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Showing posts from 2024

बुंदेलखंड में जलवायु परिवर्तन

इस साल गर्मियों के मौसम में बुंदेलखंड में बांदा का तापमान 49 डिग्री  सेल्सियस पहुंच गया था। पिछले 35 सालों में यह तीसरी बार है , जब बांदा में तापमान 49 डिग्री पहुंच गया।  पहली बार वर्ष 1981 में और इसके बाद 16 मई 2022 को यहां का तापमान 49 डिग्री सेल्सियस रिकार्ड किया गया था। उस समय बांदा, प्रदेश का  सर्वाधिक गर्म और देश में सर्वाधिक तापमान वाला तीसरा शहर था। जाहिर है कि बुंदेलखंड में गर्मियों के मौसम में तापमान बड़ी तेजी से बढ़ने लगा है। वर्षा के मामले में बुंदेलखंड हमेशा से कमी वाला क्षेत्र रहा है। यहां लगभग 1 हजार मिमी वार्षिक वर्षा होती है, जिसमें से लगभग 90% जुलाई और अगस्त के छोटी सी अवधि में होती है। सर्दियों के संबंध में बुंदेलखंड में एक कहावत है कि  “दशहरा से दसरैंया भर, दिवाली से दिया भर, ग्यारस से फांक भर और संक्रांति से गाड़ी भर ठंड आती हैं।” लेकिन अब इस प्रकार की सर्दी का मौसम यहां  नहीं रहता है।एक ओर इसकी अवधि घट गई है, लेकिन दूसरी  तरफ तीव्रता बढ़ गई है। पिछले साल सर्दियों  में चित्रकूट मंडल में तापमान 4 डिग्री तक नीचे गिर गया था। जाहिर है ...

संकट में है जंगली जीव

हाल के वर्षों में जंगली जानवरों के रिहायशी इलाकों में आने तथा इंसानों पर आक्रमण करने की घटनाएं  बड़ी तेजी से बढ़ी है। ऐसी घटनाएं ज्यादातर तराई इलाके एवं जंगलों के किनारे वाले इलाके में होती, क्योंकि जंगली जानवरों का  इंसानी बस्तियों में पहुंचना आसान होता है। इसी वर्ष सितंबर  में बरेली के बहेड़ी स्थित मंसूरगंज गांव में नदी के पास भेड़ियों ने हमला कर तीन लोगों को जख्मी कर दिया। उससे पहले मैनपुरी के जरामई गांव मे भेड़िए ने हमला कर एक युवक  को तथा बहराइच में एक युवती को गंभीर रूप से घायल कर दिया।  पीलीभीत में बाघ ने खेत में काम  कर रहे किसान पर हमला कर दिया। मेरठ में चलती बाइक पर तेंदुए ने हमला कर दिया। अमरोहा के मंडी के कुंआखेड़ा गांव में तेंदुए ने बकरियों को अपना निवाला बना लिया। वस्तुत यह सब घटनाएं जानवरों के जंगलों से बाहर निकलकर इंसानी बस्तियों में प्रवेश कर जाने के उदाहरण है। स्वाभाविक रूप से इससे  मानव वन्य जीव संघर्ष की संभावनाएं  बढ़ जाती है।             वस्तुत मानव-वन्यजीव संघर्ष तब...

