मैथिल शादी के बारे में

मैथिल शादी सिया और राम के विवाह के समान है जिसमें दूल्हा राम तो दुल्हन सिया सुकुमारी है।अमूमन सारे गीत सिया राम के गीतों पर आधारित है। दुल्हा रघुबर हैं तो बेटी सिया के समान। " बड़ा रे जतन से सिया जी न पोसलऊं , सेहो सिया राम नेने जाय!"  विदाई तो जैसे हरेक बार सीता का ही होता है। विवाह की प्रत्येक विधि मे सीता राम, मिथिला अवध, जनक दशरथ के आचार विचारों का जिक्र है। एक ओर तो यह सबसे आइडियल शादी मानी जाती है दूसरी ओर सीता जैसा भाग्य कोई अपनी बेटी के लिए नही चाहता क्योंकि सीता जी ने हमेशा कष्ट ही झेला। दूल्हा मिले तो राम जैसे, ससुर दशरथ जैसे और देवर लक्ष्मण जैसा पर कोई अपनी बेटी को पच्छिम बियाहना नही चाहता क्योंकि माना जाता है पश्चिम मे बियाह करने के बाद ही सिया सुकुमारी का भाग्य खराब हो गया,उसे काफी कष्ट झेलने पड़े। सीता ससुराल मे कभी सुखी नही रही। चौदह वर्ष का वनवास झेला, रावण ने अपहरण किया, लौट के आई फिर भी भाग्य मे सुख नही बदा था। राम ने परित्याग कर दिया। राम भले ही आदर्श पुरुष माने जाते हों पर आदर्श पति साबित नही हुए। उसी घटना के बाद मिथिला मे बेटी पश्चिम नही बियाहते बल्कि बेटा बियाहते हैं।पूरब का संस्कार अच्छा माना जाता है, यदि बहू पूरब की होगी तो बच्चों और परिवार का संस्कार अच्छा होगा।रघुवंश भी संस्कारी हो गया था।मैथिली शादी समाज का प्रतिबिंब है।इसमें"पालो" की पूजा होती है। पालो जो बैलों को कंधे पर डाल कर हल से बंधा होता है। यहाँ पालो जिम्मेदारी का प्रतीक है। " उखल मूसल मे धान डालकर " ओठंगर" कूटा जाता है। यहां यह " उत्पादन या सृजन का प्रतीक है, वस्तुतः विवाह सृजन हेतु उद्योग या उद्यापन है।नई जिंदगी सृजन का शुभारंभ होता है जिसमें समाज का सहयोग होता है, इसीलिए दूल्हा के साथ सात गणमान्य लोग मिलकर ओठंगर कूटते हैं।दूल्हा जब आता है तो "परीछन" या परीक्षण किया जाता है कि सबकुछ सही है या नही? दूल्हा को कपड़ा सबके सामने बदलना होता है, यहीं उसका आइ क्यु टेस्ट भी गांव की धाकड़ महिलाएं लेती है जो कई मायनों मे अश्लीलता का पुट लिए होता है। "बिधकरी" दूल्हे का नाक पकड़कर "विवाह वेदी "का चक्कर लगवाती है।" विधकरी अर्थात जो दुल्हन की ओर से सारे विधि विधान को संपन्न करती है।" कन्या परीक्षण" मे दूल्हा को दो समान रूप से घूंघट काढे लड़कियों मे से अपनी होनेवाली दुल्हन को पहचानना होता है। सफल रहने पर उसे वह विवाह वेदी पर ले जाता है। एक विधि मे विवाहिता के सर से पल्लू पति हटाता है और ससुर पल्लू से सिर ढंकता है जो इस बात का प्रतीक है कि ससूर बहू को अपने घर की इज्जत और प्रतिष्ठा समझता है।पहले मैथिली विवाह मे विधि विधान और कर्मकांड पर जोर होता था ,फोकसबाजी या शोर शराबा नही होता था।