पाजिटिव होने की दहशत भाग दो

संध्या अपने फैमिली डाक्टर से रेगुलर चैकप कराती रहती है। सप्ताह मे तीन दिन ब्लडप्रेशर और ब्लडशुगर की चेकिंग, तीन महीने मे एकबार ग्लुकोज, महीने मे थायराइड और छ महीने मे एकबार होल बाडी जांच। फिर भी कुछ न कुछ, कही न कहीं  दर्द निकलता ही रहता है। एक दो सप्ताह डाक्टर का चेहरा नही देखा तो दिल धड़कने लगता है और सांसे चढ़ने लगती है, जैसे आज गई तो कल गई। लेकिन इधर दो महीने से पूरी तरह फिट फाट है। सर दर्द और उठती चढ़ती सांसें गायब है।। खुद भी खुश हैं और परिवार भी खुश। डाक्टर भी चैन से अपने घर पड़ा है, भले ही उनकी आय थोड़ी कम अवश्य हो गई है।असल मे बड़े भय की ओट मे सारे छोटे -छोटे भय दब जाते हैं या यूं कहें कि उभरने नही पाते हैं। हम ये नही कहते हैं कि यदि डाक्टर नही होंगे तो लाकडाऊन पीरियड मे भी सभी स्वस्थ रहेंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि आधी से ज्यादा बिमारी मानसिक है या यूं कहें कि बिमारियां दिमाग मे पैदा होती है। आपने देखा होगा जब कोई साइकिल, मोटरसाइकिल आदि से फिसल कर गिरता है तो यदि हाथ पैर न टूटा न हो तो झटपट उठने की कोशिश करता है और चारों ओर देखने लगता है कि कहीं किसी ने देख तो नही। चोट पर बाद मे ध्यान जाता है। सरकार ने ओपीडी बंद करवा दी, आपरेशन बंद रहे, सिर्फ अति आवश्यक इलाज जारी रहा। मेरे एक पड़ोसी ने बताया कि उनके चाचा की डायलिसिस हो रही है, कुछ कंप्लीकेशन आ गया।मौके था, भर्ती कराना पड़ा। पूरे अस्पताल मे वह सिंगल पेशेंट भरती थे, जहाँ दिन मे पांव रखने की जगह नही मिलती थी या बेड लेने के लिए पैरवी लगानी पड़ती थी, वहाँ सन्नाटा था। तो क्या कोरोना ने बाकी सभी बिमारी सही कर दिया है। नही, मेरी समझ मे कोरोना के भय ने उसे दबा दिया है, या ठीक कर दिया है। कोई डाक्टर के पास जाना नही चाहता। अब एक मित्र को कहीं जाना था तो अपने पिताजी को डाक्टर से दिखाने के नामपर पास ले लिया। अब जब चले गये तो डाक्टर से दिखाते भी क्योंकि यदि क्वेरी हो जाती तो फंस जाते। पिताजी डाक्टर के यहाँ जाना नही चाहते थे क्योंकि एक तो उम्र ज्यादा ,दूसरे डरते ज्यादा थे। किसी तरह उसे क्लीनिक तक ले गये। गेट पर थर्मल स्कैनिंग होने लगी तो वे घबराने लगे कि कहीं टेम्परेचर न निकल आये। डाक्टर सहित सारे स्टाफ पी पी ई किट से लैस। एक वैसे ही माहौल बन जा रहा था ,जो टीवी पर लगातार देख रहे थे। डाक्टर आर्थोपेडिक का था पर उनकी घबराहट और बेचैनी देखकर ब्लडप्रेशर नापने लगा। मित्र भी घबरा गये कि कहां लाकर फंस गये। बड़ी मुश्किल से पिताजी को सही सलामत ला पाये ,डाक्टर ने झाड़ पिलायी अलग से। डाक्टर ने भी बड़े बड़े अक्षरों मे लिख रखा है कि" फोन पर संपर्क करें, इमरजेंसी मे ही आयें"। अब ऐसी कौन इमरजेंसी है कि सांसे बंद हो रही है? डाक्टर भी डर रहा है कि पेशेंट कहीं कोरोना लेकर तो नही आ रहा है। आखिरकार फीस के चक्कर मे लाइफ रिस्क क्यों ले? अपना ही नही पूरे स्टाफ का भी! मित्र भी ले जाकर पछताया और अगले दस दिनों तक दहशत मे रहा कि कहीं कुछ हो न जाये।  थोड़ी बहुत खांसी पहले हो जाती थी तो अपने से दुकान पर गये और एक कफ सीरिप और एक एंटीबायोटिक ले लिया। जबसे आजकल दवा लेने वालों के नाम लिखे जा रहे हैं, दवा लेने जाने भी डर लगता है कि कहीं स्वास्थ्य विभाग की टीम घर तक न पहुंच जाये। आना बड़ी बात नही, सामाजिक बदनामी, सोशल बायकॉट मुद्दा है। लोग संदेह भरी नजरों से देखने लगते है। पहले पुलिस घर पर आये तो बदनामी होती थी, एड्स होता था तो बदनामी होती थी, अब माहौल बहुत कुछ इसी तरह का लोगों ने बना दिया है। कुल मिलाकर भय ज्यादा है, वास्तविकता कम।
       

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