस्टीसाइड, श्रम,खेत तो उसकी मूल पूंजी है चाहे अपनी है या किराये की है, उसका उसे प्रतिफल तो  मिलना ही  चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि खेती को जबतक मात्र आजीविका का साधन बनाये रखा जाएगा, तबतक उसे लोग दिल से नही अपनायेंगे। ये अलग बात है कि  खेती कभी व्हाइट कालर जाब तो नही बन सकता परंतु इसे व्यवसाय के रुप मे परिवर्तित कराना ही  होगा। यदि सभी किसान सिर्फ अपने खाने के लिए खेतों से  पैदा करने लगेगा तो बाकी तीस -चालीस प्रतिशत जनसंख्या क्या खाएगी? अब प्रश्न यह है कि जब खेती किसानी इतना महत्वपूर्ण है तो सरकार एमएसपी को कानूनी अधिकार का दर्जा क्यों नही देती अर्थात जो कोई भी एमएसपी से कम मूल्य पर किसानों की उपज  खरीदेगा ,उसके विरुद्ध विधिक कार्यवाही की जाएगी। वस्तुतः आप जब राज्य सरकारों द्वारा निर्गत धान या गेंहूँ क्रय नीति का अध्ययन करेंगे तो पता चलेगा कि ये तो पहले से ही यहाँ दर्ज है। यहाँ स्पष्ट लिखा  है कि किसानों द्वारा लाये गये गेंहूँ या धान की मंडियों मे बोली लगाई जाएगी, जिसमे मंडी, सरकारी क्रय केंद्र प्रभारी, आढ़तिया और किसान उपस्थित रहेंगे। यदि एफ ए क्यू(फेयर एवरेज क्वालिटी) धान/गेंहूँ की बोली न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम लगती है तो इसे सरकारी क्रय केंंद्रो पर खरीदा जाएगा और किसानों को एम एस पी प्रदान किया जाएगा। इतना ही नही एम एस पी से कम बिकने पर उसे डिस्ट्रेस सेल मानते हुए संबंधित सरकारी कर्मचारियों के विरुद्ध विधिक कार्यवाही भी की जाएगी।

          अब प्रश्न यह है कि तो फिर  दिक्कत क्या है? क्यों नही सभी किसानों को एम एस पी का लाभ मिल पाता है। मेरा मानना है कि इसमे सबसे बड़ा बाधक है  तकनीकी शब्दों का झोल अर्थात एफ ए क्यू अर्थात फेयर एवरेज क्वालिटी और खाद्यान्न की निर्धारित गुण विर्निष्टियां। ये ऐसे टर्म हैं जो सभी तरह के खाद्यान्न सरकारी क्रय केंंद्रो पर किसानों का खाद्यान्न खरीदने मे बाधक है। मानक अर्थात एफ सी आई द्वारा निर्धारित धान गेंहूँ मे नमी, डैमेज, रेड ग्रेन, फारेन मैटर इत्यादि की निर्धारित मात्रा। हालांकि सभी क्रय केंंद्रो पर किसानों की उपज को मानक के अनुसार बनाने के लिए साफ सफाई हेतु उपकरण उपलब्ध हैं परंतु मानक के अनुसार बनाना टेढी खीर है। मानक तकनीकी शब्द होने के बावजूद देखने वाले की मानसिकता और सोच पर निर्भर करता है क्योंकि प्रयोगशाला और फील्ड मे जमीन आसमान का फर्क होता है। यद्यपि यह नियम विश्व खाद्य संगठन और विश्व स्वास्थ्य संगठन के विभिन्न निर्देशों के क्रम मे खाद्य मंत्रालय भारत सरकार के अनुमोदन से भारतीय खाद्य निगम निर्धारित करती है कि किस क्वालिटी का धान गेंहूँ खरीदा जाएगा, जो मानव के खाने के योग्य है। पी एफ ए अर्थात प्रिवेंशन औफ फूड अल्टरेशन एक ऐसा टर्म है जो किसी खाद्य पदार्थ को मानव के खाने हेतु योग्य या अयोग्य घोषित करता है। लेकिन इसकी सबसे बड़ी कमी है कि इसके मानकों को जांचने का तरीका सभी मैन्युअल है अर्थात टेस्ट करनेवाले के हाथों और सोच पर निर्भर है। यदि सभी मशीनीकृत या पारदर्शी व्यवस्था होती तो किसी को मैन्यूपुलेटिंग का पावर नही होता। और यह कटु सत्य है कि जब ही किसी व्यक्ति विशेष के हाथों मे निर्णय का अधिकार दे दिया जाता है तो वहां शोषण एवं भ्रष्टाचार की संभावना बनी रहती है। इतनी टेक्निकल बातों से इतर यह समझना है कि सबसे बड़ा झोल यह निर्धारित मानको का हर्डल है। कहा जाता है कि जैसे परिवहन विभाग के इतने नियम कानून है कि यदि ठान लिया जाये तो भी गाड़ी सड़क पर चलते हुए  बिना फाइन के गुजर ही नही सकती। वैसे ही यदि एफ सी आई का टी ए(तकनीकी सहायक) चाह ले तो कोई मिलर ऐसा चावल बना ही नही सकता, जो पास हो जाए। स्वाभाविक है क्रय केंंद्रो पर मानकों के चोंचले एम एस पी दिलाने मे बाधक है।