अब तो मैथिल शादी भी पाश्चात्य या फिल्मी रंग मे रंगने लगा है। अभी एक शादी मे एक आदमी आकर बोला" कि ओ महाराज,ई स्टेज काहे को बना है, जयमाल होगा? बाभन मे त ई सब नही होता था! मै बोला" क्या करेंगे ,लड़का वाले के हिसाब से चलना होता है! वो सब चाहते हैं, पहले हमलोगो मे इसका प्रचलन नही था!" महाराज! आप सबमे शादी से पहिले समाज के सामने बहू बिना घूंघट के आ गई तो फिर बाद मे काहे का लाज धाक!" मै बोला" समाज बदला है ,खुलापन आया है, घूंघट प्रथा समाप्त है, फिर शादी एकबार होती है, सब शौक पूरा कर लेना चाहिए! उसकी बातें विचारणीय तो थी ही कि मैथिली शादी अब अपने परंपरा, विधि विधान के बजाय पंजाबी कल्चर से ज्यादा प्रभावित प्रतीत होती है। लेकिन इस शादी की सबसे खराब बात लगती है मांसाहार! जब आप कोई शुभ कार्य कर रहे हैं तो उस अवसर पर जीव हत्या क्यों! मैथिल बिना माछ मांस के खाना नही खायेंगे, वो भी एक एक किलो! पता नही कौन से पेट मे खाते हैं?दही तो दो तीन किलो खाते यह कहकर कि यह तो पानी है पेशाब से निकल जाएगा। सौ सौ रसगुल्ला तो रस गाड़कर सिठ्ठी के रुप मे सिर्फ काउंटिंग के लिए खाते हैं। एक गैर राज्य के निवासी ने मैथिली शादी अटैंड करने के बाद कहा कि" अरे! आपके यहाँ तो ठूंस ठूंसकर खिलाते हैं, इतना प्यार से और आग्रह से पूछ पूछकर खाना परोसते है कि जल्दी मना करना भी अच्छा नही लगता। सिंकिया पहलवान भी खाने मे बाजी लगाकर जीतते हैं।अब तो इस शादी मे द्विरागमन विवाह के तुरन्त बाद होने लगा है। चतुर्थी मे दूसरी शादी की विधि तो मात्र परंपरा या सिम्बोलिक रह गया है।चार दिन तक दूल्हा दुल्हन को मिलने नही दिया जाता था ,उनका संपर्क बिधकरी के द्वारा होता था पर अब किसे फुर्सत है?जब ये नियम बनाये गये रहे होंगे तब शायद बाल विवाह होता रहा होगा। "घर भुजी भांग न बूढ़ा खैताह चूड़ा"! लड़का पैदा करना तो बियरर चेक पैदा करने के समान है भले ही घर पर छप्पर न हो, जोतने को एक कठ्ठा खेत न हो और नौकरी के नाम पर हैंड टू माउथ हो पर दहेज तो चाहिए ही।लड़के वाले दहेज तो ऐसे मांगते हैं मानो जबसे बेटा पैदा किए हैं, उसी दिन से उसपर किए सारे खर्चों को डायरी पर नोट करके सिर्फ इसलिए रखे हुए हों कि उसके होनेवाले ससुर से सब लेना है।यदि बेटी की  शादी करानी है तो उनके लाडले के लालन पालन पर हुए सारा खर्च सूद समेत दीजिए, पर बेटे पर हक उनका ही बना रहेगा। अरे भाई! जब बेटे का मोल ससुराल वालों ने चुका दिया तो कानूनन उसपर ससुराल का हक बन जाता है पर तुर्रा यह कि ससुराल का पक्ष क्यों लेते हो?यदि आपको लड़का पसंद है पर उसके बाप द्वारा मांगे गये दहेज को चुकाने की कूबत नही है तो पकड़ गैंग से मिलिए ,वो आपको एक न्यूनतम धनराशि के एवज मे लड़का को उठाकर लाएगा और "पकड़ विवाह" करवाएगा।या फिर" बेटी बेचना"बन जाइए अर्थात उन लोगों से पैसे लेकर बेटी को विवाह कर दिजीए जिनकी आसानी से शादी न होती हो।कहते हैं कुवांरी तो कोई कन्या नही रहती भले ही मनमाफिक जोड़ी न बने। यह दहेज प्रथा न जाने कब मैथिल समाज को अपने चंगुल से मुक्त करेगा?

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