सामा चकेवा और उतरायणी का मेला

आज के " एन आर जी" (नान रेजीडेंट ग्रामीण)परिवारों के शहरुआ बच्चे तो शायद सामा चकेवा और चुगला का नाम भी न जानते हों और गांवों मे भी शहरी कल्चर के अंधानुकरण ने इस को भुलाने का काम किया है फिर भी यहाँ शाम होते ही घर दरवज्जा से ये गाने जरूर सुनाई पड़ने लगते हैं।"सामा खेलय गेलियइ हो भइया, लाल भऊजी के अंगना, लाल भउजी हो भइया देलखिन लुलुआय कि छोडू ननदी मोर अंगना हे!" छठ खत्म होते ही घर घर मे सामा चकेवा के गीत गूंजने लगते है। चंगेरा मे सामा चकेवा और पटुआ के रेशों से बने चुंगला को लेकर लड़कियाँ किसी न किसी के दरवाजे पर जम जाते और गोल घेरे मे बैठकर सुमधुर गीत गाते हैं। इसे लोक खेल भी कह सकते है जिसमे डाला फेरा जाना और चुंगला को झड़काना मजेदार होता है। सभी के भाई , बहन और भौजी का नाम लेकर गाना ,अपनापन दर्शाता है। किंवदंती है कि सामा कृष्ण की बेटी थी जिसे चुंगला के भड़काने पर कृष्ण ने शाप देकर पक्षी बना दिया था। चकेवा जो सामा का भाई था, ने तपस्या कर फिर से सामा को मानव रुप दिलवाया। यह लोकगीत समा चकेवा भाई बहन के अमर प्रेम की गाथा कहता है। गाने के बाद चुगला को आग लगाकर झुलसाया जाता है। रामायण मे जैसे भरतजी को पता चलता है कि मंथरा ने उसकी माता कैकेयी को भड़का कर भैया राम को वनवास दिलवाया है तो मंथरा को लातों से पीटते है, वही हाल चुगला या चुगलखोर का होता है।भाई बहन के गीत मे भउजी विलेन बनी होती है जो ननद भौजाई के नोक झोंक के रुप मे गीतो मे सुनाई पड़ती है। आज अर्थात कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि मे सामा चकेवा की मूर्ति को नदी मे भंसा दिया जाता है । भोरवे से हमलोग उतरायणी नहाने निकल जाते थे। क्या बच्चे बूढ़े, जवान , महिलाएं, सभी पूर्णिमा के पवित्र स्नान मे भाग लेती । चार पांच किलोमीटर पैदल चलना कोई भारी नही लगता। नदी मे डुबकी लगाने की भी अपनी कला है। यदि दोनों हाथो से अपने दोनो कानो को बंदकरके  डुबकी नही लगाई तो कान मे पानी चला जाएगा। यदि चला जाता तो गरदन झुकाकर एक पांव पर कूदते हुए पानी निकालने लगते थे। जब पानी निकलता तो जैसे लगता जैसे गरम लावा निकल रहा हो। बालू से पैर क्या सिर भी भर जाता ,पर मजा आता। किसी तरह इज्जत बचातेऔर भीड़ मे कपड़ा पहनते औरतें, लड़कियाँ सामूहिकता मे डूबी होती। अवारा लड़को की नजरों से बचाने के लिए महिलाएं एक घेरा बना लेती जिसके बीच वो कपड़ा बदलती पर आस्था का समंदर उन्हे खुले मे स्नान करने को बार बार प्रेरित करता है। मेला मे मूढ़ी कचरी, कच, बचका, जिलेबी खाने का अपना आनंद है।पानी भरभरके फुच्चुका खाना आज  चाट, डोसा, से सैकड़ो गुना मजा देता था।अब तो तेतारी, ऊंख का रस पेरकर गिलास मे बिकने लगा है पर लौटते वक्त खेतों से चुराकर ऊंख तोड़ना, पहरेदार द्वारा गरियाया जाना, दौड़ाया जाना आदि के बाद  तेजी से भागना और थककर गाछी के नीचे बैठकर उसे चूसना, स्वाद बढा देता था। लगता था जैसे ओलम्पिक मे मेडल जीत आये हैं। जो पकड़े जाते मार भी खाते थे।पर घर आकर बताते नही क्योंकि यहाँ और मार पड़ती। ग्रामीण अंचल की कई किशोर प्रेम कहानियां इन मेलों मे जन्म लेती है और जवां होती है लेकिन सिर्फ आंखों और इशारों मे, क्योंकि उनपर समाज के बड़े बुजुर्गों का पहरा हमेशा लगा होता था।  जब कई सालो के बाद जब वे वापस उन मेलों मे मिलते हैं तो लड़कियां तो गोद मे बच्चे उठाये होती और लड़का अभी भी जिन्दगी  की जंग लड़ रहा होता है। लड़कियों की शादियां बड़ी जल्दी कर दी जाती थी। "बेटी बिआहे गंगा नहाये"!तो जल्दी से सब गंगा नहाना और बेटी से उऋण होना चाहते थे।।ये वैसे मेले नही होते हीरामन और नौटंकी की पतुरिया वाली कहानी मे दिखता है बल्कि यह एक दिन का टेम्पररी मेला होता था जो लखनदेई नदी पर लगता था जहाँ नदी की धारा उतर की ओर बहने के कारण उसे "उतरायणी" भी कहा जाता है।मेलों मे इनको अकेले नही छोड़ा जाता था बल्कि सबको बड़े बुजुर्गो की निगरानी मे भेजा जाता था। इन मेलों मे जाना सभी घर के लड़का लड़कियों को एलाऊ नही था।बड़े घर वाले पैदल नही बल्कि टायर गाड़ी या बैलगाड़ी से जाते थे।  आस पास के कोई रिलेटिव मिल जाते तो गुलाब जामुन और बादशाही मिठाई भी मिल जाता था। उस समय आस पास के गांवों मे ही शादी ब्याह होता था तो कई  के नानी गाम या किसी के बहन भाई के ससुराल के लोग मिल जाते और वहीं कई लड़के लड़कियों की शादी भी इन मेलों मे ही फाइनल हो जाता था।" चट मंगनी पट बिआह"!  "नान रेजिडेंट ग्रामीण" जेनरेशन को यह कार्तिक मेला अजुबा सा लगेगा और वे इसे सिर्फ सिनेमा घरो मे ही देख पाते होंगे पर उस फीलिंग को समझना इतना आसान नही है। शायद वो कभी इसे समझ भी न पायें।

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