मिथिला मे पोखरा(तालाब)

पग पग पोखरि माछ मखान

मधुर बोल मुस्की मुखपान

यै अछि मिथिलाक पहचान।

जाहिर है पोखरि अर्थात पोखरा(तालाब) का महत्व मिथिला के  जन-जन मे रचा बसा है।यहाँ बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी से ही कर्मकांडो मे पोखर-यज्ञ के माध्यम से पोखरा खुदवाया जाने लगा था। पुण्य के लोभ मे, सिंचाई एवं जल की अन्य आवश्यकताओं तथा यश कीर्ति की आकांक्षाओं के कारण मिथिला मे पोखरा खुदवाने की परम्परा बहुत प्रचलित थी। जाने अनजाने मे यह कार्य पर्यावरण और जल संरक्षण की दिशा मे अद्भुत कार्य था। तालाबों से न केवल पृथ्वी का जल स्तर बना रहता है बल्कि बर्षा जल भी संरक्षित होता है। पोखरा मुख्यतः राजा महाराजा एवं जमींदारों द्वारा खुदवाया जाता रहा है। साथ ही समाज के सक्षम लोग भी अपनी यशकीर्ति के लिए पोखरा खुदवाते थे। मध्यकालीन इतिहासकार ज्योतिरीश्वर के वर्णरत्नाकर (चौदहवीं शताब्दी) में भी इस क्षेत्र के सरोवर और पोखरे का वर्णन है।उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लिखी गई पुस्तक " आईना-ए-तिरहुत" मे  मिथिला के  प्रसिद्ध पोखरों का विवरण है।बिहारी लाल फितरत, जिन्होंने गाँव-गाँव घूमकर और सर्वेक्षण कर आईना-ए-तिरहुत की रचना की,के अनुसार दरभंगा मे उस समय हजारों पोखरे विद्यमान थे। शहर के प्रमुख तालाब हराही, दिग्घी और गंगासागर का सौंदर्यीकरण तत्कालीन दरभंगा महाराज रुद्र सिंह ने कराया था। 18 वीं सदी में इनका सौंदर्यीकरण रईस हाजी मोहम्मद वाहिद अली खान ने कराया था। लेकिन इसके बाद इन तालाबों के संरक्षण और सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं की गई। बाढ़ग्रस्त इस क्षेत्र मे खेती तो तबाह होने लगी थी परंतु पोखरों मे मछली और मखाने की खेती होती रही।इसके अतिरिक्त इसका उपयोग खेत की सिंचाई मे भी प्रमुखता से किया जाता रहा है। अंग्रेज इतिहासकार जार्ज ग्रिअर्सन की पुस्तक ‘बिहार पीजेन्ट लाइफ’ में भी बिहार में प्रचलित पोखरे से सिंचाई की चर्चा हैं।इतिहासकार जेएच केर ने बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में दरभंगा जिला की वैसी जमीन का आंकड़ा प्रस्तुत किया है जिसकी सिंचाई पोखरे से होती थी। 

      पोखरे का महत्व मिथिला के आम जन जीवन के समाज, धर्म और अर्थ व्यवस्था से जुड़ा हुआ है। आदमी के जन्म से लेकर विवाह, उपनयन संस्कार, कुमरम, मटकोर, मृत्यु संस्कार सभी का पोखरे से जुड़ाव है। छठ पूजा, जूड़ शीतल जैसे पर्व पोखरे से जुड़े हैं। पहले पोखरे से प्राप्त मछली, मखाना जैसी वस्तुओं का उपभोग गाँव अथवा इलाका में बिना खरीद-बिक्री के किया जाता था।देश के  प्रथम भूमि-सर्वेक्षण में गाँव के राजस्व रिकार्ड में पोखरे को  गैरमजरूआ आम या गैरमजरूआ खास के रूप में दर्ज किया गया अर्थात यह सार्वजनिक था। तब सामूहिक रुप से इसकी देखभाल और संरक्षण किया जाता था, पर बाद मे निजी मिल्कियत होने के कारण लोगों ने संरक्षित करने मे रुचि नही दिखाई। अभी भी मिथिला मे गांव- गांव मे बड़ी संख्या मे तालाब दिख जायेंगे। लगभग चार दशक पूर्व में दरभंगा जिले में तालाबों की संख्या 3924 थी। इसमें 1623 सरकारी व 2301 निजी थे। वर्ष 1964 के सरकारी दस्तावेजों  में सिर्फ दरभंगा शहर में 364 तालाब थे। वर्ष 1989 में जब मिल्लत कालेज दरभंगा के वनस्पति विज्ञान के प्रो एसएच बज्मी ने शहर के तालाबों का सर्वेक्षण किया था और उन्होंने यहाँ 213 तालाबों का जिक्र किया था। मखाने और वेटलैंड पर शोध करनेवाले प्रो. विद्यानाथ झा ने भी दरभंगा जिले के सूखते हैंडपंपों के दृष्टिगत जलस्तर की गंभीर समस्या को उल्लेखित किया है। वर्ष 2016 में दरभंगा नगर निगम के अनुसार शहर में सिर्फ 84 तालाब बचे हैं। इसका तात्पर्य है कि अत्यधिक संख्या मे तालाबों को भर कर आवास या खेत बना लिया गया। दरभंगा शहर के बीचोबीच स्थित तीन बहुत बड़े  पुराने तालाब दिग्घी पोखरि, हराही पोखरि और गंगा सागर पोखरि को अतिक्रमण का दंश सहना पड रहा है।1974 में रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र ने तीनों तालाबों को भूमिगत कर पर्यटन स्थल बनाने की घोषणा की। लेकिन, आज तक सर्वे व डीपीआर बनाने से आगे तक का कोई कार्य नहीं किया गया। मिथिला के पोखरों पर समाजशास्त्री श्री हेतुकर झा ने विस्तृत रूप से लिखा है। श्री अनुपम मिश्र का तालाबों पर कार्य अद्वितीय है। उनकी पुस्तक " आज भी खरे हैं तालाब" पठनीय है। जल पुरुष राजेंद्र सिंह ने भी पोखरों के संरक्षण के लिए कार्य किया है। "तालाब बचाओ अभियान" के तहत दरभंगा के श्री नारायण चौधरी ने मिथिला के दर्जनों तालाबों को नया जीवन प्रदान किया है।

तालाबों या पोखरों का महत्व इतना है कि सरकार इसे मनरेगा के माध्यम से पुनः खुदवाने पर जोर दे रही है।

प्राकृतिक को फिर से बेहतर बनाने के लिए और जल स्रोतों के सही उपयोग के लिए बिहार सरकार ने "जल जीवन हरियाली योजना 2021" को शुरू किया है।इस योजना के अंतर्गत  सरकार किसानो को तालाब ,पोखरे बनाने और खेतो की सिचाई के लिए सरकार 75500 रूपये की आर्थिक सहायता प्रदान करती है। इस योजना के माध्यम से न केवल राज्य तालाबों के मेड़ों पर पेड़ लगाने पर जोर दे रही है बल्कि बारिश के पानी को तालाबों मे संरक्षित कर सिंचाई व्यवस्था सुदृढ करने की दिशा मे काम कर रही है।

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