बाढ रोकने के लिए इच्छाशक्ति की जरूरत है

वर्ष 1996 की जून माह की बात है जब  मै दिल्ली से गांव के लिए चला था। वैशाली एक्सप्रेस से मुजफ्फरपुर शाम चार बजे उतरा। मुजफ्फरपुर से मेरा गांव 45 किमी है। बैरिया स्टैंड से बस पकड़कर 20 किमी आगे आया। बस से उतरकर पैदल एक किमी चलने के बाद एक ट्रैक्टर मिला ,जो सवारियों को ढ़ो रहा था। बागमती नदी से 200 मी पहले उसने भी उतार दिया। नदी किनारे एक नाव पर सवार हुआ, जिसने उस पार उतारा। फिर कुछ दूर पैदल व ट्रैक्टर के सहारे रुन्नी गांव तक पहुंचा ,जहाँ से मिनी बस मिली और अपने गांव प्रेमनगर रात बारह बजे पहुंच पाया। कुल मिलाकर इस 45 किमी दूरी, मैने आठ घंटे मे तय की। मै अकेला नही था ,हजारों लोग इसीतरह सीतामढ़ी से मुजफ्फरपुर आ जा रहे थे।  दिल्ली से घर पंहुचने के किस्से के पीछे वो दृश्य दिखाना था कि बाढ़ ने उस जमाने मे आवागमन की क्या हालत कर दी थी। यह वह जमाना था, जब सीतामढ़ी- मुजफ्फरपुर मार्ग पर हरेक साल पांच -छः महीने के लिए डायरेक्ट बस सेवा बंद हो जाती थी। छोटी गाड़ी से मुजफ्फरपुर आने के लिए 100 किमी का चक्कर काटकर पुपरी-जाले होकर आना पड़ा। बागमती नदी पर उस समय पुल नही था और हरेक साल पुराना पुल पानी मे डूब जाता था।। असल मे बाढ़ तो काफी पहले से उतरी बिहार वासियों की नियति बन चुकी है। भले ही अब इस नदी पर पुल बन चुका है , अब आवागमन कभी बंद नही होता और नदी को तटबंधों से बांध दिया गया है परंतु बाढ़ की विभीषिका इस क्षेत्र मे यथावत है।

       बिहार में बाढ़ से फैलने वाली तबाही  मुख्यतः नेपाल से आने वाली नदियों  कोसी, नारायणी, कर्णाली, राप्ती, महाकाली जैसी नदियां नेपाल के बाद भारत में बहती है। 

बरसात मे कोसी, गंगा, महानंदा, बागमती, बूढ़ीगंडक, परमान, कनकई व अधवारा समूह की नदियों में पानी खतरे के निशान के ऊपर चला आता है। वास्तव मे पहाड़ो की तलहटी या तराई क्षेत्र मे बाढ़ आने की समस्या स्वाभाविक है, क्योंकि जब पहाड़ों मे बारिश होती है या बादल फटता है तो पानी नदियों के माध्यम से तेजी से तराई और मैदानी क्षेत्रों की ओर फैलता है। मैदानी क्षेत्रों मे अचानक अत्यधिक मात्रा मे पानी तीव्र गति से आने के कारण नदी के पाटों से उपर यह फैलता है और गांवो शहरों को अपने मे समाहित कर लेता है। ऐसा नही है कि बाढ़ से बिहार आज प्रभावित हुआ है बल्कि आंकड़े बताते हैं कि पिछले सत्तर सालों मे लगातार इसमे वृद्धि ही  हुई है। एक आंकड़े के अनुसार वर्ष 1952 में बिहार मे जहां कुल बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 25 लाख हेक्टेयर था ।यह  2020 मे बढ़ कर  68.8 लाख हेक्टेयर हो गया है जो लगभग तीन गुणा है। उत्तरी बिहार की लगभग 76 प्रतिशत आबादी हर साल बाढ़ से प्रभावित होती है। युं तो हिमालय के तराई क्षेत्र मे  उतराखंड, उतरप्रदेश, बिहार, प. बंगाल, असम राज्य का हिस्सा आता है जो हमेशा बाढ़ प्रभावित रहता है परंतु बिहार मे देश के सबसे ज्यादा बाढ़ प्रभावित इलाका आच्छादित है।देश के कुल बाढ़ प्रभावित इलाकों में 16.5 प्रतिशत इलाका बिहार का है। बाढ़ से प्रभावित होने वाले देश की कुल आबादी का 22  प्रतिशत हिस्सा बिहार का ही है। जल संसाधन विभाग, बिहार सरकार के आंकड़ों के अनुसार बिहार का करीब 68,800 वर्ग किलोमीटर का इलाका हर साल बाढ़ में डूब जाता है। नेपाल से निकलने वाली बागमती नदी,कारछा नदी , कोसी,कोनकाई नदी, कमला नदी, गंडक नदी बिहार आती है पर सबसे ज्यादा तबाही कोसी मचाती है। कोसी को " बिहार का शोक" भी कहा जाता है। बिहार में नदियां सिर्फ नेपाल से ही नहीं आती है बल्कि उतरप्रदेश से भी नदियाँ आती है ,पर इन नदियों से बाढ़ का कहर इतना ज्यादा नही फैलती क्योंकि ये नदियां अपने पानी धार पहले ही कुंद कर चुकी होती है।

