साहब ड्यूटी कटवा दो

अभी हाल मे " न्यूटन" फिल्म को चुनाव कराने मे पोलिंग पार्टी के समक्ष आने वाली समस्याओं को उठाने के लिए काफी सराहा गया है। साहब! किसी तरह ड्यूटी कटवा दो! यह फेमस लाइन होता है सबकी जुबान पर ! पर क्यों न हो भला जब इतनी जटिल और रिस्की प्रक्रिया हो चुनाव करवाने की। पहले तो पार्टी जाते ही गांव के सम्मानित लोग आवभगत मे लग जाते थे।" अतिथि देवो भवः " के साथ साथ चुनावी लाभ के लिए मेल मिलाप भी जरूरी था। पर अब आयोग ने गांव का पानी पीना भी निषिद्ध कर दिया है।चुनाव चाहे वो नगरीय हो या ग्रामीण ,अभीतक पंचायती चुनाव बैलेट पेपरों के माध्यम से संपन्न हो रहे हैं। बड़े बड़े बक्सो को लादकर ले जाना और उसमे वोटिंग कराकर फिर लादकर लाना एक जटिल कार्य है।  चुनावों मे एक दिन किसी अनजान जगह पर अनजान लोगों की बनी पोलिंग पार्टी के साथ बिताना किसी के लिए एक रोमांच का काम हो सकता है पर ज्यादातर लोग यही चाहते हैं कि उनकी ड्यूटी न लगे और लग भी गई है तो अंतिम समय तक वो तमाम जुगाड़ का उपयोग कर ड्यूटी कटवाने का प्रयास करते रहते हैं।ऐन चुनाव मे पोलिंग पार्टी रवाना होने के दिन सैकड़ो के उल्टी दस्त बुखार सब चालू हो जाता है। छोटे छोटे बच्चों को लेकर महिलाओं को ड्युटी कटवाने के लिए अफसरों के आगे घिघियाते देख अजीब लगता है।एक महिला जो लगभग पांच छ महीने के बच्चे की मां थी, उसको लेकर सुबह से दस बार साहब के सामने रिरिया चुकी थी।साहब कहते रुक जाओ बारह बजे के बाद विकल्पों को देखते हुए ड्युटी चेंज कर दूंगा। पर वो मान ही नही रही थी, ठीक सामने नीचे ही बैठ गई , वहीं बच्चे  को रुलाना पुचकारना, दूध पिलाना और सेरेलक खिलाना चालू कर दी। शायद यह सोच रही थी कि साहब के नजरों के सामने बने रहेंगे तो शायद भूलेंगे नही, ड्यूटी काट देंगे। एक नवविवाहिता अपने पति के साथ आई थी। बार बार आकर कह रही थी कि उसे उल्टी दस्त हो रहा है। जब उसे बताया गया कि रुक जाओ डाक्टर साहब आ रहे हैं ,दवा देंगे तो वो गायब हो गई।इधर आकर चुनाव आयोग ने प्रत्येक पोलिंग पार्टी मे एक महिला सदस्य अनिवार्य कर दिया है। एक तो लाभ यह है कि पर्दानशीनों से मुखातिब होने मे आसानी हो जाती है और दूसरे जब नौकरी मे बीस प्रतिशत रिजर्वेशन है तो स्वाभाविक रुप से यदि उनकी ड्यूटी नही लगेगी तो कर्मचारियों की कमी हो जाएगी।परंतु समस्याएं हैं- मसलन वो बूथ पर रात मे चार मर्दों के बीच कैसे रुकेंगी? उनके साथ उनका पति, भाई, या बेटा जाता है और शाम मे वापस घर ले आता है। आयोग के नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए ज्यादातर महिला सदस्य बूथ पर नहीं रहती और यह प्रशासन की जानकारी मे होता है। यदि किसी मतदान केंद्र पर बच्चे के साथ यदि पहुँच गई तो भगवान ही मालिक है। वो वोट डलवायेंगी कि बच्चा खेलायगी। नवविवाहिताओं के पति लगातार उनके साथ बने होते हैं और उनका ख्याल रखते हैं।बकौल पीठासीन अधिकारी " महिला पोलिंग सदस्य रखने से सरकार को यह लाभ है कि चार का पैसा देना पड़ता है और पांचवा(पति) मुफ्त मे काम करने के लिए मिल जाता है"।लेकिन यह कानूनन मान्य नही है। एक समस्या बक्सा ढोने या ईवीएम के केस मे इवीएम ढोने की है। अब भारतीय संस्कृति मे महिलाओं को बक्सा ढोने के लिए तो कहा नही जा सकता।परंतु इस कारण से पोलिंग पार्टी को परेशानी होती है।एक समस्या जाड़े के मौसम मे चुनाव करवाने से भी है ,जब कड़ाके की ठंढक पड़ रही हो तो ऐसे मे किसी स्कूल या सोसायटी के भवन मे बिना किसी रजाई गद्दे के सोना कष्टप्रद है या स्वयं अपना सामान ले जाना हो तो कैसे ले जायेंगे? बसें ठूंसकर भरी जाती है। एक रुट पर एक बस देने के चक्कर मे बिना उसमे आनेवाले पार्टियों को एलाट कर दिया जाता है। जबतक पोलिंग पार्टी अपना सामान लेकर और मिलान कर बस मे बैठे तबतक पुलिस पार्टी सभी सीट हथिया कर बैठ जाती है। अब क्या करे क़ोई? प्रशासन द्वारा बड़ी बड़ी बसों मे भरकर पार्टी भेजी जाती है परंतु गांव की गलियों या शहरों की संकरी गलियों मे बसें नही जा सकती ।फलतःकभी कभी पैदल काफी दूर तक चलना पड़ता है। सबसे मूलभूत समस्या चुनाव मे कागजी पेशबंदी की है। पीठासीन को बिना मतलब के अनेक ऐसे प्रारुप भरने पड़ते है, लिफाफे बनाने पड़ते हैं जिसका कोई उपयोग नही है। वस्तुतः यह बाबा आदम के जमाने से चला आ रहा है। चुनाव आयोग को इसे सिम्पलीफाई करना चाहिए। पीठासीन को एक प्रारूप छपे डायरी देनी चाहिए जिसमे समस्त वांछित सूचनाएं भर दी जाय और बक्से या ईवीएम के साथ वो एकमात्र डायरी जमा हो। बाकी कुछ नही। पोलिंग पार्टी जब जमा करने लौटती है तो जमीन पर चादर बिछा कर काम करने लगती है। कई सदस्य भाग खड़े होते हैं। पीठासीन की जिम्मेदारी बस्ता जमाकरने की है पर अन्य सदस्य बिना रिलीविंग के भाग खड़े होते हैं जो गलत है। इस संबंध मे भी सुधार की आवश्यकता है।ऐसे मे भला कोई कैसे आराम से चुनावी ड्यूटी करना चाहेगा!

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