भंसाली का जौहर प्रेम

" खामोशी " से देवदास बनाने वाले भंसाली श्री " हम दिल दे चुके सनम " जैसी प्रेम कहानी बनाये तो तो कभी "गोलियों की रासलीला" करते करते अब इतिहास मे " ई एच कार" की तरह यूं घुस गये हैं कि कभी मराठों से खेलते हैं तो कभी राजपूताने से! फिल्में बनाना तो कोई इनसे सीखे! " द ग्रेट शोमैन" बनने के चक्कर मे  सेट और गेटै पर इतना पैसा लुटा देते हैं कि स्क्रिप्ट, कहानी, गीत ,संगीत सभी अपने से करते हैं। स्वाभाविक है बजट बड़ा होने पर भी "प्रोमोशन"  के लिए पैसा कम पड़ जाता होगा, तो ये शगल सबसे आसान है कि " कोई नाम न हुआ जबतक बदनाम न हुए "! फिल्में विवादित कराना करोड़ों की डीलिंग है। फिलिम बनाने से पहले स्क्रिप्ट राइटर से बजाब्ते इस बात पर प्लानिंग की जाती है कि फिल्म के किस हिस्से मे विवादित दृश्य, कथ्य आ डायलॉग रखे जायें।  धर्म, जाति, संप्रदाय , क्षेत्रीयता आजकल हिट है , इस पर चोट पहुंचा कर विवाद उत्पन्न किया जा सकता है, यदि कोई संस्था या समाज इंट्रेस्ट नही ले रहा हो तो पत्रकारों , मीडिया और अपने एन जी ओ के माध्यम से इसे उछलवाया जाता है।   अब बात करते हैं  फिल्मों के हिट होने के फार्मूले की तो जितना ज्यादा लोग देखने जायेंगे ,वो हिट हो जाएगी तो उसके लिए  पब्लिसिटी होनी चाहिए। इस तरह के विवादों के चलते बिना खर्च किए मीडिया मे सुर्खियां बटोरने का मौका मिल जाता है।टीवी पर बिना खर्च किए न्यूज और स्टोरी कवरेज होती है। बड़े बड़े पैनलिस्ट बैठकर बहस करते हैं, प्रचार तो यूं हो जाता है।   वाकई भेड़िया धसान युग मे जी रहें हैं हम सब! हम कभी पढने - समझने की जहमत नही उठाते की हमारा इतिहास भूगोल क्या है? फुर्सत किसे है? पर कोई कह दिया कि " कौआ कान ले कर भागा जा रहा है" तो लाठी लेके कौआ के पीछे दौड़ पड़ते हैं। अपना कान चेक करने की जहमत भी नही उठाते! आज लाखों करोड़ों ,जो हाय! पद्मावती हाय! पद्मावती ! चिल्ला रहे हैं, कभी भंसाली जी के ज्ञानवर्धक इतिहास? के प्रोपगेंडा और मुफ्त के विज्ञापन से पूर्व नाम भी नही सुने रहे होंगे! उनसे पूछते की कौन थी ? तो बोलते" बाहुबली " की माहिष्मती के समान  कोई नाम या कोई फिलिम की हिरोईनी होगी।  आज उनको आन बान शान का प्रतीक बताने वाले राजपूताना के बाहर थोड़ा बहुत इतिहास प्रेमी और जायसी के काव्यप्रेमी ही जानते थे, भंसाली ने उसे पूरी हिन्दू जाति की अस्मिता का प्रतीक बना दिया। ये भी कहा जाता है कि मलिक मुहम्मद जायसी की " पद्ममावत" ने इनका गरिमा मंडन किया। इससे पूर्व इन्हें कोई जानता भी.नही था। कभी कभी तो शक होता है कि कहीं कवि की कल्पना ही न हो, जिसने अपने काव्यों मे उसे जीवित कर दिया। हो सकता है रतनसिंह की प्रेमिका रही भी हो और अलाउद्दीन का दिल उसपे आ भी गया हो तो उससे क्या? " जौहर" किया था उसने, अलाऊद्दीन को शौहर नही चुना था! फिर भी जिस तरह पद्मिनी को भंसाली ने प्रचारित करवाया है।ऐसे मे हमें तो भंसाली सरकार को इतिहास मे " नोबल प्राइज" ( नव सृजित)देना चाहिए। जो काम वर्षों से इतिहास को दिशा और दशा देनेवाले वामपंथी इतिहासकार न कर पाये ,एक फिल्मकार ने कर दिया। इतिहास पर फिल्म विवादों का अखाड़ा है जिसमें अब आमिर खान तो दंगल करेंगे नही, यह काम भंसाली के जिम्मे है  जहाँ मुफ्त की पब्लिसिटी मिल जाती है।खलिहर लोगों की यहां कमी नही है।यहां तो दो शाम के खाने के बदले मे दिन भर बैठकी लगाते हैं तो भीड़ जुटाना कौनसी बड़ी बात है?  यहाँ तो जमीन पर थूक दो और बैठकर गौर से देखने लगो तो थोड़ी देर मे चारों ओर भीड़ जुट जाएगी और उसका अपने अपने हिसाब से विश्लेषण करने लगती है। चुनावों मे हजारों की आजीविका, मोटरसाइकिल के तेल, दिन मे दो बार खाना और शिम मे दारू की बोतल पर चलती रहती है और भोली जनता समझती है नेताजी के पीछे काफी भीड़ जुटती है।देखिएगा जिस दिन फिलिम रिलीज होगी, उस दिन सनीमा हालों के सामने कितनी भीड़ जुटती है! देखने वाले जिज्ञासा मे जायेंगे और रोकनेवाले भीड़ का हिस्सा बनकर! आम जनता या भीड़ इनके हाथों मे खिलौना है जिससे सभी खेल रहे हैं चाहे करणी सेना हो,राजनीतिक दल हो या श्रद्धेय 108 भंसाली जी हों!

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