जी एम फसलों का औचित्य

हाल ही में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने जीएम फसलों के संबंध में अपने एक निर्णय में सरकार को इस संबंध में नीति बनाने का निर्देश देते हुए जेनेटिकली मोडिफाइड (जी एम) फसलों की स्वीकृति संबंधी वाद को माननीय मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली मुख्यपीठ को भेज दिया है। जीएम फसलें शुरू से ही विवाद का विषय रही हैं। इसे मूल तौर पर प्रकृति  के साथ छेड़छाड़ और सस्टेनेबल डेवलपमेंट के सिद्धांतों के विपरीत माना जाता रहा है। जीएम फ़सल अर्थात आनुवंशिक रूप से संशोधित/संवर्धित फ़सलें। इनके डीएनए को आनुवंशिक इंजीनियरिंग की तकनीकों से बदल दिया जाता है। इस तकनीक द्वारा किसी बीज, जीव या पौधे के जीन को दूसरे बीज या पौधे में आरोपित कर एक नई प्रजाति विकसित की जाती है। इस प्रक्रिया में किसी बीज में नए जीन अर्थात डीएनए  को डालकर उसमें आवश्यकतानुसार गुणों का समावेश किया जाता है, जो उसके प्राकृतिक गुणों के अतिरिक्त होते हैं, जैसे आलू के जीन का प्रवेश टमाटर में करवाना या सुअर के जीन का प्रवेश टमाटर में करवाना या मछली के जीन का प्रवेश सोयाबीन में करवाना इत्यादि ।         ...

छठ पूजा का महत्व

जो किसानों की मौत पर भोकासी फाड़ के रो रहे हैं, टेसुआ बहा रहे है, उनमे सबसे ज्यादा स्युडो किसान है, छद्म किसान! किसान की सरकारी परिभाषा  मे तो आते हैं पर खेती किसानी से उनका दूर दूर तक नाता नही हैं। इनमें से ज्यादातर तो गूगल और सोशल मीडिया से इतर खेत के बारे मे जानते ही नही। किसानों के सबसे बड़े हमदर्द वो हैं जो कभी नंगे पांव आरी डरेर पर चले नही, कभी खेत की मिट्टी सूंघी नही बल्कि जब गलती से कभी मिट्टी या पांव लग भी गया तो बोलते हैं" ओ शिट्ट"! हम जैसे छद्म किसानों को एक्चुअल किसानों की परेशानी से क्या वास्ता? हम तो सिर्फ जाते हैं अपना हिस्सा बटोरते हैं, सरकारी क्रय केंद्रों या बनियो के आढत पर बेच देते हैं और अपनी जमीन को खेत बनाये रखते हैं। वो जो उस मे बिया लगाते हैं, ट्रैक्टर या हल चलाते हैं, कटनी कराते हैं, वो क्या हैं? सरकारी परिभाषा मे वो किसान ही नही, वो अपनी उपज सरकारी क्रय केंद्रों पर बेच भी नही सकते!वो कृषक बीमा के हकदार नही, वो किसान क्रेडिट कार्ड के हकदार नही, वो किसान के रुप मे किसी भी सरकारी सुविधा के हकदार नही। सूखा राहत मिलेगा तो छद्म किसानों को जो शायद कहीं नौकरी ...

पीलीभीत खेती

जो किसानों की मौत पर भोकासी फाड़ के रो रहे हैं, टेसुआ बहा रहे है, उनमे सबसे ज्यादा स्युडो किसान है, छद्म किसान! किसान की सरकारी परिभाषा  मे तो आते हैं पर खेती किसानी से उनका दूर दूर तक नाता नही हैं। इनमें से ज्यादातर तो गूगल और सोशल मीडिया से इतर खेत के बारे मे जानते ही नही। किसानों के सबसे बड़े हमदर्द वो हैं जो कभी नंगे पांव आरी डरेर पर चले नही, कभी खेत की मिट्टी सूंघी नही बल्कि जब गलती से कभी मिट्टी या पांव लग भी गया तो बोलते हैं" ओ शिट्ट"! हम जैसे छद्म किसानों को एक्चुअल किसानों की परेशानी से क्या वास्ता? हम तो सिर्फ जाते हैं अपना हिस्सा बटोरते हैं, सरकारी क्रय केंद्रों या बनियो के आढत पर बेच देते हैं और अपनी जमीन को खेत बनाये रखते हैं। वो जो उस मे बिया लगाते हैं, ट्रैक्टर या हल चलाते हैं, कटनी कराते हैं, वो क्या हैं? सरकारी परिभाषा मे वो किसान ही नही, वो अपनी उपज सरकारी क्रय केंद्रों पर बेच भी नही सकते!वो कृषक बीमा के हकदार नही, वो किसान क्रेडिट कार्ड के हकदार नही, वो किसान के रुप मे किसी भी सरकारी सुविधा के हकदार नही। सूखा राहत मिलेगा तो छद्म किसानों को जो शायद कहीं नौकरी ...

