सपनों की मौत

सलिल ने जब ज्वाइन किया तो उसे  कोई फार्मल ट्रेनिंग नही दी गई, बस यह बताया गया कि फलाने साहब के साथ तुम्हें संबद्ध किया जा रहा है। वह ही एक तरह से तुम्हारे ट्रेनर है। उसने महीनों तक सिर्फ वही किया जो उस तथाकथित सीनियर ने कहा।उधर सीनियर्स जब आपस मे बैठते तो इन नये बैच वालों का मजाक उड़ाते " अरे! ये काम धाम सीखना नही चाहते, कुछ जानना नही चाहते, बस चाहते हैं कि पका पकाया खाना मिल जाय"! सलिल को यह सुनकर बुरा भी लगता पर  आपस मे बैचमेट्स से मिलकर अपना गम शेयर कर लेता। सबकी एक ही जैसी  कहानी थी। उन्ही सीनियर्स मे से एक  त्रिपाठी जी भी थे, जो नये लड़कों को खूब मानते थे और उन्हें विभाग का भला बुरा समझाते। बोले"  यहीं नही जिंदगी के हरेक फील्ड मे  तुमलोगों को "तथाकथित मठाधीश" मिलेंगे, जो अपनी गद्दी नही छोड़ना चाहते, छोड़ना क्या तनिक खिसकना भी नही चाहते जिसपर तुम अपनी टिका भी सको। इनसे  छीनना पड़ता है"। बेवसीरिज "हंड्रेड " मे भी लारा दत्ता के सीनियर हमेशा उसे दबाते रहे, इग्नोर करते रहे, आगे बढ़ने  से रोकता रहा, अंत मे उसे अपना रास्ता खुद बनाना पड़ता है। ये दौर फ्रस्ट्रेशन का होता है, तनाव और दबाव चरम पर होता है पर सभी सुशांतसिंह" नही  बन जाता। कई तो रास्ते बनाने के लिए सीनियर का अंगुली पकड़ते हैं और फिर पहुंचा पकड़कर उसका ही गर्दन दबा कर आगे बढ़ जाते हैं। हालांकि ये रास्ता भी ठीक नही है। सलिल ने भी अपने सीनियर का गला नही दबाया या न अपना गला दबाया, वह तो रास्ते पर चल निकला था और रास्ते खुद बखुद चौड़े होते गये। नेपोटिज्म सिर्फ अपने बेटे बेटियो के लिए नही होता बल्कि तथाकथित रुप से गोद लिए बच्चों के लिए भी लागू होती है। " हरेक फील्ड मे गाडफादर चाहिए, उसके बिना आप सफल नही है, फिल्मी दुनिया मे दिख जाते हैं, बाकी फील्ड मे अंडरग्राउंड होते हैं। साहित्य ,मीडिया, नौकरी, खेल आदि सबमे " गाडफादर "के बिना आपको "बूस्टर डोज" नही  मिल पाता। हरेक जगह आपको " इस मठाधीशी, नेपोटिज्म और गाडफादर की खिलाफत करनेवाली "कंगनाराणावत" मिल जाएंगी और गले मे फंदा लटकानेवाले सुशांत भी। आप कहेंगे कि सुशांत से ज्यादा अटैचमेंट क्यों फील कर रहे हैं, क्योंकि वह एक मध्यमवर्गीय परिवार से था। उससे अपनापन इसलिए है कि वह टीवी से उठ कर गया है, हमलोगों के बीच से गया है। बिना किसी गाडफादर   या एलीट/प्रिविलेज्ड फिल्मी परिवार के संरक्षण के अपना मुकाम बनाया है। उसने "धोनी" जैसे  लोकप्रिय और मध्यमवर्गीय क्रिकेटर की फिल्मी जिंदगी जिया है। वह हम आपके परिवार का बच्चा सा देखने मे लगता था। हमलोगो से और जुड़ाव बिहार को लेकर भी था, बाद मे पता चला मिथिला क्षेत्र से था और जुड़ाव हो गया। जवान मौत वैसे भी खलती है उपर से आत्महत्या! परतें खुल रही है कि उसे आत्महत्या की राह पर जाने के लिए मजबूर किया गया। भला मठाधीशों को उसकी कामयाबी कैसे पच सकती थी? एक एक करके छः फिल्मों का हाथों से निकलना कोई संयोग नही था, एक बची भी तो उसे थियेटर नसीब नही हुआ।  किसी ने लिखा कि फिल्म इंडस्ट्री के छः बड़े प्रोडक्शन हाऊसों ने उसे बैन कर रखा था, न जाने क्यो?  यह युवा कलाकार को जीते जी मारने की साजिश नही तो और क्या है।  किसी को मरने पर मजबूर किए जाने की दास्तान है, किसी के सपनो के मर जाने की कहानी है।गायक अरिजीत सिंह, विवेक ओबेरॉय की कहानी छुपी नही हैं। फिल्मों मे आप देखते होंगे कि किसी नये शहर मे जानेपर शहर के मठाधीशों के दरबार मे हाजिरी देनी पड़ती है वरना वहां सर्वाइव नही कर पायेंगे। यह फिल्मी नही फिल्मिस्तान की कहानी है।

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