           चुंकि बिहार के बाढ़ का मुख्य कारण नेपाल की नदियां है, इसलिए स्वाभाविक है कि जबतक नेपाल से प्रयास नही होंगें ,बाढ़ आती रहेंगी। उत्तर बिहार को बाढ़ से मुक्ति दिलाने के लिए वर्ष 1897 से भारत और नेपाल की सरकारों के बीच सप्तकोसी नदी पर बाँध बनाने की बात चल रही है। सन् 1991 में दोनों देशों के बीच इसे लेकर एक समझौता भी हुआ था।  1937 में इसके लिए प्रस्ताव भी आया और तब से इसके लिए वार्ता ही चल रही है। 1953 मे तात्कालिक प्रधानमंत्री नेहरू ने भी इसके लिए प्रयास किया था। चार जगहों पर यह बांध नेपाल प्रक्षेत्र में ही बनना है परंतु नेपाल की रुचि ज्यादा न होने के कारण फलीभूत नही हो सका है।असल मै ये नदियां नेपाली क्षेत्रों मे तबाही नही लाती बल्कि वहां ज्यादा पानी होने पर बिना पूर्व सूचना के पानी नदियों मे छोड़ दिया जाता है। फलतः यहाँ बाढ़ आ जाता है। आजादी के दशक मे कोसी पर बैराज बनाया गया परंतु तटबंध टूटते रहे और बाढ़ की विभीषिका बढ़ती रही है।असल मे बांध बनाना भी बाढ़ की समस्या का हल नही है । नही तो आज़ादी के वक़्त बिहार की नदियों पर कुल 160 किलोमीटर की दूरी तक तटबंध बने थे और आज की तारीख़ में कुल 3800 किलोमीटर तक लम्बे तटबंध बनाकर राज्य की नदियों को दोनों तरफ़ से बांध दिया गया है। अगर तटबंध बनाना ही समाधान होता तो इतने लंबे तटबंध बनाने के बाद बाढ़ हमेशा के लिए रुक जानी चाहिए थी लेकिन ऐसा नही है। उल्टे तटबंधों के टूटने के बाद आनेवाले बाढ़ से क्षति अधिक हो रही है। असल मे खराब योजना, गलत क्रियान्वयन और जलनिकासी की अपर्याप्त व्यवस्था के कारण तटबंध टूटते रहे हैं और बाढ़ तबाही मचाती रही है।

                 प्रसिद्ध पर्यावरणविद, गंगा शोध केंद्र के संस्थापक और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, आईआईटी में सिविल इंजीनियरिंग के प्रोफ़ेसर  यूके चौधरी बाढ़ को 'नदी के पेट में बन रही रेत के गोले' से संबंधित मानते हैं। जब नदी को तटबंधों में बांध दिया जाता है तो उसके पेट में रेत और गाद का स्तर लगातार बढ़ता रहता है। नया पहाड़ होने के कारण हिमालय से आनेवाली नदियां अत्यधिक मात्रा मे गाद और कीचड़ लाती है। पहाड़ी क्षेत्र मे नदी का बहाव तीव्र होने के कारण उसे मैदानी क्षेत्रों तक लाती है परंतु ढलान कम हो जाता है और ये सिल्ट या गाद नदी की पेटियों मे जमा होकर रेत के टीले बन जाते हैं। नदी की पेटी उथली हो जाती है और पानी का बहाव फैल जाता है। यह आवासीय क्षेत्रों मे चला जाता है।इसके अतिरिक्त बिहार में जलग्रहण क्षेत्र (कैचमेंट एरिया) में पेड़ों की लगातार अंधाधुंध कटाई से पानी रुकता नहीं है और आबादी वाले क्षेत्र में फैल जाता है। नेपाल में भी पत्थरों के उत्खनन व खेती के लिए जंगलों की अंधाधुंध कटाई की गई।इसलिए  जल अधिग्रहण क्षेत्र में कमी आने से बारिश का पानी रूकने की बजाए तेजी से बहकर नीचे चला आता है।इसके अतिरिक्त  नेपाल के ऊपरी इलाकों में भारी वर्षा की सूचना भारत में देर से मिलती है। समय से सूचना मिलने पर बचाव के काम पहले से किए जा सकते हैं। भारत व नेपाल की सरकारों ने एक-दूसरे को बाढ़-सूचना देने की व्यवस्था विकसित की, पर इसमें आमतौर पर 48 घंटे का समय लगता है। इतना ही नही नदियों के दोनों ओर शहरीकरण और अनियंत्रित निर्माण से नदियों का नुक़सान हो रहा है । सूखे मौसम में लोग फ़्लडप्लेन में और धारा के बीच तक में घर बना ले  रहे हैं । वही घर बरसात मे पानी से भर जाते हैं।