कालिंजर - बुंदेलखंड का अजेय किला

भगवान राम की तपोस्थली चित्रकूट से लगभग 55 किलोमीटर दूर स्थित कालिंजर का किला अपने में एक विस्तृत काल के इतिहास को समेटे हुआ अक्षुण्ण खड़ा है। इसकी गोद में न जाने कितने ऐतिहासिक महल, मंदिर, मूर्तियां, गुफाएं और रहस्यमयी कहानियां छुपी हुई है।               कालिंजर अर्थात जिसने समय पर भी विजय पा लिया हो। कालिंजर शब्द  का उल्लेख तो प्राचीन पौराणिक ग्रंथों में मिल जाता है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार सतयुग में यह स्थान कीर्तिनगर, त्रेतायुग में मध्यगढ़, द्वापर युग में सिंहलगढ़ और कलियुग में कालिंजर के नाम से विख्यात रहा है। सतयुग में कालिंजर चेदि नरेश राजा उपरिचरि बसु के अधीन रहा व इसकी राजधानी सूक्तिमति नगरी थी। त्रेता युग में यह कौशल राज्य के अन्तर्गत आ गया था। वाल्मीकि रामायण के अनुसार  तब कोसल नरेश राम ने इसे भरवंशीय ब्राह्मणों को सौंप दिया था। किले मैं ही  कोटितीर्थ के निकट लगभग बीस  हजार वर्ष पुरानी शंख लिपि में लिखित स्थल है, जिसमें वनवास के समय भगवान राम के कालिंजर आगमन का उल्लेख किया गया है। श्रीर...

तलाक़ - एक विश्लेषण

मान्यता है कि वैवाहिक जोड़े  ईश्वर स्वर्ग में बनाता है लेकिन हमेशा इन जोड़ों की आपस में नहीं बनती और ये बीच सफर में ही अलग होने  का फैसला कर लेते हैं। सात जन्म का यह रिश्ता सही तरीके से एक जन्म भी नहीं चल पाता है और बात तलाक या विवाह विच्छेद तक पहुंच जाती है।। पहले भारत में तलाक के किस्से आम नहीं थे क्योंकि हमारे यहां विवाह एक  सामाजिक और धार्मिक संस्कार के रूप  में माना जाता था , जिसमें दंपति तमाम वैवाहिक और पारिवारिक समस्याओं के बावजूद इसे  जीवनपर्यंत निभाने की कोशिश करते थे। अनेक ऐसे परिवार हैं, जिनमें पति पत्नी में कभी नहीं बन पायी परंतु उन्होंने समाज  और परिवार को ध्यान में रखकर अलग होने की बात कभी नहीं सोची, परंतु अब बदलते समय के साथ लोग इस दिशा में मुड़ने लगे हैं। जाहिर है कि लोग अब विवाह को एक सामाजिक -धार्मिक संस्कार न मानकर एक सामाजिक समझौता के रुप में समझने लगे हैं , जिसमे दो पक्ष साथ मे जिंदगी बिताने का फैसला करते हैं और जब आपस में नही बनती है तो दोनों अलग हो जाते हैं।             ...

