जब मै अप्रैल फूल बना था
उस साल की पहली अप्रैल आज भी याद है, जब मै अप्रैल फूल बना था और खूब बिसुक बिसुक कर रोया था। अमूमन पहली अप्रैल से पहले हमलोग बचपन मे सतर्क रहा करते थे कि कोई मूर्ख न बना जाये। हम भाई बहन आपस मे एक दूसरे को इस तरह मूर्ख बनाते थे कि" बहिन मां बुला रही है, या भैया आपको फलाना काका खोज रहे थे"। जैसे ही वो सब वहाँ जाते हम जोरों से ताली बजा बजाकर हंसने लगते। इसी तरह कोई मुझे भी बना जाता पर धीरे धीरे ये सिलसिला टूट गया । सब अलग अलग जगहों पर अपने ससुराल, नौकरी करने और पढ़ाई करने चले गये। फिर फर्स्ट अप्रैल की सतर्कता धीरे धीरे खत्म होती चली गई। शायद सन छियानबै का साल था और हमलोग विस्थापित बिहारी अपने अपने बाबूजी के अरमानों के पंखो पर सवार होकर देश की राजधानी पहुंच चुके थे। नेहरू विहार हम बिहारी- पंजाबी विस्थापितों की शरणस्थली थी। फर्क सिर्फ इतना था कि पंजाबी मकान मालिक थे और हम किरायेदार। उस दिन लगभग दस बजे रीतम जी ने जगाया और बोला कि नीचे आंटी के पास फोन आया था ,घर मे कुछ हो गया है । मकान मालकिन के यहाँ घर से यदा कदा फोन आ जाया करता था तो वो बुला लेती थी। मकान मालकिन इसलिए कि मालिक दिखाई ही नही पड़ते या यूं कहें कि मालकिन ने उन्हे किसी लायक नही छोड़ा था। अमूमन किरायेदारों से मकान मालकिन ही डील किया करती थी। हां जिस मकान मे टेलीफोन लगा होता था, उसका किराया ज्यादा होता था क्योंकि घर से फोन वहीं आता था। तो नीचे झांककर सेकंड फ्लोर से देखा तो मकान मालकिन के घर मे ताला बंद था।उस समय मोबाइल नही हुआ करता था ,सिर्फ लैंडलाइन ही था। हम गरीब लोग इसके लिए मकानमालिकों की दया पर सिर्फ रिसीविंग के लिए आश्रित थे। काल चार्ज इतना ज्यादा था कि बाबूजी द्वारा भेजे गये पैसे मे अफोर्डेबल नही था। मै घबरा गया था , फिर रीतम जी ने कहा कि बाबूजी का सीतामढ़ी जाते हुए एक्सीडेंट हो गया है और हालत सीरियस है ,उन्हें मुजफ्फरपुर मेडिकल मे ले जाया जा रहा है। रीतम काफी गंभीर थे । पास मे ही अजीत मामा और संतोष भाई(स्व.) रहा करते थे। उनको देखते ही मै जोर जोर से बुक्का फाड़कर रोने लगा। मै कभी दौड़कर नीचे जाता तो कभी उपर आकर उससे पूछता कि सही कह रहे हो न! करीब आधे घंटे तक यही चलता रहा तो अंततः मै टेलीफोन बूथ की ओर जाने के लिए निकला। उस समय नेहरू विहार मे टेलीफोन बूथ भी नही था, मुखर्जी नगर जाना होता था। जब मुखर्जीनगर जाने के लिए नीचे उतरा तब रीतम जी को लगा कि मामला सीरियस हो गया है। वो अचानक अपनी दबी हंसी को रोक न सका और हंस पड़ा कि वो तो मुझे अप्रेल फूल बना रहा था। इसको सूनते ही मै और जोरों से रोने लगा था, इसलिए नही कि मुझे अप्रैल फूल बनाया बल्कि इसलिए कि उसने मेरे बाबूजी को लेकर ऐसा मजाक किया। यदि कुछ लोग ना रोकते तो शायद मै उसपर हाथ चला बैठता। कई साथी हंस भी रहे थे, लेकिन ज्यादातर उसे भला बुरा कह रहे थे। मेरा गुस्सा और क्षोभ इतना ज्यादा था कि मैने उनसे शायद सालों नही बात किया। बोलचाल बंद हो गई थी।उसके बाद भी मै मुखर्जी नगर दौड़कर गया और बाबूजी को फोन मिलाया, वो आफिस मे थे। उनसे बात कर मेरी फिर से रुलाई फूट पड़ी थी।
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