बाबुल मोरा नैहर छुटल जाय..

घाट से आते ही माय डलिया, कुड़वार आ ढकिया मे जो प्रसाद छठी माई को अर्घ्य दी होती है ,उसको उसरगती है और सभी को मिलाकर प्रसाद देना शुरु कर देती है। भले ही अपने व्रत मे दो दिन की निर्जला उपवास की होती है पर सबको प्रसाद खिलाने के बाद ही अपने मुंह मे अन्न रखेगी। जैसे खरना के दिन का मिठ्ठा(गुड़) वाला खीर का स्वाद बिसरते नही बनता है, उसी तरह आज सुबह सुबह ठेकुआ, कसार, लड्डू, खाजा का पंचमेड़, खजूरी खाकर मस्त हो जाता हूं। असल मे जो स्वाद इस समय का होता है, भले ही बाद मे आप कितनी बार गुड़ की खीर बनबा लो, वह स्वाद नही आ पाता।यह  स्पेशल है इस पर्व मे! हाथी(मिट्टी का)  के उपर जो ऊंख टंगा रहता है उ,मे से माली कहेगा" हमको एक दे दीजिए"! माय कहती है" तू सब तो गांवे मे रहते ह़ो, खाने दो इन सबको, ये लोग फिर ऊंख कहाँ पायेगा? वो बेचारा ऊंख को बांधने मे उपयोग किया गया, चनमा लेकर संतोष कर लेता है।हम ऊंख को लेकर पालथी मारकर बैठ गये। छीलने मे मसूडा़ छिल जाता है, खाने की आदत छूट जो गई है । याद आता है स्कूल का वो दिन जब हमलोग बैलगाड़ी पर लदे ऊंख के पीछे पीछे दौड़ते रहते थे और गाड़ीवान के आंखों से जरा ओझल हुए कि ऊंख का लग्घा खींचकर यह ले वो ले.. पार! एक बार एक गाड़ीवान हम सबको ताड़े हुआ था, जैसे ही हमलोग ऊंख का लग्घा खींचे कि उसने जोर से घुमाकर बैल को हांकने वाला डंडा फेंककर मारा, एक लड़के का लोल (होंठ) फट गया। उस समय तो सब भाग लिए, लेकिन उसके लोल को सिलवाना पड़ा। हम सब काफी सालों तक उसे " लोल चिर्रा" कहकर चिढाते रहे। माय को लगता है ,परदेशिया बेटा पुतोहु  सब आये है, उसको क्या क्या खिलाये, पर इन्हे रहना कितने दिन है?। "नहाय खाय से एक दिन पहले तो आये हो और आते ही कहने लगते हो, परना के दिन जाना है!" तो आते क्यों हो? साल मे एक बार तो आते हो!इससे भला आते ही नही! अब तो अगले साल से व्रत ही छोड़ दूंगी। किससे लिए करती हूं, तुम्ही लोगों के लिए न! आओगे नही, तो बच्चा सब प्रसाद क्या खायेगा"! रोने लगती है! जितनी तैयारी आने से पहले होती रहती है, जाते वक्त गांव छोड़ना वाकई अखरता है। छठ के दो तीन महीना पहले से प्लानिंग बनना शुरू हो जाता है,ये सब ले जायेंगे, गांव का फलाना काम भी निपटा लेंगे, मिसेज बोलेगी" लहठी इधर नही मिलता है, इसबार तीन जोडी लेते आयेंगे," नहाय खाय से एक दिन पहिले पहुंचेंगे, उस दिन जायेंगे तो माय पूजा की तैयारी करेगी कि हम लोगो का आगत-स्वागत! हम लोग पाहुन बनकर थोड़े न हंकार पूजने जा रहे हैं। छठ मे इतना काम होता है, गंभरी का धान सुखाना, कूटना फिर साफकर पिसाना। उसी का भूसवा बनता है! अरे! याद आया भूसवा को दूध मे डालकर केला मिलाकर खाओ!इतना स्वादिष्ट की सीधे स्वर्ग मे पहूंच जाओगे! अप्रतिम आनंद! गंभरी स्पेशल धान  होता है जिसका उपयोग सिर्फ पूजा के कार्यों मे ही होता है। अब लोग इसकी खेती कम करने लगे है, छठ मे इसके डिमांड के चलते इसका भाव भी दुगूना तिगुना हो जाता है।पहले तो इसे ढेंकी मे कूटते और जांता मे पिसा जाता था । उस समय गांव घर  की काकी, दाई सब मेरे घर मे दोपहर बाद जुटती थी। जब सब अपने घर के मर्दों को खाना खिला देती थी निश्चिंत होकर आती और गीत गाते हुए ढेंकी चलाती, लगता त्योहार के दिन आ गये हैं।क़ोई इसी बीच मे चावल उसकाती रहती, क़ोई दो मिलकर जांता मे पिसाई भी करती रहती। यह सब सामुहिक रुप से पर्व मनाने का जरिया था। अब तो चक्की मे पिसाते कूटाते हैं।