               बाढ़ की विभीषिका और उससे होनेवाले हानि को कोई झूठला नही सकता परंतु  प्राकृतिक रुप से नदियों को पेयजल और उपजाऊ मिट्टी का स्रोत माना गया है। हमेशा से मैदानी क्षेत्र नदियों के कारण उपजाऊ बना रहा है। इसी सकारात्मक सोच के साथ बाढ़ के सकारात्मक पक्ष को रखनेवाले और बिहार की बाढ़ की समस्या और निराकरण पर दशको से कार्य कर रहे श्री दिनेश मिश्रा जी मानते हैं कि बाढ़ आना तराई क्षेत्र और मैदानी क्षेत्र के लिए लाभप्रद भी है। रेत के साथ-साथ जो गाद आती है, वह उत्तर बिहार के खेतों को उपजाऊ बनाती है। यदि नदियों को रोक दिया गया तो खेती और जीवन के लिए पानी कहां से आएगा? इससे तो पूरे इलाके के बंजर हो जाने का खतरा बढ़ जाएगा।बाढ़ के 10-15 दिनों की परेशानी झेलने के बाद यहां के खेत अच्छे उपजाऊ हो जाते, जलस्तर अच्छा रहता और  तालाब आदि सब भर जाते हैं। 

                यहाँ  एक तथ्य विचारणीय है कि जब हिमालय की तराई मे लगभग 2500 किलोमीटर का लंबाई वाला क्षेत्र और अनेक राज्य आते हैं तो सिर्फ बिहार मे हिमालयी नदियों से आनेवाली बाढ़ की इतनी विभीषिका क्यों है? उतरप्रदेश और उतराखंड मे भी नेपाल से अनेक नदियां आती है। यहाँ भी बाढ़ आता है परंतु इतने हानिकारक नही होते। एक छोटा सा उदाहरण पीलीभीत का उल्लेखनीय है कि यहाँ नेपाल की काली नदी, जो यहाँ शारदा नदी के नाम से बहती है।इसपर शारदा सागर डैम है जिसमे से कंट्रोल तरीके से नहरों के माध्यम से पानी जमा और निकाला जाता है। शारदा नदी पर बनबसा बैराज है जहाँ से नियंत्रित तरीके से पानी शारदा नदी मे छोड़ा जाता है,इसके पानी का उपयोग टनकपुर परियोजना मे बिजली उत्पादन मे किया जाता है। उतराखंड से आनेवाली नदियों का पानी नानकमत्ता सागर मे जमा किया जाता है ,जहाँ से अधिक होने पर दोहा नदी मे छोड़ा जाता है। जाहिर है यहाँ डैम, बिजली परियोजना, बैराज के माध्यम से नदियों का पानी कंट्रोल किया जाता है, ऐसे मे यहाँ आनेवाली बाढ़ की विभीषिका कम होती है। स्वाभाविक है कि सहायक नदियों के द्वार पर तथा नदी बेसिन इलाके में छोटे जलाशय और चेक डैम बनाने को बाढ़ रोकने का प्रभावी उपाय माना जा रहा है। चेक डैम छोटे आकार के होते हैं इसलिये इनसे पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचता, साथ ही इन पर लागत भी कम आती हैं। बाढ़ के समय  अतिरिक्त आये  पानी को नहरों से दूसरी जगहों तक पहुँचाना, नदी के अपस्ट्रीम में जलाशय बनाना, नदी बेसिन इलाके में पानी जमा कर रखने के उपाय करना, कृत्रिम रूप से जमीन से नीचे के पानी को निकालना ताकि बाढ़ से आने वाले पानी को जमीन सोख ले, यह ऐसे उपाय हैं जिनके माध्यम से बाढ़ को कंट्रोल किया जा सकता है।

                        अब पुनः लेख के आरंभ मे प्रस्तुत कहानी की ओर लौटता हूँ।  स्पष्ट है यदि राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो कुछ भी हो सकता है। रोड बनाये जा सकते हैं, पुल बनाये जा सकते ,बांध और नहर बनाये जा सकते हैं। नेपाल से हमारे संबंध इतने भी खराब नही हैं कि वह हमें बार्डर पर बांध परियोजना बनाने से रोक सके। सिल्ट सफाई सिर्फ कागजों मे हो जाता है और खराब सड़कें बाढ़ मे बह जाती है। तटबंधों मे चूहे बिल बना देते हैं ताकि सबकुछ रफा दफा हो सके और बड़े बड़े बजट हरेक साल बाढ़ आपदा राहत मे आते रहें। झेलता तो सिर्फ आमजन है जो बरसात के महीनों मे अपने सगे संबंधियों के साथ प्लास्टिक की छत और टाट के घर मे सड़कों के बीचोबीच रह रहा है और हरेक साल रहने को अभिशप्त है।

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