दलहन क्रांति की आवश्यकता

हरित क्रांति  ने जहां एक ओर भारत को गेंहू धान सदृश खाद्य पदार्थों के उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाकर खाद्य संकट से उबारने का काम किया वहीं दूसरी ओर इसने एक महत्वपूर्ण खाद्य पदार्थ दलहन की उपेक्षा कर इसमें देश को बहुत पीछे कर दिया। वस्तुत: हरित क्रांति के संकर बीजों, रासायनिक खाद, कीटनाशक जहर व खरपतवार नाशी संसाधनों ने स्वावलंबी घर की खेती को न सिर्फ  बिगाड़ दिया बल्कि इससे उपभोक्ताओं का स्वास्थ्य भी बिगड़ा। आम भारतीयों की थाली से दाल दूर होता चला गया। वर्ष 1961 में कुल भारतीय खेती में दलहन की खेती की हिस्सेदारी जो 17 प्रतिशत थी , वर्ष 2009 में घटकर 7 प्रतिशत मात्र रह गई। असल में विभिन्न महत्वपूर्ण पोषक तत्वों से भरपूर दालें कुपोषण दूर करने में सहायता करती हैं। भारत , जहां कुपोषित बच्चों की संख्या अत्यधिक है, वहां इससे लड़ने में दालों की महत्वपूर्ण भूमिका है। चावल और गेहूं जैसे सामान्य अनाज की तुलना में दालों में प्रति ग्राम औसतन दो से तीन गुना प्रोटीन होता है। इसके अतिरिक्त दालों की खेती फसल चक्र (क्रॉप रोटेशन) के ज़रिए जैव विविधता के संरक्षण में भी सहायता देती है तथा लचीली और पा...

सरकारी खाद्यान्न खरीद में बढ़ती पारदर्शिता

          न्यूनतम समर्थन मूल्य योजना के अंतर्गत किसानों से धान /बाजरा /ज्वार/मक्का की खरीद प्रारंभ  होने वाली है। वस्तुत न्यूनतम समर्थन मूल्य योजना के संबंध में हमेशा से किसानों की मांगें उठती रही है और सरकार द्वारा इस संबंध में निरंतर परिवर्तन और सुधार कर उन्हें अधिकाधिक लाभ पहुंचाने की कोशिश की जाती रही है। यहां यह बताना श्रेयस्कर होगा कि भारत सरकार द्वारा प्रत्येक वर्ष किसानों  को उनकी उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य प्राप्त कराने के उद्देश्य से खरीफ और रबी सीजन में कुल 23 फसलों  के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की जाती है। यह कृषि लागत और मूल्य आयोग की अनुशंसा पर आधारित होता है। केंद्र सरकार ने किसानों की फसलों को उचित कीमत दिए जाने के उद्देश्य से वर्ष 1965 में कृषि लागत और मूल्य आयोग  का गठन किया गया था। भारत में सर्वप्रथम 1966-67 में एमएसपी दर लागू की गई थी। तबसे हरेक साल इसमें सुधार और विस्तारीकरण के उपाय किए जाते रहे हैं। हालांकि उस समय देश में खाद्यान्न उत्पादन की अल्पता थी और  भारत खाद्यान्न आयातक देशों में गिना जाता था परंतु आज भा...

महंगी शादियों का अर्थशास्त्र

अक्सर लोग अपने घर की शादियों में जमकर खर्च करते हैं। इनमें से जो हैसियत और रसूख वाले हैं वो अपना स्टेटस मेंटेन करने के लिए ऐसा करते हैं तो  वो लोग भी, जिनकी हैसियत उतनी नहीं है, उनसे प्रभावित होकर सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए खर्च करते हैं। प्रदर्शन की इच्छा तो गरीबों की भी होती है, तो वो इसे पूरा करने के लिए कर्ज में डूबे जाते हैं। पिछले दिनों अंबानी परिवार के वैवाहिक समारोहों को लेकर मीडिया में  शादियों  में किया जानेवाला खर्च, प्रदर्शन और उसकी उपयोगिता बहस का मुद्दा बन गया है। लेकिन इसका एक पक्ष और है जो हमारी बाजार  और हमारे देश की अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ है। एक अनुमान के अनुसार अंबानी परिवार की इस शादी में लगभग  5 हजार करोड़ रुपए खर्च किए गए जो उनकी हैसियत का 0.5 प्रतिशत ही था। अक्सर सामान्य लोग अपने घर की शादियों में अपनी हैसियत का 5 से 15 प्रतिशत तक खर्चा कर लेते हैं।            शादियों  में किया गया यह ख़र्च भी अर्थव्यवस्था के विकास में योगदान देता है। इकोनॉमिक्स टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार देश...

