अघोरी



अंग्रेज इतिहासकारों ने भारत को संपेरों, भूत प्रेतो और तंत्र मंत्र का देश कहा था। असल मे यह सब अंधविश्वास से जुड़ा मसला है। जाहिर है अशिक्षा के कारण अंधविश्वास और तंत्र मंत्र हावी होता है। इसका लाभ तांत्रिक मांत्रिक उठाते रहे हैं। वास्तविक अघोरी या तांत्रिक धन संपत्ति की लालच नही करते। जो इसके नामपर लोगों को उल्लू बनाते हैं, वो गांव घर मे लोगों को सब्जबाग दिखाकर ठगते हैं और कुकर्म करते हैं, वो ठग होते हैं। एक गांव मे जमीन के नीचे दबे सोने निकाल कर देने के लालच में किशोरी की बलि देने में उसके माता-पिता  को भ्रमित कर एक तांत्रिक ने  पिता के सामने पूजा-पाठ के नाम पर तांत्रिक ने किशोरी को न केवल नग्न किया बल्कि खेत में ले जाकर बलात्कार भी किया और फिर उसकी गला दबाकर हत्या कर दी। वास्तविक अघोरी ऐसे नही होते। वो जिंदगी का सत्य जानने को इच्छुक होते हैं।  अघोरियों के बारे मे कहा जाता है कि इन्होंने प्रेतात्मा को अपने वश मे किया होता है जिससे वो अपना काम कराते हैं। बहुत हदतक जैसे जिन्न से अपने काम कराया जाता हो। एकबार की घटना है जब गांव मे एक तांत्रिक बाबा आये थे। वो जब शाम मे बैठकर जमघट लगाते तो उस समय जिस चीज की डिमांड आदमी करता ,वो तुरंत मंगा देते। लौंग  इलायची तो वो मुठ्ठी बंधे हाथ को  हवा मे लहराकर ले आते। यहाँ तक कि एक बार कलकत्ता के मशहूर दुकान की मिठाई भी अपने प्रेत से मंगवा दिये थे। नारियल वगैरह तो आम बात थी। वो हमेशा किसी अदृश्य से बातें करते रहते थे। इस प्रकरण को अंधविश्वास को बढ़ावा दिये जाने के नामपर न लिया जाय। यह कुछ भी हो सकता है आंखो का धोखा, सम्मोहन विद्या या वाकई कोई चमत्कार। कहा जाता है कि इन तांत्रिकों को एक कान से सुनाई नही देता क्योंकि एक कान मे प्रेत बैठा होता है ,जिससे वो हमेशा बातें करते हैं और उसी से सारा काम कराते हैं। यहाँ ध्यान देनेवाली बात है कि फ्री मे वो कभी भी सामान नही मंगाते बल्कि उसका जो मूल्य होता था वो भी हवा मे भेज देते थे।  यह घटनाएं देखी सुनी हुई है। लेकिन अघोरपंथ के नाम पर लूटने वाले लोग भी  है। 

           अघोरपंथ शैव संप्रदाय में साधना की एक रहस्यमयी शाखा है। अघोरियों की पहचान यही है कि वे किसी से कुछ मांगते नहीं है ।अघोरी को कुछ लोग औघड़ भी कहते हैं। अघोरियों को डरावना या खतरनाक साधु समझा जाता है। साधना के पूर्व मोह-माया का त्याग जरूरी है। मूलत: अघोरी उसे कहते हैं ,जिसके भीतर से अच्छे-बुरे, सुगंध-दुर्गंध, प्रेम-नफरत, ईर्ष्या-मोह जैसे सारे भाव मिट जाएं। सभी तरह के वैराग्य को प्राप्त करने के लिए ये साधु श्मशान में कुछ दिन गुजारने के बाद पुन: हिमालय या जंगल में चले जाते हैं।अघोरी खाने-पीने में किसी तरह का कोई परहेज नहीं नहीं करता। अघोरी सड़ते पशु का मांस भी बिना किसी हिचकिचाहट के खा लेता है। अघोरी लोग गाय का मांस छोड़कर बाकी सभी चीजों का भक्षण करते हैं। मानव मल से लेकर मुर्दे का मांस तक। अघोरपंथ में श्मशान साधना का विशेष महत्व है। अघोरी मे शोध प्रवृत्ति होती है मृत्यु के रहस्य के बारे मे। हालांकि क्रियाविधि वैज्ञानिक न होने के कारण इसे मुख्य धारा से विपरीत माना जाता है।ये जानना चाहता है कि असल मे मौत क्या है और वैराग्य क्या होता है। आत्मा मरने के बाद कहां चली जाती है? क्या आत्मा से बात की जा सकती है? कहते हैं अघोरी के पास भूतों से बचने के लिए एक खास मंत्र रहता है। साधना के पूर्व अघोरी अगरबत्ती, धूप लगाकर दीपदान करता है और फिर उस मंत्र को जपते हुए वह चिता के और अपने चारों ओर लकीर खींच देता है। फिर तुतई बजाना शुरू करता है और साधना शुरू हो जाती है। अघोरियों के बारे में मान्यता है कि वे बड़े ही जिद्दी होते हैं। अगर किसी से कुछ मांगेंगे, तो लेकर ही जाएंगे। क्रोधित हो जाएंगे तो अपना तांडव दिखाएंगे या भला-बुरा कहकर उसे शाप देकर चले जाएंगे।।कहावत है" अघोरिया डेराबे थूक से" मतलब जब कोई अघोरी कहीं थूक देगा तो वो स्थान या वस्तु अपवित्र हो जाएगा। आम जीवन मे जब को असामान्य तरीके खाता पीता है तो उसे अघोरी कह कर बुलाया जाता है। समाज मे एकतरह से अघोरी निकृष्ट माना जाता है। एक अघोरी बाबा की आंखें लाल सुर्ख होती हैं। कफन के काले वस्त्रों में लिपटे अघोरी बाबा के गले में धातु की बनी नरमुंड की माला लटकी होती है। नरमुंड न हो तो वे प्रतीक रूप में उसी तरह की माला पहनते हैं। हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध और पूरे शरीर पर राख मलकर रहते हैं। लेकिन अघोरी और नागा साधू मे अंतर होता है।


      कहा जाता है कि  आज से लगभग एक हजार साल पहले वाराणसी में 'अघोरियों' का जन्म हुआ था। शोधकर्ता विलियम क्रुक ने अघोरपंथ के सर्वप्रथम प्रचलित होने का स्थान राजपुताने के आबू पर्वत को बतलाया है, किंतु इसके बारे जानकारी नेपाल, गुजरात एवं समरकंद जैसे दूर स्थानों तक भी चलता है। कुछ लोग इसे गोरखपंथियों और गिरनार के गुरु दतात्रेय से भी जोड़ते हैं। इसके संबंध कापालिकों, पाशुपत और कालामुख संप्रदाय से भी जोड़ा जाता है। बनारस मे बाबा कीनाराम प्रसिद्ध अघोरपंथी हुए हैं। कुल मिलाकर अघोरियों को समाज का हिस्सा नही माना जाता और जो समाज मे रहते हैं वो सच्चे अघोरी नही होते।

         



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