          दूसरा यह कि यह सारे नियम कानून सरकारी क्रय केंंद्रो पर होने वाले खरीद पर लागू है, निजी व्यापारियों के खरीद पर नही। उसे हम मजबूर भी नही कर सकते कि आप एम एस पी पर ही खरीदो। उनकी खरीद का मूल्य बाजार मे मांग और उनके लाभ पर निर्भर करता है। यदि वो भी सभी खाद्यान्न को एम एस पी से उपर खरीदना शुरू करें तो फाइनल प्रोडक्ट काफी महंगा हो जाएगा और खरीदने वाला भी तो अधिकांश किसान ही होता है। उसे तो लाभ के लिए व्यवसाय करना है। सरकार लोक कल्याणकारी हो सकती है ,वह घाटा उठाकर या सब्सिडी देकर खराब या मानकों से इतर खाद्यान्न एम एस पी पर खरीद कर मुफ्त में बांट सकती है, परंतु निजी आढ़तियों से हम इसकी अपेक्षा नही कर सकते।अब सरकार खरीद के लिए मानक निर्धारित न करे तो क्या करे? मार्केट मे अच्छे -बुरे सभी सामान का उसकी गुणवत्ता के आधार पर  ही तो मूल्य निर्धारित होता है। एक उदाहरण से समझिए कि बासमती चावल जो सबसे लंबा ग्रेन होता है वह सबसे महंगा और जितनी अधिक रिफाइंड, उतना अधिक मूल्य। उसके बाद खुले मे बिकने वाले बासमती चावल, फिर वैसा चावल जिसमे टूटन 29-25 प्रतिशत हो, उसके बाद बासमती खंडा यानि 90 प्रतिशत खंडा वाला । तो क्या इसी मानक के आधार पर किसानों से खरीद मे भी मूल्य तय किये जायें ? जैसे कि तराई के क्षेत्रों मे धान के महीने मे नमी बहुत ही ज्यादा होता है। सरकारी मानक 17% है और अमूमन कटाई के मौसम मे नमी 24-25 प्रतिशत रहती है, जाहिर है इसे सरकारी क्रय केंंद्रो पर नही खरीदा जाता और उन्हें मजबूरी मे आढ़तियों के हाथों कम दामों मे बेचना पड़ता है। हालांकि किसानों को उसमे वजन ज्यादा मिल जाता है। किसानों का ये मानना है कि सरकार यदि नमी की मात्रा के आधार पर मूल्य तय कर ले तो किसानों को लाभ मिल जाय। जैसे यदि नमी 17 प्रतिशत से कम है तो पूरा एम एस पी , उसके बाद जैसे जैसे नमी बढ़ती जाय, उसका फुल वैल्यू कट के साथ मूल्य निर्धारित हो जाय, जैसाकि भारतीय खाद्य निगम चावल खरीद के मानक मे 14 से 15 प्रतिशत के मध्य अपनाती है। तो सरकार को यह मानने मे समस्या क्या है?

पहली समस्या यह है कि यह कौन तय करेगा कि खाद्यान्न किस क्वालिटी या किस मूल्य संवर्ग मे आएगा? जिसके पास विवेकाधीन अधिकार होगा ,वह मनमानी अवश्य कर सकेगा। दूसरा क्या ज्यादा नमी वाले खाद्यान्न को ज्यादा दिनों तक संरक्षित रखा जा सकेगा? राइसमिलों मे तो ड्रायर हैं और वो उसे सुखाकर संरक्षित करते हैं, सरकारी केंंद्रो पर क्या होगा? तीसरा निम्न गुणवत्ता  अर्थात अंडर रिलैक्स स्कीम(यू आर एस) के अंतर्गत खरीदे गये खाद्यान्न को एफ सी आइ अभी प्राथमिकता के आधार पर सबसे पहले निर्गत कर उसका भंडारण समाप्त करती है क्योंकि उस खाद्यान्न की फूड वैल्यू त्वरित गति से क्षरित होती है। जब बड़ी मात्रा मे ऐसे खाद्यान्न सरकार द्वारा खरीदे जायेंगे तो उसे जल्दी कैसे समाप्त किया जा सकेगा। चौथा  सरकारी क्रय केंंद्रो का इंफ्रास्ट्रक्चर इतना बड़ा नही है कि किसानों द्वारा उत्पादित समस्त मात्रा को क्रय केंंद्रो पर खरीद सके, न ही उतनी बड़ी भंडारण क्षमता है। आज सरकार उतनी मात्रा खरीद का लक्ष्य रखती है जो वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली मे वितरित करती है औत्र एक अंश आपातकाल के लिए बफर गोदाम मे संरक्षित करती है। जाहिर है इसमे निजी आढ़तियों/.व्यवसायियो को आगे बढ़ना होगा जिससे सभी किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल सके। लाइसेंस राज खत्म होने के बाद निजी क्षेत्र नियंत्रण हीन है और बाजार मूल्य को अपने हिसाब से निर्धारित करता है। ऐसे मे सभी किसानों को एमएसपी का लाभ दिलाना एक दुष्कर कार्य होगा।

   

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