पटना ब्लूज... समीक्षा
लेखक अब्दुल्लाह खान का उपन्यास " पटना ब्लूज" एक मुस्लिम लड़के के अधूरे ख्वाबों की दास्तान है, जिससे समाज, परिस्थितियों और संबंधित व्यक्तियों के प्रति मंद मंद विषादपूर्ण संगीत प्रवाहित होता है। "ब्लूज" का शाब्दिक अर्थ होता है एक प्रकार का मंद विषादपूर्ण संगीत, जो नाम को कैची बनाता है लेकिन कथानक का कंटेंट तो मायने रखता ही है।ऐसे समय मे जब एक बार फिर से हिंदू -मुस्लिम विमर्श अपने चरम पर है, "पटना ब्लूज" एक मुस्लिम नौजवान की विवाहित हिन्दू महिला से प्रेम की दास्तान सुनाती है। वास्तव मे यह अस्सी और नब्बे के दशक के देश के महत्त्वपूर्ण घटनाओं को मुस्लिम नजरिए से देखने का प्रयास भर है। इंदिरा गांधी की हत्या, बाबरी मस्जिद प्रकरण, मुंबई बमकांड, भाजपा का उदय, मंडल कमीशन आरक्षण विवाद मे मुस्लिम समाज का पक्ष है। नायक और नायक परिवार एक लिबरल मुस्लिम समाज से ताल्लुक रखता है परंतु समाज का मुस्लिमों के प्रति अविश्वास, नौकरी और अन्य जगहों पर अपने को मुस्लिम होनेके कारण दोयम समझे जाने की मानसिकता को इसमे बखूबी दर्शाया गया है। एक किशोरावस्था से युवा बन रहे लड़के की अपोजिट सेक्स के प्रति उत्सुकता, लगाव और फैटेंसी उसे अपने से काफी बड़ी महिला जो एक लगभग समवयस्क लड़की की मां है, से प्रेम करा देती है। महिला भी कविता शायरी की रौ मे बहते हुए, पति के न्यूट्रल पारिवारिक जिंदगी से सूखे हुए रेगिस्तान मे एक्सट्रा मैरिटल अफेयर के रुप मे रोमांचित होते हुए उसे बढ़ावा देती है। जाहिर है इस सो काल्ड प्रेम(इकतरफा) मे पति और बच्चों से बेवफाई करते हुए धर्म कहीं आड़े नही आता। लेकिन आरिफ(नायक) और सुमित्रा(नायिका) के संबंधों का चित्रण यथार्थ प्रतीत होते हुए भी पल्प फिक्शन की तरह दिखता है।नायक का आइएएस बनने का ख्वाब, मां बाप बहन भाइयों के प्रति जिम्मेदारी निभाने का ख्वाब मध्यवर्गीय विवशताओं के मध्य दरक जाता है। आइएएस या पीसीएस न बन पाने के पीछे उस महिला के प्रति भटकाव काफी हद तक जिम्मेदार था परंतु इसे मुसलमान होने से जोड़ना ठीक नही है। अगर उसका साथी दिल्ली जाकर तैयारी करते हुए आइएएस बन जाता है तो इसमे उसकी पारिवारिक स्थिति, भाग्य, मेहनत , दृढ निर्णय की बात है, लेकिन उसका फ्रस्ट्रेशन स्वाभाविक है।लेखक ने किताब मे शहरी समाज के साथ ग्रामीण समाज का बखूबी चित्रण किया है। बैलगाड़ी से यात्रा मे , गांव मे बच्चों द्वारा दुल्हन की विदाई का गीत," लाली लाली डोलिया , लाले लाले कहरवा, पंडुआ(तालाब मे रहनेवाली एक प्रकार की चुड़ैल) की कहानी, भूत प्रेत , झाड़ फूंक, सीतामढ़ी- मोतिहारी के प्रसिद्ध डकैत की चर्चा(मै भी सीतामढी से ही हूँ) , चोरी छिपे दोस्तों के साथ वीसी आर देखना,यादों के समंदर मे बहा ले जाती है। लेखक ने कुछ भी छुपाने की कोशिश नही की है मसलन गाय का गोश्त (बड़का) खाना ग्रामीण समाज मे आम बात थी, पर उसके परिवार मे नही खाया जाता था, खस्सी(बकरा) महंगा होने के कारण उच्च मुस्लिम समाज मे खाया जाता था।सही माने मे यह एक क्रानिकल से उस दौर की जिसमे बहुत सारी अनकही दास्तान सामने आ जाती है।बकौल लेखक जबतक उनके उपन्यास का नाम" थ्री काइंड आफ ड्रीम्स" तबतक इसका कोई पब्लिशर नही मिला। जैसे उन्होंने " पटना ब्लूज" जैसा कैची- आकर्षक नाम रखा इसे हाथों हाथ लिया गया। दूसरा यह कि इसे अंग्रेजी मे लिखा गया तो तो एक विस्तृत कैनवास मिल गया। आज यह उपन्यास कई भाषाओं मे अनुवादित हो चुका है। कुल मिलाकर उपन्यास अस्सी - नब्बे के दशक के बिहारी मुस्लिम समाज और नजरिए को जानने के लिए पढ़ा जा सकता है। उपन्यास का सबसे मार्मिक दृश्य अंतिम पृष्ठों मे है जब बरसों से गायब भाई को अचानक रेलवे स्टेशन पर देखता है और उससे मिलता है। उपन्यास नायक के टूटते और बिखरते ख्वाबों के सहारे निराशात्मक बनता है तो जाकिर(भाई) के वापस लौटने से नयी आशा की किरण दिखाता है कि सबकुछ वैसा नही है जैसा हम सोचते हैं।
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