टीस तो रहेगी

कालेज मे था जब अचानक सुनने को मिला, अब हम सबको सरकारी नौकरी नही मिल पाएगी। पहले तो समझ मे नही आया !" क्यों भाई ? कौन सा अपराध किया है? बताया गया तुम्हारे पुरुखों ने किया है, अब तुम लोग झेलो!"  यह तो वज्रपात था उस समाज के लिए । मध्यवर्गीय बिहारी समाज मे सरकारी सर्विस की अहमियत युपी - बिहार के लोग आसानी से समझ सकते हैं।खेती कर नही सकते थे, जातीय बाध्यता और  सामाजिक प्रतिष्ठा आड़े आ रही थी। अब जिसने भी कहा हो, कहते थे" ब्राह्मण जब हल की मूठ पकड़ता है तो अकाल पड़ जाता है"! जरूर किसी चालाक ब्राह्मण ने शारीरिक मेहनत से अपने को बचाने के लिए हल्ला उड़ाया होगा!" उद्योग धंधा भी नही था न,दस से पांच वाले सरकारी स्कूलों से पढे थे ,जहाँ छठी क्लास से अंग्रेजी का ए बी सी डी पढाना प्रारंभ होता था तो मल्टीनेशनल  या प्राइवेट कंपनियों मे घुसने मे दिक्कत थी, जहाँ फर्राटेदार इंग्लिश स्पीकिंग को जाब मिलती थी हालांकि उस समय मल्टीनेशनल कंपनियों ने आना ही शुरू किया था तो ऐसे मे नौकरियों मे स्कोप कम होने से जैसे वज्रपात हुआ। संपूर्ण देश जल उठा था और हमलोग भी उसमे आंदोलित थे, अपनी अपनी क्षमता भर! संकीर्ण जातीय  सिस्टम मे रचे बसे बिहारी समाज मे इसका जमकर प्रतिरोध और समर्थन हुआ। " ब्राह्मण साफ, राजपूत हाफ, भूमिहार माफ और लाला  तो हमारा साला है" स्लोगन के साथ गलियाया जाना शुरू हो गया  था।राज्य से पलायन की गति तीव्र हो गई। उस समय राजनीति, सामाजिक न्याय, समानता, आरक्षण, पिछड़ापन, वामपंथ जैसे भारी भरकम शब्दों से साबका नही पड़ा था। तो हमारी पीढी सीधे इस व्यवस्था की भुक्तभोगी बनी और बाकी जो हमें मिला वो डबल मेहनत और किस्मत की बात थी। योग्यता - अयोग्यता के अंतहीन बहस मे जाना बेकार है। सबके पास अपने तर्क हैं और प्रमाण भी।लेकिन उसकी टीस तो मन मे कहीं न कहीं रहेगी जरुर, भले उसे जाहिर कर पा रहे हों या नही! ये स्वाभाविक है और इसे मानने मे किसी को गुरेज भी नही होना चाहिए। अरे भाई जिससे आप छीनोगे, वह छटपटायेगा कि नही?बोलेगा ,चिल्लायेगा, यह तो नेचुरल है। भारतीय संविधान भी बाप द्वारा किए गए हत्या के बदले फांसी बेटे को नही देता! हाँ! समाज मे जरुर वंश दर वंश दुश्मनी चलती रहती है।हालांकि  ये अच्छा हुआ कि इससे कुछ वंचितो को मौका जरूर मिला और सामाजिक न्याय का दौर प्रारंभ हुआ पर इसने कालांतर मे वंचितो के अंदर नये" सुविधा भोगी वर्ग" एक नयी सो काल्ड ब्राह्मण वादी व्यवस्था को जन्म दे दिया।" कितने पाकिस्तान" की तरह व्यवस्था के भीतर व्यवस्थाओं ने जन्म ले लिया है। उस वर्ग को भी ये शब्द उसी तरह तीखे लगते हैं , जैसे हम जैसों को लगते हैं। आज सामाजिक न्याय व्यवस्था पर उनकी बपौती कायम हो गई है।यह उनके आपस की लड़ाई है, हमलोग तो बाहरी हैं, मूक दर्शक! अभी आप कहेंगे! ये इस समय कौन सा " राग सामाजिक न्याय" छेड़ दिया है। वस्तुतः बिहार मे जो उसके बाद अगड़ो- पिछड़ो का भौकाल बनाकर सता भोगने का दौर चला वो बदस्तुर जारी है। अब यह पिछड़ा- पिछड़ा के मध्य सता संघर्ष है! पिछड़ा- महापिछड़ा का विमर्श भी जीवित है और यह संघर्ष चलता रहेगा। सो काल्ड अगड़े तो भाग चुके हैं बिहार से। --- नान रेजीडेट बिहारी! पर अपनी जड़ो से कटे नही हैं तो वहाँ जो भी होता है उनपर भी असर होता है।
खैर राजनीतिज्ञों के चाल ,चरित्र और चोंचलों को समझना सबके बस की बात नही। कौन कब पलटी मार जाय! पर टीस तो बनी रहती है... यहाँ उपर बायीं ओर... छाती मे!..

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