ग्रामीण समाज मे बदलाव

।आज से बीस साल पहले हमारे गांव में जो धनाढ्य हुआ करते थे,आज उनका गांव मे कहीं स्थान नहीं है। उनके दरवाजे पर दिखने वाली बडी बडी बखारी,कोठी,पुआल के टाल खत्म हो चुके हैं! नव धनाढ्यो ने बहुमंजिला मकानों तथा बडी गाड़ियों से उनको काफी नीचे ढकेल दिया है।वास्तव में इन्होंने अपने आप को समय के साथ बदल दिया और जमीन -जायदाद को छोड़ कर नौकरी -व्यवसाय को वरीयता दी। पुराने लोग अपनी आन बान शान के चक्कर मे मुंछो को सम्भालते रहे! हालांकि विकास की अंधी दौड़ ने परंपरा,संस्कार,रीति रिवाज,तथा सामाजिक भाईचारे को कहीं पीछे छोड़ दिया ।पुरानी हवेली वाले अभी भी शाम के समय जाडे मे घुर(अलाव)के चारो ओर बैठे  बच्चो को  पुराने किस्से सुनाते मिल जायेंगे! लेकिन गांवो  का जो अंधाधुंध शहरीकरण हो रहा है,वो भी अधकचरा, जिसमें गांवों की मिट्टी की वो भीनी खुशबू कहीं खो सी गई है।फिर भी गांवों में जो अपनापन,पहचान और प्यार मिलता है वो शहरों में कहाँ? सभी यहाँ आपको आपके नाम,बाप दादा  के नाम से जानते हैं लेकिन  शहरो मे आपकी आजीविका और व्यवसाय से!!गावो में अभी भी प्रोफेशनलिज्म ने डेरा कम जमाया है।  यहाँ दिमाग की जगह लोगबाग दिल का ज्यादा ईस्तेमाल करते है!तभी तो आज भी जब गांव से दुर कोई अपना दिख जाता है तो चेहरे पर वो खुशी छलक पडती  है कि देखते ही बनता है! बदलना और समय के साथ चलना अच्छी बात है लेकिन आधुनिकीकरण के दौड़ में अपनी सभ्यता ‌‌‌‌- संस्कृति को भुल जाना बड़े ही दुःख की बात है । हमारी सभ्यता - संस्कृति  ही हमारी पहचान है, जो हमें अपनों से  बांधती है । चाहे कितनी भी आर्थिक बुलंदियो के शिखर पर हम क्यो  ना पहुंच जाये,वहाँ भी अपनो की   ही याद आती है!दिल करता है शयद कोइ हमे अपने नाम से जानने वाला ,आ जाय और   कहे" अरे फलाना बाबु का लईका इन्हा पहुंच गया!"" आखिररकार अपने ही तो अपने होते है! इसलिए केवल आर्थिक विकास जीवन में कोई मायने नहीं रखता जबतक समाजी विकास बराबरी पर न हो । गांवो में नए - नए धनवान जरुर पनप रहे हैं लेकिन हमारी सभ्यता ‌‌- संस्कृति कमजोर पड़ती जा रही है ,हमारे सम्बंध बिखरते जा रहे हैं!। जरुरत है हमारी सभ्यता ‌‌‌‌- संसकृति को रक्षा करने की ।तीव्रता से बदलाव विनाशकारी है!जरुरत  इसके दायरे मे रहते हुए बदलाव लाने की! कैसी विडंबना है कि गाँव हो या शहर...अपने चाहने वालों को इन्होने अपने से दुर खुद ही धकेल दिया है और अपनी नियति मान कर हम इस पर गाहे बगाहे इतरा भी लेते हैं , पर खोखली हंसी के साथ  ।  वस्तुत: जीवन तो गाँव में ही है,जो जीवंत है , शहर में तो केवल जीव है जो जीवनयापन मात्र करता है! समय किसी की जागीर नहीं होती,और बदलना तो सबको पडेगा!  इक दिन ऐसा आयेगा,जब गांव समाप्त हो जायेंगे और हम गांवो की सोंधी खुश्बु   को शहरी गलियो और पत्थरो के जंगल मे  ढुंढ्ते फिरेंगे,,और वो हमे कहीन ना मिलेगा!  तो  जनाब बदलेंगे  तो हम भी पर जरा आहिस्ता -आहिस्ता।  ...................एक पुरानी पोस्ट का विस्तार.साभार!दासता का मनोविज्ञान में व्यक्ति ये मान लेता है कि सत्ता किसी एक परिवार के लोग ही चला सकते है क्योंकि उस परिवार का खून ही विशिष्ठ होता है | या दूसरे शब्दों में ये भी कहा जा सकता है कि किसी परिवारवाद के नाम पर देश को इमोशनल ब्लैकमेल करना आसान होता है |और अंत में एक और मनोविज्ञान काम करता है वो है पितृसत्तात्मकता का मनोविज्ञान- इस मनोविज्ञान के अंतर्गत व्यक्ति कितना भी शिक्षित क्यों न हो जाये वो मालिक, राजा बनने के लिए अपने बेटे को ही आगे करता है | अब हमें गरीबों को दोष नहीं देना चाहिए कि वो बेटी को पहले व्याह देते है घर गृहस्थी चलाने के लिए, और बेटा अपनी मर्जी से शादी करता है मालिक बनने के बाद, क्योकि गांधी परिवार में भी वही हुआ जो कि देश का शिक्षित औए समृद्ध परिवार कहा जाता है

Comments

  1. अविनाश,इस ब्लॉग के लिए तुम्हें शुभकामनाएं !

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