सब  एक दूसरे घर जाने से परहेज करता है और ढेंकी जांता चलाने का मेहनत भी कौन करे? इसी से तो इतनी बिमारी बढ रही है । सिलौट तो अभी भी शहर गांव मे दिख  जाता है पर ढेंकी- जांता तो विलुप्त हो गये। तो छठ ऐसा उत्सव है जिसमे सब अपने गांव जाना चाहते हैं, सभी बाहर रहने वालों और ग्रामीणों से मुलाकात हो जाती है। हमारी असली पहचान तो वहीं से है न, जहाँ हमें लोग मेरे नाम, पिता, दादा के नाम से जानते है। आजकल ओहदे क़ो भी महत्व देने लगे हैं,गांव वाले। तो दो चार दिन मे ही, चौक पर जाना, लंगोटिया मित्रो से मिलना, रोड पर मूढ़ी कचरी और कच खाना, काकी और भऊजी लोगों से मिलना, दरवाजा पर बैठकी करना, घाट सजाना, सब करना होता है, एकदम्मे फुरसत नही होता। मिसेज बार बार बच्चों को दरवज्जा पर भेजकर खाना खा लीजिए ,तब बैठकी आ गप्प सरक्का करिएगा, का संदेशा भिजवाती रहती है, कई बार दरवाजे का पल्ला जोर से हड़हडा़ने पर उठकर खाना भी खा लेते हैं। रात मे सुनना भी पड़ता है " बड़ा मजा आता है, भउजी सबसे हंसी ठहाका करने मे। यहीं रह जाईये।" हम मुस्कुरा कहते हैं " क्यों जलती हो? यहाँ बंधन मे जो पड़ी हो! घर से बाहर तो निकल सकती हो! कुछ दिन तो आजाद महसूस करने दो! धमकी नजरों से भी मिलती है"चलो! वहाँ तब बताती हूं"।हह..हा..! मै  तो मजाक कर रिया था!  तो कितना जल्दी जाने का दिन आ जाता है।बच्चों को भी यहाँ अच्छा लगता है। " दादाजी कह रहे हैं आज रुक जाओ! रुक जाते है! फिर तो अगले साल ही आना है!"क्या बताऊं, बच्चों को! जाना कौन चाहता है?  परना के अगले दिन भोरे भोर ट्रेन पकड़ना है। दोपहर बाद पैकिंग चालू। कहीं कुछ छूटा तो नही! जाने दो कुछ छूट जाएगा तो तूम जब आना त़ो लेते आना" माय को बोलता हूं तो बोली भर्रा जाती है। न जाने कैसे इन मौकों पर आंखो मे बिना बात के पानी आने लगता है। " बाबुल मोरा नैहर छूटल जाय!" मायका सिर्फ लड़कियों का नही छूटता, आजकल लडके भी गांव छोड़कर अपने नौकरी पर जाते वक्त कुछ ऐसा ही महसूस करते है।जो ट्रीटमेंट टिपिकल ससुराल मे बहूओं के साथ होता है क्या उससे कम लडको के साथ आफिस या फैक्ट्री मे थोड़े न होता है! हम बैग मे बच्चों के कपड़े सहेज रहे होते है तो माय एक मोटरी मे ठेकुआ, खजूरी, सठौरा(भूसवा), टिकरी, मिठाई आदि बांधकर ले आती है।" इसे रखलो, परसाद है, खा लेना और अपने दोस्तों - पड़ोसियों को भी दे देना! ज्यादा सामान ले तो जाओगे नही! नवका धान का चूड़ा कूटवाये है, आधा बोरिया लेते जाओ, शहरी चूडा मे वो स्वाद और मिठास कहाँ है?चूड़ा दही और नवका गुड़ की भेली! आत्मा तृप्त हो जाती है।" अचानक दरवाजे पर जोर से खटखटाहट हुई तो आंखें खुल गई और मै उठ बैठा! तो सपना देख रहा था मै। इस साल तो मेरे ससुराल (आफिस ) वालों ने नैहर जाने का मौका ही नही दिया। सपना भले ही था पर आंखों मे पानी असली था। उधर माय के आंखो मे होगा, जो परसाद बांट रही होगी टोला मुहल्ला मे! और एक हाथ से अंचरा से बार बार नोर भी पोंछ रही होगी।

Comments

  1. You have emotionally drained me out. This is most of our's incident at least once in lifetime. By reading your post I have relive the memory of my childhood and adulthood. But now all that is a memory of past.

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