स्क्रीनिंग
"कोई आया है क्या?" राजिन्दर ने मेन गेट से घुसते हुए कहा" दरवाजे पर किसकी कार खड़ी है?
" बिहारी काका आये है! कल रात मे आये! छुटकी के मधुश्रावणी मे नही आ पाये थे! ओझाजी से मिलना था!" मै बोला।
" लेकिन ये तो बिहारी काका की गाड़ी तो है नहीं! न नीली बत्ती लगी है और न नंबर प्लेट पर " प्रदेश सरकार" लिखा है! इसीलिए दाऊट हुआ कि बिहारी काका आये हैं!" राजिन्दर ने कुर्सी पर बैठते कहा! तबतक अंदर से बिहारी काका भी अंगैईठी करते निकले और पीछे से रामपुरवाली चाची चाय लेकर आ गई। राजिन्दर भी चाय सुड़ुकने लगा।
" हौ राजिंदर! का कहें, लगता है अबतो सरकारी नौकरी का कोनों चार्म ही नही रह गया। पहले नीली बत्ती हट गयी। उसी का पब्लिक ,गांव समाज मे भौकाल बनता था। कहीं गये तो साहब साहब कहके लोग सम्मान देते थे पर अब तो जाके बताना पड़ता है कि हम साहब हैं। बताओ ईहो कोई इज्जत है?" काका का दर्द निकल पड़ा था।
मै बोला" चाचाजी! सरकार तो वीआईपी कल्चर खत्म करना चाहती है। समाजवाद लाना चाहता है। ऐसे सारे प्रतीक जिससे कोई खास बन जाता है उसे समाप्त करना चाहती है।"
" हौ बाबू! सुनो !क्या नीली और लालबत्ती मात्र स्टेटस सिंबल था। क्या ला एड आर्डर और इंफोर्समेंट मे इससे असर नही पड़ता! तुम बताओ यदि कहीं जाम लगा है ,दंगा फैला है वहाँ तुम सबको बताते फिरोगे कि तुम मजिस्ट्रेट हो! दंगाई और बदमाश तो बत्ती देखते ही भाग जाते थे।रात मे नीली और लाल बत्ती चमचमाती चलती तो दूर से ही लोगों को पता चल जाता और शांति कायम हो जाती थी।
"लेकिन चचा जी! ई त बड़का बेईज्जती हो गया। सरकारी अधिकारी तो दू टका के आदमी हो गया। अब गाड़ी पर "प्रदेश सरकार या शासन " का सिंबल भी नही रहेगा तो कौन अगुआ- वर्तुहार किसी दरवाजे पर पैर रखेगा। अऊर तो सुने है कि पचास बरिख के बाद सरकारी विभाग मे भी "छंटनी" शुरू हो गया है। अब बताओ न तो " ऊपरी कमाई" रही, न " जाब सिक्योरिटी" रही और न "बत्ती" का हनक रहा।तब काहे कोई इसके लिए मगजमारी करेगा।" राजिन्दर ने बिहारी चाचा की दुखती रग पर हाथ रख दिया।
" हां! बेटा ये तो है। अब तो लगता है बस किसी तरह सही सलामत कट जाय! अब सरकारी और प्राईवेट मे कोनो फर्क ही नही है। सबको जैसे काम करने का भूत सवार हो गया है। सतर साल मे जो सब न हुआ ऊ सब एक्के दिन मे बदल जाएगा। चाहे इसमें सब पिस कर भूर्ता बन जाय।" चाचा ने गहरी सांस लेते हुए कहा।
मुझे उनके चेहरे पर एक गहरी उदासी और विरक्ति के भाव दिख रहे थे।वो शुन्य की तरफ ऐसे देख रहे थे जैसे "पचास बरस की स्क्रीनिंग " मे उनका नाम आ जाये तो उनको मोक्ष प्राप्त हो जाय।मै यह कहने की स्थिति मे नही था कि" स्क्रीनिंग" से अयोग्य और अक्षम लोग बाहर हो जायेंगे और कार्यक्षमता मे वृद्धि होगी। उनके चेहरे पर फैली उदासी मे मै यह कहने का साहस न कर सका।और उनको गोड़ लागकर चुपचाप वहाँ से चल दिया।
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