स्वामी विद्यानंद और दरभंगा महाराज

स्वामी विद्यानंद

 भारत मे धर्मगुरुओं और स्वामियों की महत्ता हमेशा से रही है। यहाँ तक कि ब्रिटिश शासनकाल मे सामाजिक और धार्मिक आंदोलनों के साथ किसान और आदिवासी आंदोलनों मे भी इनकी भूमिका बढचढकर रही है। वो चाहे संन्यासी विद्रोह हो, मोपला विद्रोह हो या बीसवीं सदी का किसान आंदोलन। स्वामी सहजानंद तो किसान आंदोलनों के प्रणेता ही माने जाते हैं । उनसे पुर्व दरभंगा मे किसानों को संगठित करने और उनकी आवाज को पूरजोर तरीके से उठाने का श्रेय स्वामी विद्यानंद को जाता है।। बीसवी सदी के दूसरे दशक के अंत तक भारत मे लगभग  92% लोग अपने जीविकोपार्जन हेतु कृषि कार्य में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संलग्न थे। लेकिन कृषि की पद्धति पुरानी  और भू राजस्व व्यवस्था अत्यंत शोषणमूलक थी। कतिपय कारणों से कृषि अर्थव्यवस्था अत्यंत हानिकारक हो गई और कृषक वर्ग निर्धन होता चला गया।अधिकांश किसान जमीन से बेदखल होने पर बटाई दार और भूमिहीन मजदूर बन गए तथा उनकी भूमि जमींदारों के पास चली गई। लार्ड कार्नवालिस के स्थायी बंदोबस्त ने बिहार मे दरभंगा राज, हथुआ राज,बेतिया राज,डुमरांव राज,पातेपुर राज,छोटानागपुर राज जैसों को जमींदारी का दर्जा दे दिया और उन्हें भू राजस्व वसूलने का अधिकार दे दिया। इसकी आड़ मे इन जमींदारों द्वारा किसानों का शोषण प्रारंभ हुआ। शोषण के साथ विरोध भी होना शुरू हो गया।

1917 में चंपारण मे निलहे  कृषकों की समस्याओं को लेकर महात्मा गांधी ने  सत्याग्रह किया। सत्याग्रह की सफलता ने छपरा (सारण) के विभूशरण प्रसाद उर्फ स्वामी विद्यानंद एवं अन्य किसानों को भी शोषण और अत्याचार के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा दी। जून 1919 ई. में मधुबनी जिला के नरौर गांव से किसानो को दरभंगा राज के विरुद्ध आंदोलन के लिए स्वामी विद्यानंद (विभूशरण प्रसाद) ने संगठित करना प्रारंभ किया।लगान वसूली के क्रम में दरभंगा राज के गुमाश्तों के अत्याचार के विरोध और जंगल से फल और लकड़ी प्राप्त करने के अधिकार  को मुख्य मुद्दा बनाया।  उन्होंने जमीदारी प्रथा की बुराइयों को उजागर किया और  कृषकों को जागृत किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1920 के नागपुर अधिवेशन के "कर नहीं दो नारा "के आलोक में बिहार की कुछ स्थानों पर जमींदारों को लगान नहीं दिया। धीरे धीरे इसका विस्तार धीरे-धीरे पूर्णिया, सहरसा, भागलपुर, और मुंगेर जिला तक हो गया.  दरभंगा महाराज ने आंदोलन का प्रभाव नष्ट करने के लिए प्रांतीय किसान सभा का गठन 1922 ई. में कराया जिसके    सचिव राय बहादुर शिवशंकर झा थे। कालांतर में महाराजा ने किसानों की कुछ मांगें स्वीकार कर ली और इसके बाद यह आंदोलन शिथिल पड़ गया परंतु समाप्त नही हुआ। आगे चलकर स्वामी सहजानंद के "बकाश्त आंदोलन" मे दरभंगा के किसानों ने सक्रिय भूमिका निभाई।