निर्यात में कृषि उत्पादों की बढ़ती भूमिका

स्वतंत्रता प्राप्ति काल से लेकर 1980 के दशक तक भारत खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर नहीं था और यह एक प्रमुख खाद्यान्न आयातक देश के रूप में जाना  जाता था, परंतु ग्रीन रिवोल्यूशन के बाद स्थिति पलट सी गई है। भारत अब आयातक से अन्नदाता और निर्यातक बन गया है। वर्ष 2023-24 में देश में कुल खाद्यान्न उत्पादन लगभग 3,288.52 लाख टन हुआ है, जो पिछले पांच वर्षों के औसत खाद्यान्न उत्पादन 3,077.52 लाख टन से 211 लाख टन अधिक है, अर्थात  निरंतर खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि होती जा रही है। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था उसकी निर्यात की स्थिति से लगाई जा सकती है जो विदेशी मुद्रा के भंडार को सशक्त करता है। वर्ष 2023-24 में हालांकि कृषि निर्यात 48.9 बिलियन डॉलर तक तो पहुंच गया , लेकिन यह वर्ष 2022-23 के  53.2 बिलियन डॉलर से कम था। इस वर्ष  को अपवाद स्वरूप ही माना जा सकता है क्योंकि निर्यात कम होने के पीछे समसामयिक वैश्विक संकट है, जिसका असर लगभग सभी देशों पर पड़ा है। परंतु यदि हम पिछले दशकों से इसका तुलना करें तो भारत के निर्यात में कृषि उत्पादों का हिस्सा निरंतर बढ़ रहा है। भारत का कृषि क्...

जैविक खेती की बढ़ती स्वीकार्यता

हरित क्रांति  ने जहां एक ओर भारत को गेंहू धान सदृश खाद्य पदार्थों के उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाकर खाद्य संकट से उबारने का काम किया वहीं दूसरी ओर इसने एक महत्वपूर्ण खाद्य पदार्थ दलहन की उपेक्षा कर इसमें देश को बहुत पीछे कर दिया। वस्तुत: हरित क्रांति के संकर बीजों, रासायनिक खाद, कीटनाशक जहर व खरपतवार नाशी संसाधनों ने स्वावलंबी घर की खेती को न सिर्फ  बिगाड़ दिया बल्कि इससे उपभोक्ताओं का स्वास्थ्य भी बिगड़ा। आम भारतीयों की थाली से दाल दूर होता चला गया। वर्ष 1961 में कुल भारतीय खेती में दलहन की खेती की हिस्सेदारी जो 17 प्रतिशत थी , वर्ष 2009 में घटकर 7 प्रतिशत मात्र रह गई। असल में विभिन्न महत्वपूर्ण पोषक तत्वों से भरपूर दालें कुपोषण दूर करने में सहायता करती हैं। भारत , जहां कुपोषित बच्चों की संख्या अत्यधिक है, वहां इससे लड़ने में दालों की महत्वपूर्ण भूमिका है। चावल और गेहूं जैसे सामान्य अनाज की तुलना में दालों में प्रति ग्राम औसतन दो से तीन गुना प्रोटीन होता है। इसके अतिरिक्त दालों की खेती फसल चक्र (क्रॉप रोटेशन) के ज़रिए जैव विविधता के संरक्षण में भी सहायता देती है तथा लचीली और पा...