नील की खेती

‘दि नदिया सेटलमेंट रिपोर्ट' जो बंगाल के नील खेती करनेवाले किसानों की दयनीय स्थिति को उजागर करती है, उसके अनुसार  किसानों द्वारा बिना अवैध धन दिये या घूस दिये किसान बच्चा पैदा नही कर सकते,बाल नही मुंडन करा सकते,शादी नही कर सकते, शवदाह नही कर सकते। यही हाल उतरी बिहार के निलहे किसानों की भी थी। बंगाल मे नील विद्रोह को देखते हुए दरभंगा के पंडौल नील फैक्टरी क्षेत्र के किसानों ने जनवरी, 1867 में  नील की खेती का बहिष्कार कर दिया।मौजा एकबाड़ी, परगना भौर के किसान गोविंद झा की जमीन को मालगुजारी न देने के कारण पंडौल कोठी के मैनेजर मिस्टर एच एल गेल द्वारा जबर्दस्ती ले लिया गया था। निलहों ने ठेकेदार देवी प्रसाद के माध्यम से मालगुजारी जमा करवा दिया और उस पर नील की खेती करवाना चाह रहे थे। नील फैक्ट्री और किसान मे जमीन की मिल्कियत का विवाद संघर्ष में बदल गया। तिरहुत के कमिश्नर ए टी मैक्लेन के निर्देश पर मधुबनी के सहायक मजिस्ट्रेट एम बार्बर ने सीआरपीसी की धारा-62 के तहत फैक्टरी मालिक को नोटिस जारी कर दिया कि रैयत की सहमति के बिना ‘असामीवार' जमीन पर खेती नहीं हो सकती। इसी तरह लोहट फैक्टरी के मालिक को यही नोटिस भेजी गई। नील की खेती के लिए किसानों की सहमति आवश्यक थी परंतु फैक्टरी मालिक इसका उल्लंघन कर जबर्दस्ती खेती करवाते थे। किसान प्रशासन के इस कदम से खुश थे।परंतु तनाव बरकरार था। क्षेत्र में पुलिस की पर्याप्त व्यवस्था की गई थी ताकि फैक्टरी के लठैत बदमाशी न करें। मैनेजर गेल के विरुद्ध किसान लक्ष्मण पासवान और माधो राउत द्वारा मुकदमा दायर कर  सरकार से मांग की गयी कि पमामले की जांच के लिए एक आयोग का गठन किया जाये। लेकिन  किसान मुकदमा हार गये और उन्हें जेल जाना पड़ा। दरभंगा के जिला पदाधिकारी जॉन बीम्स ने सरकार को जो प्रतिवेदन भेजा, वह किसानों के हित में ही था। स्थानीय प्रशासन की किसान परक रिपोर्ट के बावजूद  सरकार यह मानने के लिए तैयार नहीं थी कि निलहे फैक्टरी मैनेजर जबरदस्ती कर रहे हैं।1880 में दरभंगा महाराजा ने घोषणा कर दी कि उनके राज में नील की खेती नहीं होगी। 19 वीं सदी के अंत में, दरभंगा एस्टेट के 47 प्रतिशत फसली क्षेत्र का उपयोग चावल की खेती के लिए किया गया था और  तीन प्रतिशत क्षेत्र पर नील की खेती हो रही थी। लेकिन बेतिया चंपारण मे नील की खेती बदस्तूर जारी रही और महात्मा गांधी के सत्याग्रह के बाद ही वहाँ नील की खेती करनेवाले किसानों की स्थिति मे सुधार हुआ।

चंपारण मे नील खेती

दरभंगा के पंडौल के किसान आंदोलन की लहर चंपारण भी पहुंची। नीलहे किसानों की स्थिति कमोबेश एक जैसी ही थी। फैक्टरी मालिक शोषण और बंदिशों से परेशान गांव टप्पा, मधौली, नुनौर के किसानों मीर इनायत करीम, दउलीशाह कलवार, हरि राऊत कुर्मी आदि ने 30 मार्च 1868 को  सरकार को फैक्टरी मालिकों के विरुद्ध आवेदन दिया। फलतःआक्रामक होकर  मालिकों ने लाला हरचरण पटवारी को बरखास्त कर दिया ।लगभग बीस हजार  किसानों ने भी प्रतिक्रिया स्वरूप आक्रोशित होकर पटना के कमिश्नर के समक्ष प्रदर्शन किया। लेकिन यहां सरकारी तंत्र फैक्टरी मालिकों के पक्ष मे था।किसानों पर अत्याचार आरंभ हो गये।उन्हें झूठे मुकदमों में फंसाया जाने लगा। न्यायालय का चक्कर लगाने में  गरीब किसान तबाह होते गये। सन् 1868 में बंगाल के गवर्नर को  एक आवेदन दिया गया जिसमे हरि राउत, राम सहाय महतो, शिवचरण महतो, बदूर महतो, शेख हुसैन, भोला सहाय, प्रयाग लाल आदि किसानों ने मांग की कि मजदूरी की दर में वृद्धि की जाय, बैलगाड़ी और हलवाहों की मजदूरी में भी वृद्धि हो। लेफ्टिनेंट गवर्नर ने यह कहकर कि यह मांगें मानना उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है, पल्ला झाड़ लिया। इधर दमन चक्र जारी था। फैक्ट्री मालिकों और स्थानीय प्रशासन के गठजोड़ ने किसानों को तबाह कर रखा था। अनेक किसानों को जेलों में बंद कर दिया गया था। जेल से ही किसान  भिखारी महतो, झोंटी साहू, खोबारी महतो एवं परमेश्वर पांडेय ने फिर से आवेदन पत्र भिजवाया कि फैक्ट्री मालिकों ने उनकी जमीनों पर कब्जा कर लिया हैऔर जबर्दस्ती नील की खेती करवा रहे हैं। परंतु यह मांग भी रद्दी की टोकरी मे फेंक दी गई।किसान आवेदन देते-देते थक चुके थे। चंपारण के लाल सरैया कोठी का मालिक मि्स्टर मैक्लिऑड  की बड़ी हनक थी। इनका रहन सहन राजसी था। किसानों ने इसके मौजा जौकटिया में नील की खेती करने से मना कर दिया और दूसरा फसल लगा लिया जिससे किसानों और फैक्टरी मालिकों के मध्य संघर्ष प्रारंभ हो गया।  1867 में किसानों ने मि. मैक्लिऑड के राजसी बंगले में आग लगा दी, जो सत्ता के प्रति विद्रोह का सूचक था। घटनाओं की जांच के लिए आयोग गठित करने की मांग ठुकरा दी गई परंतु नैतिक रुप से सरकार दबाव मे थी। सरकार ने जब फैक्टरी मालिकों पर किसानों के साथ जबर्दस्ती न करने बल्कि मानवीयता बरतने का दबाव बनाया तो  फैक्टरी मालिकों ने 1877 में बिहार इंडिगो प्लांटर्स एसोसिएशन की स्थापना कर ली।




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